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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ सैंतीस
१९. जिस प्रकार जल आदि शोधक द्रव्यों से मलिन वस्त्र भी शुद्ध हो जाता है, उसी प्रकार आध्यात्मिक तप साधना द्वारा आत्मा ज्ञानावरणादि अष्टविध कमल से मुक्त हो जाता है ।
२०. जिस प्रकार कोई चुपचाप लुकछिपकर विष पी लेता है, तो क्या वह उस विष से नहीं मरेगा ? अवश्य मरेगा । उसी प्रकार जो छिपकर पाप करता है, तो क्या वह उससे दूषित नहीं होगा ? अवश्य होगा ।
२१. जो व्यक्ति धर्म में दृढ़ निष्ठा रखता है, वस्तुतः वही बलवान है, वही शूरवीर है । जो धर्म में उत्साहहीन है, वह शारीरिक शक्ति से वीर एवं बलवान होते हुए भी अध्यात्म दृष्टि से न वीर है, न बलवान है ।
२२. जो साधक अध्यात्मभावरूप ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विनय में श्रेष्ठ हैं, वे ही विश्व के सर्वश्रेष्ठ पुंडरीक कमल हैं ।
२३. कोई कितना ही पापात्मा हो और निश्चय ही उत्कृष्ट नरकस्थिति को प्राप्त करने वाला हो, किंतु वह भी वीतराग के उपदेश द्वारा उसी भव में मुक्तिलाभ कर सकता है ।
२४. धर्म भावमंगल है, इसी से आत्मा को सिद्धि प्राप्त होती है ।
२५. हिंसा का प्रतिपक्ष--अहिंसा है ।
२६. एकांत नित्यवाद के अनुसार सुख-दुःख का संयोग संगत नहीं बैठता और एकांत उच्छेदवाद = अनित्यवाद के अनुसार भी सुख-दुःख की बात उपयुक्त नहीं होती । अतः नित्यानित्यवाद ही इसका सही समाधान कर सकता है ।
२७.
शब्द आदि विषय आत्मा को धर्म से उत्क्रमण करा देते हैं, दूर हटा देते हैं, अतः इन्हें 'काम' कहा है ।
२८. मिथ्यादृष्टि अज्ञानी -- चाहे वह साधु के वेष में हो या गृहस्थ के वेष में, उसका कथन 'अकथा' कहा जाता है ।
तप संयम आदि गुणों से युक्त मुनि सद्भावमूलक सर्व जग-जीवों के हित के लिये जो कथन करते हैं, उसे 'कथा' कहा गया है ।
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