________________
भाष्यसाहित्य की सूक्तियाँ
एक सौ पिच्यासी
३८. एक अविरत (असंयमी) जानकर हिंसा करता है और दूसरा अनजान में ।
शास्त्र में इन दोनों के हिंसाजन्य कर्मबंध में महान् अन्तर बताया है। अर्थात् तीव्र भावों के कारण जानने वाले को अपेक्षाकृत कर्मबंध तीव्र होता है।
३९. अप्रमत्त संयमी (जागृत साधक) चाहे जान में (अपवाद स्थिति में) हिंसा
करे या अनजान में, उसे अन्तरंग शुद्धि के अनुसार निर्जरा ही होगी, बन्ध नहीं।
४०. देह का बल ही वीर्य है और बल के अनुसार ही आत्मा में शुभाशुभ
भावों का तीव्र या मंद परिणमन होता है । ४१. संयम के हेतु की जाने वाली प्रवृत्तियाँ निर्दोष होती हैं, जैसे कि वैद्य के
द्वारा किया जाने वाला व्रणच्छेद (फोड़े का ऑपरेशन) आरोग्य के लिए होने से निर्दोष होता है।
४२. नारी का आभूषण शील और लज्जा है। बाह्य आभूषण उसकी शोभा
नहीं बढ़ा सकते ।
४३. संस्कृत, प्राकृत आदि के रूप में सुसंस्कृत भाषा भी यदि असभ्यतापूर्वक
बोली जाती है, तो वह भी जुगुप्सित हो जाती है। ४४. बालक, वृद्ध और अपंग व्यक्ति, विशेष अनुकंपा (दया) के योग्य होते हैं ।
४५. जिस घड़े की पेंदी में छेद हो गया हो, उसमें जल आदि कैसे टिक सकते
४६. जिस प्रकार तपस्वी तप के द्वारा कर्मों को धुन डालता है, वैसे ही तप का
अनुमोदन करने वाला भी।
१. यो जानन् जीवहिंसां करोति स तीव्रानुभावं बहुतरं पाप कर्मोपचिनोति, इतरस्तु मन्दतरविपाकमल्पतरं ...।
--इति भाष्यवृत्तिकारः क्षेमकीर्तिः
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org