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________________ भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ ८७. मोह का उपशम होने पर ही धृति होती है । ८८. समय पर सहजतया जाग आ जाना 'निद्रा' है, कठिनाई से जो जाग आए वह 'निद्रा - निद्रा' है । ८९. साधक ज्ञान का प्रकाश लिए जीवन यात्रा करता है । ९०. श्रमणों की सभी चेष्टा अर्थात् क्रियाएँ संयम के हेतु होती हैं । ९१. राग-द्वेष पूर्वक की जानेवाली प्रतिसेवना ( निषिद्ध आचरण) दर्पिका है और राग-द्वेष से रहित प्रतिसेवना ( अपवाद काल में परिस्थितिवश किया जाने वाला निषिद्ध आचरण) कल्पिका है । कल्पिका में संयम की आराधना है और दपिका में विराधना । ९२. जिस प्रकार विषम गर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति लता आदि को पकड़ कर ऊपर आता है, उसी प्रकार संसारगर्त में पड़ा हुआ व्यक्ति ज्ञान आदि का अवलंबन लेकर मोक्ष रूपी किनारे पर आ जाता है । ९३. वह शोचनीय नहीं है, जो अपनी साधना में प्राप्त कर गया है। शोचनीय तो वह है, जीवित घूमता फिरता है । एक सौ पिच्चानवे ९४. स्नेह से रहित वचन 'परुष - कठोर वचन' कहलाता है । 1 ९५. कृतमुख ( विद्वान ) दृढ रहता हुआ मृत्यु को जो संयम से भ्रष्ट होकर Jain Education International साथ विवाद नहीं करना चाहिए । ९६. शिक्षित अश्व की क्रीडाएँ बिचारा गर्दभ कैसे कर सकता है ? For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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