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चूणिसाहित्य की सूक्तियाँ
दो सौ सत्रह ३५. जिस भाषा को बोलने पर-चाहे वह सत्य हो या असत्य-चारित्र की
शुद्धि होती है, तो वह सत्य ही है और जिस भाषा के बोलने पर चारित्र की शुद्धि नहीं होती-चाहे वह सत्य ही क्यों न हो--असत्य ही है । अर्थात् साधक के लिए शब्द का महत्त्व नहीं, भावना का महत्त्व है।
३६. धर्म कथा के बिना दर्शन (सम्यक्त्व) की उपलब्धि नहीं होती।
३७. साधना की दृष्टि से श्रुत ज्ञान सब ज्ञानों में श्रेष्ठ है ।
३८. विनयहीन व्यक्ति में सद्गुण नहीं ठहरते ।
३९. जब आत्मा मन, वचन, काया की चंचलतारूप योगास्रव का पूर्ण निरोध __कर देता है, तभी सदा के लिए आत्मा और कर्म पृथक् हो जाते
४०. जो पाप से दूर रहता है, वह पंडित है।
४१. मनुष्य की अपनी दो भुजाएँ ही उसकी दो पाँखें हैं।
४२. जो आत्मा को बांधता है, अथवा गिराता है, वह पाप है।
४३. जिसका मन सर्वम सम रहता है, वह समण (श्रमण) है।
४४. जो मन में सोता है-अर्थात् चिंतन मन में लीन रहता है, वह मनुष्य
४५. उज्च आदर्श से लिए श्रेष्ठ पुरुषों का मरण भी, जीवन के समान है।
४६. अपने घर में हर कोई राजा होता है।
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