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चुणिसाहित्य की सूक्तियाँ
दो सौ तेरह
९. जो अपने को ही नहीं जानता, वह दूसरों को क्या जानेगा ?
१०. अप्रमत्त (सदा सावधान) को चलते, खड़े होते, खाते, कहीं भी कोई भय
नहीं है।
११. बिना इंधन के अग्नि नहीं जलती।
१२. विश्व में जितने असंयम के स्थान (कारण) हैं, उतने ही संयम के स्थान
(कारण) हैं।
१३. कुछ लोग केवल ग्रंथ के पंडित (शब्द-पंडित) होते हैं, 'यथार्थ पंडित'
(भावपंडित) नहीं होते। १४. प्रत्येक 'वाद' रागद्वेष की वृद्धि करने वाला है ।
१५. वस्तुतः विवेक ही मोक्ष है।
१६. यदि कोई वन में रहने मात्र से ही ज्ञानी और तपस्वी हो जाता है, तो फिर
सिंह, वाघ आदि भी ज्ञानी, तपस्वी हो सकते हैं ।
१७. जब तक शरीर है, तब तक भूख है।
१८. बूढ़ा होकर कोई फिर उत्तानशायी दूधमुंहा बालक नहीं हो सकता।
१९. परिग्रह (धनसंग्रह) बिना हिंसा के नहीं होता।
२०. समभाव ही सामायिक है ।
२१. कर्म करो, किंतु मन को दूषित न होने दो।
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