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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ तेतालीस
४५. हिंसा और परिग्रह का त्याग ही वस्तुतः भाव प्रव्रज्या है।
४६. बुराई को दूर करने की दृष्टि से यदि आलोचना की जाए, तो कोई दोष
नहीं है। ४७. मनुष्य को भद्र (सरल) होना चाहिए, भद्र को ही कल्याण की प्राप्ति
होती है । विषधर सांप ही मारा जाता है, निविष को कोई नहीं मारता ।
४८. जो मन की भूख (तृष्णा) का भेदन करता है, वही भाव रूप में भिक्षु है।
४९. जो ज्ञानपूर्वक संयम की साधना में रत है, वही भाव (सच्चा) श्रमण
५०. तीर्थकर की वाणी अर्थ (भाव) रूप होती है और निपुण गणधर उसे
सूत्र-बद्ध करते हैं।
५१. अच्छे से अच्छा जलयान भी हवा के बिना महासागर को पार नहीं कर
सकता।
५२. शास्त्रज्ञान में कुशल साधक भी तप, संयम रूप पवन के विना संसार
सागर को तैर नहीं सकता।
५३. जो साधक चरित्र के गुण से हीन है, वह बहुत से शास्त्र पढ़ लेने पर भी
संसार समुद्र में डूब जाता है।
५४. शास्त्रों का बहुत-सा अध्ययन भी चरित्र-हीन के लिए किस काम का ?
क्या करोड़ों दीपक जला देने पर भी अंधे को कोई प्रकाश मिल सकता है ?
५५. शास्त्र का थोड़ा-सा अध्ययन भी सच्चरित्र साधक के लिए प्रकाश देने
वाला होता है। जिसकी आँखें खुली हैं, उसको एक दीपक भी काफी प्रकाश दे देता है।
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