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________________ प्राक्कथन भारतीय संस्कृति का स्वरूपदर्शन करने के लिए यह नितान्त आवश्यक है कि भारतवर्ष में प्रचलित और प्रतिष्ठित विभिन्न संस्कृतियों का समन्वयात्मक दृष्टि से अध्ययन हो । भारत वर्ष की प्रत्येक संस्कृति की अपनी एक विशिष्ट धारा है । वह उसी संस्कृति के विशिष्ट रूप का प्रकाशक है। यह बात सत्य है, परंतु यह बात भी सत्य है कि उन संस्कृतियों का एक समन्वयात्मक रूप भी है। जिसको उन सब विशिष्ट संस्कृतियों का समन्वित रूप माना जा सकता है, वहीं यथार्थ भारतीय संस्कृति है । प्रत्येक क्षेत्र में जो समन्वयात्मक रूप है, उसका अनुशीलन ही भारतीय संस्कृति का अनुशीलन है । गंगा-जमुना तथा सरस्वती इन तीन नदियों की पृथक् सत्ता और माहात्म्य रहने पर भी इनके परस्पर संयोग से जो त्रिवेणीसंगम की अभिव्यक्ति होती है, उसका माहात्म्य और भी अधिक है। वर्तमान ग्रंथ के संकलनकर्ता परमश्रद्धेय उपाध्याय अमरमुनिजी श्वेतांबर जैन परम्परा के सुविख्यात महात्मा हैं । वे जैन होने पर भी विभिन्न सांस्कृतिक धाराओं के प्रति समरूपेण श्रद्धासम्पन्न हैं । वैदिक, जैन तथा बौद्ध वाङ्मय के प्रायः पचास ग्रंथों से उन्होंने चार हजार सूक्तियों का चयन किया है और साथ ही साथ उन सूक्तियों का हिंदी अनुवाद भी सन्निविष्ट किया है। तीन धाराओं के सम्मेलन से उद्भूत यह सूक्ति-त्रिवेणी सचमुच भारतीय संस्कृति के प्रेमियों के लिए एक महनीय तथा पावन तीर्थ बनेगी। ___ किसी देश की यथार्थ संस्कृति उसके बहिरंग के ऊपर निर्भर नहीं करती है । अपितु व्यक्ति की संस्कृति नैतिक उच्च आदर्श, चित्तशुद्धि, संयम, जीवसेवा, परोपकार तथा सर्वभूतहित-साधन की इच्छा, संतोष, दया, चरित्रबल, स्वधर्म में निष्ठा, परधर्म-सहिष्णुता, मंत्री, करुणा, प्रेम, सद्विचार प्रभृति सद्गुणों का विकास और काम, क्रोधादि रिपुओं के नियंत्रण के ऊपर निर्भर करती है । व्यक्ति गत धर्म, सामाजिक धर्म, राष्ट्रीय धर्म, जनसेवा, विश्वकल्याण प्रभृति गुण आदर्श संस्कृति के अंग हैं। नैतिक, आध्यात्मिक तथा दिव्य जीवन का आदर्श ही संस्कृति का प्राण है। ___ 'ज्ञाने मौनं, क्षमा शक्ती, त्यागे श्लाघाविपर्ययः' इत्यादि आदर्श उच्च संस्कृति के द्योतक हैं। जिस प्रकार व्यष्टि में हैं, उसी प्रकार समष्टि में भी समझना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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