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दशवकालिक की सूक्तियां
सत्तासी
२०. किसी के यहाँ अपना अभीष्ट काम न बन पाए, तो बिना कुछ बोले
(झगड़ा किए) शांत भाव से लौट आना चाहिए। २१. अयोग्य वस्तु, कैसी भी क्यों न हो, स्वीकार नहीं करना चाहिए ।
२२. व्यक्ति के अन्तर्मन को परखना चाहिए।
२३. सरस या नीरस-जैसा भी थाहार मिले, साधक उसे 'मधु-घृत' की तरह
प्रसन्नतापूर्वक खाए। २४. समम पर प्राप्त उचित वस्तु की नवहेलना न कीजिए।
२५. मुधादायी-निष्कामभाव से दान देने वाला, और मुधाजीवी-निस्पृह
होकर साधनामय जीवन जीने वाला-दोनों ही सद्गति प्राप्त
करते हैं। २६. जिस काल (समय) में गो कार्य करने का हो, उस काल में यही कार्य
करना चाहिए।
२७. भिक्षु को यदि कभी मर्यादानुकूल शुद्ध भिक्षा न मिले, तो खेद न करे,
अपितु यह मानकर अलाभ परीष को सहन करे कि अच्छा हुआ, आज
सहज ही तप का अवसर मिल गया । २८. आत्मविद् साधक अदीन भाव से जीवन यात्रा करता रहे। किसी भी
स्थिति में मन में खिन्नता न आने दे। २९. जो साधक पूजा-प्रतिष्ठा के फेर में पड़ा है, यश का भूखा है, मान
सम्मान के पीछे दौड़ता है-वह उनके लिए अनेक प्रकार के दंभ रचता हुआ अत्यधिक पाप कर्म करता है।
३०. भात्मविद् साधक अणुमान भी माया-मृषा (दंभ और मसत्य) का सेवन
३१. सब शाणियों के प्रति स्वयं को पंवत रखना-यही अहिंसा का पूर्ण
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