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आचारांग की सूक्तियाँ
पन्द्रह
५९. कामभोगों में गृद्ध = आसक्त रहने वाले व्यक्ति कर्मों का बन्धन करते हैं।
६०. जो संसार के दुःखों का ठीक तरह दर्शन कर लेता है वह कभी पापकर्म
नहीं करता है।
६१. सत्य में धृति, कर, सत्य में स्थिर हो।
६२. यह मनुष्य अनेकचित्त है, अर्थात् अनेकानेक कामनाओं के कारण मनुष्य का मन बिखरा हुआ रहता है।
वह अपनी कामनाओं की पूर्ति क्या करना चाहता है, एक तरह से छलनी को जल से भरना चाहता है। ६३. (साधक अपनी दृष्टि ऊँची रखे, क्षुद्र भोगों की ओर निम्न दृष्टि न रखे)
उच्च दृष्टिवाला साधक ही पाप कर्मों से दूर रहता है। ६४. अपने समान ही बाहर में दूसरों को भी देख ।
६५. महान हों या क्षुद्र हों, अच्छे हों या बुरे हों, सभी विषयों से साधक को
विरक्त रहना चाहिए।
६६. ज्ञानी के लिए क्या दुःख, क्या सुख ? कुछ भी नहीं।
६७. मानव ! तू स्वयं ही अपना मित्र है। तू बाहर में क्यों किसी मित्र
(सहायक) की खोज कर रहा है।
६८. मानव ! अपने आपको ही निग्रह कर । स्वयं के निग्रह से ही तू दुःख से
मुक्त हो सकता है।
६९. हे मानव, एक मात्र सत्य को ही अच्छी तरह जान ले, परख ले।
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