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आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां
१. व्यवहार (नय) के विना परमार्थ (शुद्ध आत्म-तत्त्व) का उपदेश करना
अशक्य है।
२. जो भूतार्थ अर्थात् सत्यार्थ-शुद्ध दृष्टि का अवलम्बन करता है, वही
सम्यग्दृष्टि है।
३. व्यवहार नय से जीव (आत्मा) और देह एक प्रतीत होते हैं, किंतु निश्चय
दृष्टि से दोनों भिन्न हैं, कदापि एक नहीं हैं।
४. जिस प्रकार नगर का वर्णन करने से राजा का वर्णन नहीं होता, उसी
प्रकार शरीर के गुणों का वर्णन करने से शुद्धात्मस्वरूप केवलज्ञानी के गुणों का वर्णन नहीं हो सकता।
५. मैं (आत्मा) एक मात्र उपयोगमय = ज्ञानमय हूँ।
६. आत्म-द्रष्टा विचार करता है कि- " मैं तो शुद्ध ज्ञान-दर्शन स्वरूप, सदा
काल अमूर्त, एक शुद्ध शाश्वत तत्त्व हूँ। परमाणु मात्र भी अन्य द्रव्य मेरा नहीं है।"
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