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उत्तराध्ययन की सूक्तियां
एक सौ उनतीस
१६२. जिस प्रकार बलाका ( बगुली ) अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा
बलाका से; इसी प्रकार मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है और तृष्णा मोह से।
१६३. राग और द्वेष, ये दो कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है। कर्म
__ ही जन्म मरण का मूल है और जन्म-मरण ही वस्तुतः दुःख है।
१६४. जिसको मोह नहीं होता उसका दुःख नष्ट हो जाता है। जिसको तृष्णा
नहीं होती, उसका मोह नष्ट हो जाता है। जिसको लोभ नहीं होता, उसकी तृष्णा नष्ट हो जाती है और जो अकिंचन (अपरिग्रही) है, उसका लोभ नष्ट हो जाता है।
१६५. ब्रह्मचारी को घी-दूध आदि रसों का अधिक सेवन नहीं करना चाहिए,
क्योंकि रस प्राय: उद्दीपक होते हैं। उद्दीप्त पुरुष के निकट कामभावनाएँ वैसे ही चली आती हैं, जैसे स्वादिष्ट फल वाले वृक्ष के पास पक्षी चले आते हैं।
१६६. देवताओं सहित समग्र संसार में जो भी दुःख है, वे सब कामासक्ति के
कारण ही हैं।
१६७. जब आत्मा लोभ से कलुषित होता है, तो वह चोरी करने को प्रवृत्त होता
१६८. मनोज्ञ शब्द आदि राग के हेतु होते हैं और अमनोज्ञ द्वेष के हेतु ।
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