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________________ सूक्ति कण दो सौ पैंतालीस ९२. वही सद् गृहस्थ श्रावक कहलाने का अधिकारी है, जो किसी की बहुमूल्य वस्तु को अल्पमूल्य देकर नहीं ले, किसी की भूली हुई वस्तु को ग्रहण नहीं करे, और थोड़ा लाभ (मुनाफा) प्राप्त करके ही संतुष्ट रहे । ९३. वस्तु का अपना स्वभाव ही उसका धर्म है। ९४. मन के विकल्पों को रोक देने पर आत्मा, परमात्मा बन जाता है। ९५. मन रूप राजा के मर जाने पर इन्द्रियां रूप सेना तो स्वयं ही मर जाती है। (अतः मन को मारने-वश में करने का प्रयत्न करना चाहिए।) ९६. चित्त को (विषयों से) शून्य कर देने पर उसमें आत्मा का प्रकाश झलक उठता है। ९७. दुर्जन की संगति करने से सज्जन का भी महत्त्व गिर जाता है, जैसे कि मूल्यवान माला मुर्दे पर डाल देने से निकम्मी हो जाती है। ९८. अपने तेज का बखान नहीं करते हुए भी सूर्य का तेज स्वत: जगविश्रुत ९९. श्रेष्ठ पुरुष अपने गुणों को वाणी से नहीं, किंतु सच्चरित्र से ही प्रकट करते हैं। १००. जो दूसरों की निंदा करके अपने को गुणवान प्रस्थापित करना चाहता है, वह व्यक्ति दूसरों को कड़वी औषध पिला कर स्वयं रोगरहित होने की इच्छा करता है। १०१. सत्पुरुष दूसरे के दोष देख कर स्वयं में लज्जा का अनुभव करता है। (वह कभी उन्हें अपने मुंह से नहीं कह पाता)। १०२. सम्यक्दर्शन की प्राप्ति तीन लोक के ऐश्वर्य से भी श्रेष्ठ है । १०३. मन रूपी उन्मत्त हाथी को वश में करने के लिए ज्ञान अंकुश के समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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