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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ इकत्तीस
१६९. शब्द आदि विषयों में अतृप्त और परिग्रह में आसक्त रहने वाला आत्मा
कभी संतोष को प्राप्त नहीं होता।
१७०. आत्मा प्रदुष्ट चित्त (रागद्वेष से कलुषित) होकर कर्मों का संचय करता है।
__ वे कर्म विपाक (परिणाम) में बहुत दुःखदायी होते हैं ।
१७१. जो आत्मा विषयों के प्रति अनासक्त है, वह संसार में रहता हुआ भी
उसमें लिप्त नहीं होता। जैसे कि पुष्करिणी के जल में रहा हुआ पलाशकमल ।
१७२. जो मनोज्ञ और अमनोज्ञ शब्दादि विषयों में सम रहता है, वह वीतराग
१७३. मन एवं इन्द्रियों के विषय, रागात्मा को ही दुःख के हेतु होते हैं। वीतराग
को तो वे किंचित् मात्र भी दुःखी नहीं कर सकते ।
१७४. कामभोग-शब्दादि विषय न तो स्वयं में समता के कारण होते हैं और
न विकृति के ही। किंतु जो उनमें द्वेष या राग करता है, वह उनमें मोह से राग-द्वेष रूप विकार को उत्पन्न करता है।
१७५. साधु स्वाद के लिए भोजन न करे, किंतु जीवन-यात्रा के निर्वाह के
लिए करे । १७६. मोक्ष में आत्मा अनंत सुखमय रहता है । उस सुख की कोई उपमा नहीं
है और न कोई गणना ही है।
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