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________________ आचार्य भद्रबाहु की सूक्तियाँ एक सौ पैंतालीस ५६. चंदन का भार उठाने वाला गधा सिर्फ भार ढोने वाला है। उसे चंदन की सुगंध का कोई पता नहीं चलता। इसी प्रकार चरित्र-हीन ज्ञानी सिर्फ ज्ञान का भार ढोता है, उसे सद्गति प्राप्त नहीं होती। ५७. आचार-हीन ज्ञान नष्ट हो जाता है और ज्ञान-हीन आचार । जैसे वन में अग्नि लगने पर पंगु उसे देखता हुआ और अंधा दौड़ता हुआ भी आग से बच नहीं पाता, जलकर नष्ट हो जाता है। संयोगसिद्धि (ज्ञान-क्रिया का संयोग) ही फलदायी (मोक्ष रूप फल देने वाला) होता है । एक पहिए से कभी रथ नहीं चलता। जैसे अंध और पंगु मिलकर वन के दावानल से पार होकर नगर में सुरक्षित पहुँच गए, इसी प्रकार साधक भी ज्ञान और क्रिया के समन्वय से ही मुक्ति-लाभ करता है। ज्ञान प्रकाश करने वाला है, तप विशुद्धि एवं संयम पापों का निरोध करता है । तीनों के समयोग से ही मोक्ष होता है- यही जिनशासन का कथन है। ६०. क्रोधादि कषायों को क्षय किए बिना केवलज्ञान ( पूर्णज्ञान ) की प्राप्ति नहीं होती। ६१. ऋण, व्रण (घाव), अग्नि और कषाय-यदि इनका थोड़ा-सा अंश भी है, तो उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। ये अल्प भी समय पर बहुत (विस्तृत) हो जाते हैं। ६२. तीर्थकर देव प्रथम तीर्थ (उपस्थित संघ) को प्रणाम करके फिर जन कल्याण के लिए लोकभाषा में उपदेश करते हैं। ६३. शास्त्र का प्रवचन (व्याख्यान) करने वाला बड़ा है, दीक्षा-पर्याय से कोई बड़ा नहीं होता। अतः पर्यायज्येष्ठ भी अपने कनिष्ठ शास्त्र के व्याख्याता को नमस्कार करें। ६४. सामायिक की साधना करता हुआ श्रावक भी श्रमण के तुल्य हो जाता है। ...१० For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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