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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ इक्यावन
८४. जो और जितने हेतु संसार के हैं, वे और उतने ही हेतु मोक्ष के हैं ।
८५. जो ईपिथिक (गमनागमन) आदि क्रियाएँ असंयत के लिए कर्मबंध का
कारण होती हैं, वे ही यतनाशील संयत से लिए मुक्ति का कारण बन जाती
८६. जिन शासन में एकांत रूप से किसी क्रिया का न तो निषेध है और न
विधान ही है । परिस्थिति को देखकर ही उनका निषेध या विधान किया जाता है, जैसा कि रोग में चिकित्सा के लिए।
८७. बाहय वस्तु के आधार पर किसी को अणुमात्र भी कर्मबंध नहीं होता।
(कर्मबंध अपनी भावना के आधार पर ही होता है)।
८८. अत्यधिक मूत्र के वेग को रोकने से आँखें नष्ट हो जाती हैं और तीन मल
वेग को रोकने से जीवन ही नष्ट हो जाता है ।
८९. जो मनुष्य हिताहारी हैं, मिताहारी हैं और अल्पाहारी हैं, उन्हें किसी वैद्य
से चिकित्सा करवाने की आवश्यकता नहीं । वे स्वयं ही अपने वैद्य हैं, चिकित्सक हैं।
९०. आवश्यकता से अधिक एवं अनुपयोगी उपकरण (सामग्री) अधिकरण ही
(क्लेशप्रद एवं दोषरूप) हो जाते हैं । ९१. जो साधक बाहय उपकरणों को अध्यात्म विशुद्धि के लिए धारण करता है,
उसे त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों ने अपरिग्रही ही कहा है।
९२. त्रिलोकदर्शी जिनेश्वर देवों का कथन है कि अनेकानेक जीवनसमूहों से परि
व्याप्त विश्व में साधक का अहिंसकत्व अन्तर् में अध्यात्म विशुद्धि की दृष्टि से ही है, बाहय हिंसा या अहिंसा की दृष्टि से नहीं।
९३. कभी-कभार ईर्यासमित से गतिशील साधु के पैर के नीचे भी कीट, पतंग
आदि क्षुद्र प्राणी आ जाते हैं और दब कर मर भी जाते हैं
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