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भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ
एक सौ सत्तानवे ९७. ज्यों-ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है, त्यों-त्यों चारित्र की हानि
होती है।
९८. देशोनकोटिपूर्व की साधना के द्वारा जो चारित्र अजित किया है, वह ___ अन्तर्मुहूर्त भर के प्रज्वलित कषाय से नष्ट हो जाता है।
९९. राग-द्वेष से रहित आचार्य शीतगृह (सब ऋतुओं में एक समान सुखप्रद
भवन) के समान है।
१००. पुंजीभूत अंधकार के समान मलिन चित्तवाला दीर्घसंसारी जीव जब देखो
तब पाप का ही विचार करता रहता है।
१०१. विहार करते हुए, गाँव में रहते हुए, भिक्षाचर्या करते हुए यदि सुन पाए
कि कोई साधु साध्वी बीमार है, तो शीघ्र ही वहां पहुंचना चाहिए। जो साधु शीघ्र नहीं पहुंचता है, उसे गुरु चातुर्मासिक प्रायश्चित्त आता
१०२. जिस प्रकार कुसुमित उद्यान को देख कर भौंरे उस पर मंडराने लग जाते
हैं, उसी प्रकार किसी साथी को दुःखी देखकर उसकी सेवा के लिए अन्य साथियों को सहज भाव से उमड़ पड़ना चाहिए ।
१०३. रागात्मा के तप-संयम निम्न कोटि के होते हैं, वीतराग के तप-संयम
उत्कृष्टतम होते हैं।
१०४. यतनाशील साधक का कर्मबंध अल्प, अल्पतर होता जाता है, और निर्जरा
तीव, तीव्रतर । अतः वह शीघ्र मोक्ष प्राप्त कर लेता है।
१. वड्ढ़कीरयण-णिम्मियं चक्किणो सीयघरं भवति । वासासु णिवाय-पवातं, सीयकाले सोम्हं, गिम्हे सीयलं."सव्वरिउक्खमं भवति ।
-निशीथचूर्णि।
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