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________________ सूक्ति कण ६१. मानवजाति बहुत विचित्र है । ६२. साधक को सर्वत्र सम रहना चाहिए । ६३. मूल को सींचने पर ही फल लगते हैं । मूल नष्ट होने पर फल भी नष्ट हो जाता है । ६४. दुःखों का मूल मोह है । ६५. जरा-सी खटाई भी जिस प्रकार दूध को नष्ट कर देती है, उसी प्रकार राग-द्वेष का संकल्प संयम को नष्ट कर देता है । ६६. बाहर में जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शांत किया जा सकता है । किंतु मोह अर्थात् तृष्णा रूप अग्नि को समस्त समुद्रों के जल से भी शांत नहीं किया जा सकता । ६७. मनुष्य का मन बड़ा गहरा है, इसे समझ पाना कठिन है । ६८. पूर्व कृत पुण्य और पाप ही संसार परम्परा का मूल है । ६९. दो सौ उनतालीस ७०. पत्थर से आहत होने पर कुत्ता आदि क्षुद्र प्राणी पत्थर को ही काटने दौड़ता है ( न कि पत्थर मारने वाले को), किंतु सिंह बाण से आहत होने पर बाण मारने वाले की ओर ही झपटता है । [ अज्ञानी सिर्फ प्राप्त सुख-दुःख को देखता है, ज्ञानी उसके हेतु को । ] अज्ञान सबसे बड़ा दुःख है । अज्ञान से भय उत्पन्न होता है, सब प्राणियों के संसार भ्रमण का मूल कारण अज्ञान ही है । ७१. आत्म-धर्म की साधना में ध्यान का प्रमुख स्थान है जैसे कि शरीर में मस्तक का, तथा वृक्ष के लिए उसकी जड़ का । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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