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________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ सत्ताईस १५१. दम्भरहित, अविसंवादी आत्मा ही धर्म का सच्चा आराधक होता है। १५२. करणसत्य-व्यवहार में स्पष्ट तथा सच्चा रहने वाला आत्मा जैसी कथनी वैसी करनी' का आदर्श प्राप्त करता है । १५३. वचन गुप्ति से निर्विकार स्थिति प्राप्त होती है। १५४. धागे में पिरोई हुई सूई गिर जाने पर भी गुम नहीं होती, उसी प्रकार ज्ञानरूप धागे से युक्त आत्मा संसार में भटकता नहीं, विनाश को प्राप्त नहीं होता। १५५. क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जागृत होता है। १५६. अभिमान को जीत लेने से मृदुता (नम्रता) जागृत होती है । १५७. माया को जीत लेने से ऋजुता (सरल भाव) प्राप्त होती है । १५८. लोभ को जीत लेने से संतोष की प्राप्ति होती है । १५९. साधक करोड़ों भवों के संचित कर्मों को तपस्या के द्वारा क्षीण कर देता है। १६०. असंयम से निवृत्ति और संयम में प्रवृत्ति करनी चाहिए । १६१. ज्ञान के समग्र प्रकाश से, अज्ञान और मोह के विवर्जन से तथा राग एवं द्वेष के क्षय से आत्मा एकान्तसुख-स्वरूप मोक्ष को प्राप्त करता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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