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सूत्रकृतांग की सूक्तियां
इकत्तीस १०. जो अपने मत की प्रशंसा और दूसरों के मत की निंदा करने में ही
अपना पाण्डित्य दिखाते हैं, वे एकान्तवादी संसार-चक्र में भटकते ही रहते हैं।
११. अज्ञानी साधक उस जन्मांध व्यक्ति के समान है, जो सछिद्र नौका पर चढ़
कर नदी किनारे पहुँचना तो चाहता है, किंतु किनारा आने से पहले ही बीच
प्रवाह में डूब जाता है। १२. जो दुःखोत्पत्ति का कारण ही नहीं जानते, वे उसके निरोध का कारण कैसे
जान पाएंगे? १३. अहंकार रहित एवं अनासक्त भाव से मुनि को राग-द्वेष के प्रसंगों में ठीक
बीच से तटस्थ यात्रा करनी चाहिए। १४. ज्ञानी होने का सार यही है कि किसी भी प्राणी की हिंसा न करें । अहिंसा
मूलक समता ही धर्म का सार है, बस, इतनी बात सदैव ध्यान में रखनी चाहिए।
१५. अभी इसी जीवन में समझो, क्यों नहीं समझ रहे हो ? मरने के बाद पर
लोक में संबोधि का मिलना कठिन है। जैसे बीती हुई रात फिर लौटकर नहीं आती, उसी प्रकार मनुष्य का गुजरा हुआ जीवन फिर हाथ नहीं आता।
१६. एक ही झपाटे में बाज जैसे बटेर को मार डालता है, वैसे ही आयु क्षीण
होने पर मृत्यु भी जीवन को हर लेता है । १७. मरने के बाद सद्गति सुलभ नहीं है। अत: जो कुछ सत्कर्म करना है, वह
यही करो। १८. आत्मा अपने स्वयं के कर्मों से ही बन्धन में पड़ता है। कृत कर्मों को भोगे
बिना मुक्ति नहीं है। . १९. जिस प्रकार ताल का फल वृन्त से टूट कर नीचे गिर पड़ता है, उसी प्रकार
आयु क्षीण होने पर प्रत्येक प्राणी जीवन से च्युत हो जाता है । २०. भले ही नग्न रहे, मास-मास का अनशन करे और शरीर को कश एवं क्षीण
कर डाले, किंतु जो अन्दर में दंभ रखता है, वह जन्म-मरण के अनंत चक्र में भटकता ही रहता है।
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