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________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ सत्रह ९६. सर्प, गरुड के निकट डरता हुआ बहुत संभल कर चलता है । ९७. देवता, दानव, गंधर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर सभी ब्रह्मचर्य के साधक को ___ नमस्कार करते हैं, क्यों कि वह एक बहुत दुष्कर कार्य करता है। ९८. जो श्रमण खा-पीकर खूब सोता है, समय पर धर्माराधना नहीं करता, वह ___ 'पापश्रमण' कहलाता है । ९९. जो श्रमण असंविभागी है (प्राप्त सामग्री को साथियों में बांटता नहीं है, और परस्पर प्रेमभाव नहीं रखता है), वह 'पाप श्रमण' कहलाता है। १००. जीवन अनित्य है, क्षणभंगुर है, फिर क्यों हिंसा में आसक्त होते हो ? १०१. जीवन और रूप, बिजली की चमक की तरह चंचल हैं। १०२. स्त्री, पुत्र, मित्र और बंधुजन सभी जीते-जी के साथी हैं, मरने के बाद कोई किसी के पीछे नहीं जाता। १०३. धीर पुरुष सदा क्रिया (कर्तव्य) में ही रुचि रखते हैं । १०४. संसार में जन्म का दुःख है, जरा, रोग और मृत्यु का दुःख है, चारों ओर दुःख-ही-दुःख है । अतएव वहाँ प्राणी निरंतर कष्ट ही पाते रहते हैं। १०५. सदा हितकारी सत्य वचन बोलना चाहिए । १०६. अस्तेयव्रत का साधक विना किसी की अनुमति के और तो क्या, दांत साफ करने के लिए एक तिनका भी नहीं लेता। १०७. सद्गुणों की साधना का कार्य भुजाओं से सागर तैरने जैसा है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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