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सूक्ति कण
दो सौ तेंतीस
२९. जो मन से सु-मन (निमल मन वाला) है, संकल्प से भी कभी पापोन्मुख
नहीं होता, स्वजन तथा परजन में, मान एवं अपमान में सदा सम रहता है, वह 'समण' होता है।
३०. श्रमणत्व का सार है---उपशम !
३१. जो कषाय को शान्त करता है, वही आराधक है। जो कषाय को शांत
नहीं करता, उसकी आराधना नहीं होती।
३२. श्रमण निर्ग्रन्थों का बल 'आगम' (शास्त्र) ही है।
३३. रुग्ण साथी की सेवा करता हुआ श्रमण महान् निर्जरा और महान् पर्य
वसान (परिनिर्वाण) करता है ।
३४. चार तरह के पुरुष हैं--
कुछ व्यक्ति वेष छोड़ देते हैं, किंतु धर्म नहीं छोड़ते । कुछ धर्म छोड़ देते हैं, किंतु वेष नहीं छोड़ते । कुछ वेष भी छोड़ देते हैं और धर्म भी। और कुछ ऐसे होते हैं जो न वेष छोड़ते हैं, और न धर्म !
३५. चित्तवृत्ति निर्मल होने पर ही ध्यान की सही स्थिति प्राप्त होती है।
जो बिना किसी विमनस्कता के निर्मल मन से धर्म में स्थित है, वह निर्वाण को प्राप्त करता है।
३६. निर्मल चित्त वाला साधक संसार में पुनः जन्म नहीं लेता।
३७. जो साधक अल्पाहारी है, इन्द्रियों का विजेता है, सभी प्राणियों के प्रति
रक्षा की भावना रखता है, उसके दर्शन के लिए देव भी आतुर रहते हैं। ३८. जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचिए, वह हरा भरा
नहीं होता । मोह के क्षीण होने पर कर्म भी फिर हरे भरे नहीं होते।
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