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उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ
एक सौ उन्नीस
१०८. तप का आचरण तलवार की धार पर चलने के समान दुष्कर है।
१०९. जो व्यक्ति संसार की पिपासा-तृष्णा से रहित है, उसके लिए कुछ भी
कठिन नहीं है । ११०. आत्म साधक ममत्व के बंधन को तोड़ फेंके-जैसे कि सर्प शरीर पर
आई हुई केंचुली को उतार फेंकता है । १११. जो लाभ-अलाभ, सुख-दुःख, जीवन-मरण, निन्दा-प्रशंसा और मान
अपमान में समभाव रखता है, वही वस्तुतः मुनि है ।
११२. तू स्वयं अनाथ है, तो फिर दूसरे का नाथ कैसे हो सकता है ?
११३. मेरी (पाप में प्रवृत्त) आत्मा ही वैतरणी नदी और कूट शाल्मली वृक्ष
के समान कष्टदायी है और मेरी आत्मा ही (सत्कर्म में प्रवृत्त) कामधेनु और नंदन वन के समान सुखदायी भी है।
११४. आत्मा ही सुख-दुःख का कर्ता और भोक्ता है। सदाचार में प्रवृत्त आत्मा
मित्र के तुल्य है और दुराचार में प्रवृत्त होने पर वही शत्रु है ।
११५. वैडूर्य रत्न के समान चमकने वाले कांच के टुकड़े का, जानकार (जौहरी)
के समक्ष कुछ भी मूल्य नहीं रहता।
११६. गर्दन काटने वाला शत्रु भी उतनी हानि नहीं करता, जितनी हानि
. दुराचार में प्रवृत्त अपना ही स्वयं का आत्मा कर सकता है ।
११७. अपनी शक्ति को ठीक तरह पहचान कर यथावसर यथोचित कर्तव्य का
__ पालन करते हुए राष्ट्र (विश्व) में विचरण करिए ।
११८. सिंह के समान निर्भीक रहिए, केवल शब्दों (आवाजों) से न डरिए ।
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