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________________ आचार्य कुन्दकुन्द की सूक्तियां एक सौ इकसठ १६. जिस प्रकार वैद्य (औषध रूप में) विष खाता हुआ भी विष से मरता नहीं, उसी प्रकार सम्यक् दृष्टि आत्मा कर्मोदय के कारण सुख-दुःख का अनुभव करते हुए भी उनसे बद्ध नहीं होता । १७. ज्ञानी आत्मा (अंतर में रागादि का अभाव होने के कारण) विषयों का सेवन करता हुआ भी, सेवन नहीं करता। अज्ञानी आत्मा (अन्तर में रागादि का भाव होने के कारण) विषयों का सेवन नहीं करता हुआ भी, सेवन करता है। १८. वास्तव में अनिच्छा (इच्छामुक्ति) को ही अपरिग्रह कहा है । १९. जिस प्रकार कीचड़ में पड़ा हुआ सोना कीचड़ से लिप्त नहीं होता, उसे जंग नहीं लगता है, उसी प्रकार ज्ञानी संसार के पंदार्थसमूह में विरक्त होने के कारण कर्म करता हुआ भी कर्म से लिप्त नहीं होता। किंतु जिस प्रकार लोहा कीचड़ में पड़कर विकृत हो जाता है, उसे जंग लग जाता है, उसी प्रकार अज्ञानी पदार्थों में राग भाव रखने के कारण कर्म करते हुए विकृत हो जाता है, कर्म से लिप्त हो जाता है । २०. जो ऐसा मानता है कि " मैं दूसरों को दुःखी या सुखी करता हूँ"-वह वस्तुतः अज्ञानी है । ज्ञानी ऐसा कभी नहीं मानते । २१. कर्मबंध वस्तु से नहीं, राग और द्वेष के अध्यवसाय-संकल्प से होता २२. मेरा अपना आत्मा ही ज्ञान (ज्ञानरूप) है, दर्शन है और चारित्र है। २३. यह आत्मा किस प्रकार जाना जा सकता है ? आत्मप्रज्ञा अर्थात् भेदविज्ञान रूप बुद्धि से ही जाना जा सकता है। २४. जो किसी प्रकार का अपराध नहीं करता, वह निर्भय होकर जनपद में भ्रमण कर सकता है । इसी प्रकार निरपराध = निर्दोष आत्मा (पाप नहीं करने वाला) भी सर्वत्र निर्भय होकर विचरता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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