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________________ सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ ६८. सुव्रती साधक कम खाये, कम पीये, और कम बोले । ६९. ध्यानयोग का अवलम्बन लेकर देहभाव का सर्वतोभावेन विसर्जन करना चाहिए | ७०. तितिक्षा को परम धर्म समझकर आचरण करो । ७१. जो परिग्रह (संग्रह वृत्ति) में व्यस्त हैं, वे संसार में अपने प्रति वैर ही बढ़ाते हैं । ७२. यथावसर संचित धन को तो दूसरे उड़ा लेते हैं और संग्रही को अपने पापकर्मों का दुष्फल भोगना पड़ता है । ७३. जो कुछ बोले- पहले विचार कर बोले । ७४. किसी की कोई गोपनीय जैसी बात हो, तो नहीं कहना चाहिए । ७५. 'तू-तू ' —— जैसे अभद्र शब्द कभी नहीं बोलने चाहिए । इकतालीस ७६. मूनी को मर्यादा से अधिक नहीं हँसना चाहिए । साधक को कोई दुर्वचन कहे, तो भी वह उस पर गरम न हो, क्रोध न करे । ७८. साधक जो भी कष्ट हो, प्रसन्न मन से सहन करे, कोलाहल न करे । ७९. प्राप्त होने पर भी कामभोगों की अभ्यर्थना ( स्वागत ) न करे । समग्र विश्व को जो समभाव से देखता है, वह न किसी का प्रिय करता है और न किसी का अप्रिय । अर्थात समदर्शी अपने पराये की भेदबुद्धि से परे होता है । ७७ ८० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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