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आचारांग की सूक्तियाँ
१०४.
१०५.
१०६.
१०७.
१०८.
१०९.
११०.
१११.
११२.
११३.
पच्चीस
यदि कोई अन्य व्यक्ति भी धर्म के नाम पर जीवों की हिंसा करते हैं, तो हम इससे भी लज्जानुभूति करते हैं ।
आर्य महापुरुषों ने समभाव में धर्म कहा है ।
११४.
मैं एक हूँ -- अकेला हूँ ।
न कोई मेरा है, और न मैं किसीका हूँ ।
साधक न जीने की आकांक्षा करे और न मरने की कामना करे । वह जीवन और मरण दोनों में ही किसी तरह की आसक्ति न रखे, तटस्थ भाव से रहे ।
साधक को अन्दर और बाहर की सभी ग्रन्थियों ( बन्धन रूप गाँठों) से मुक्त होकर जीवन-यात्रा पूर्ण करनी चाहिए ।
शरीर और इन्द्रियों के क्लान्त होने पर भी मुनि अन्तर्मन में समभाव ( = स्थिरता ) रखे । इधर-उधर गति एवं हलचल करता हुआ भी साधक निद्य नहीं है, यदि वह अन्तरंग में अविचल एवं समाहित है तो !
सब प्रकार से शरीर का मोह छोड़ दीजिए, फलतः परीषहों के आने पर विचार कीजिए कि मेरे शरीर में परीषह हैं ही नहीं ।
कठोर = कटु वचन न बोले ।
संकट में मन को ऊँचा-नीचा अर्थात डाँवाडोल नहीं होने देना चाहिए ।
अपने से बड़े गुरुजन जब बोलते हों, विचार चर्चा करते हों, तो उनके बीच में न बोले ।
जो अपने मन को अच्छी तरह परखना जानता है वही सच्चा निर्ग्रन्थ साधक है ।
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