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________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ एक सौ तिरासी २८. धार्मिक जनों में परस्पर वात्सल्य भाव की कमी होने पर सम्यग्दर्शन की हानि होती है। २९. अकषाय (वीतरागता) ही चारित्र है । अतः कषायभाव रखने वाला संयमी नहीं होता। ३०. जो यतनारहित है, उसके लिए गुण भी दोष बन जाते हैं। ३१. स्वच्छंद आचरण करने वाली नारी अपने दोनों कुलों (पितृकुल व श्वसुर कुल) को वैसे ही नष्ट कर देती है, जैसे कि स्वच्छंद बहती हुई नदी अपने दोनों कूलों (तटों) को। ३२. कहाँ अंधा और कहाँ पथप्रदर्शक ? (अंधा और मार्गदर्शक, यह कैसा मेल ?) ३३. यह वसुंधरा वीरभोग्या है। ३४. सूत्र, अर्थ (व्याख्या) को छोड़कर नहीं चलता है । ३५. जिस चन्द्र की ज्योत्स्ना द्वारा कुमुद विकसित होते हैं, हन्त ! वे ही कृतघ्न होकर अपने सौन्दर्य का प्रदर्शन करते हुए उसी चन्द्रमा का उपहास करने लग जाते हैं। ३६. जैसे-जैसे मन, वचन, काया के योग (संघर्ष) अल्पतर होते जाते हैं, वैसे वैसे बंध भी अल्पतर होता जाता है । योगचक्र का पूर्णतः निरोध होने पर आत्मा में बंध का सर्वथा अभाव हो जाता है, जैसे कि समुद्र में रहे हुए अच्छिद्र जलयान में जलागमन का अभाव होता है। ३७. संयमी साधक के द्वारा कभी हिंसा हो भी जाए, तो वह द्रव्य हिंसा होती है, भाव हिंसा नहीं। किंतु जो असंयमी है, वह जीवन में कभी किसी का वध न करने पर भी, भावरूप से सतत हिंसा करता रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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