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आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ
एक सौ पचपन
१००. बालक जो भी सचित या अनुचित कार्य कर लेता है, वह सब सरल भाव से कह देता है । इसी प्रकार साधक को भी गुरुजनों के समक्ष दंभ और अभिमान से रहित होकर यथार्थ आत्मालोचन करना चाहिए ।
१०१. जो साधक गुरुजनों के समस्त मन के शल्यों (कांटों) को निकाल कर आलोचना, निंदा ( आत्मनिंदा) करता है, उसकी आत्मा उसी प्रकार हलकी हो जाती है, जैसे शिर का भार उतार देने पर भारवाहक ।
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