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________________ एक सौ अठहत्तर सूक्ति त्रिवेणी ८. पावाणं जदकरणं, तदेव खलु मंगलं परमं । --बृह० भा० ८१४ ९. रज्जं विलुत्तसारं जह, तह गच्छो वि निस्सारो। -बृह० भा० ९३७ १०. जह ण्हाउत्तिण्ण गओ, बहुअतरं रेणुयं छुभइ अंगे । सुठु वि उज्जममाणो, तह अण्णाणी मलं चिणइ । --बृह० भा० ११४७ ११. न वि अत्थि न वि अ होही, सज्झाय समं तवोकम्मं । --बृह० भा० ११६९ १२. जो वि पगासो बहुसो, गुणिओ पच्चक्खओ न उवलद्धो । जच्चंधस्स व चंदो, फुडो वि संतो तहा स खलु ॥ -बृह० भा० १२२४ १३. कत्थ व न जलइ अग्गी, कत्थ व चंदो न पायडो होइ ? कत्थ वरलक्खणधरा, न पायडा होंति सप्पुरिसा ॥ -बृह० भा० १२४५ १४. सुक्किधणम्मि दिप्पइ अग्गी, मेहरहिओ ससी भाइ । तविहजणे य निउणे, विज्जा पुरिसा वि भायंति ॥ --बृह० भा० १२४७ १५. को नाम सारहीणं, स होइ जो भद्दवाइणो दमए । दुठे वि उ जो आसे, दमेइ तं आसियं बिति ॥ --बृह० भा० १२७५ १६. माई अवन्नवाई, किदिवसियं भावणं कुव्वइ । -बृह० भा० १३०२ १७. काउं च नाणुतप्पइ, एरिसओ निक्किवो होइ। -बृह० भा० १३१९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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