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सूत्रकृतांग की सूक्तियाँ
उनतालीस
५६. सत्य वचनों में भी अनवद्य सत्य (हिंसा-रहित सत्य वचन) श्रेष्ठ है।
५७. प्रत्येक प्राणी अपने ही कृत कर्मों से कष्ट पाता है।
५८. यदि जलस्पर्श (जलस्नान) से ही सिद्धि प्राप्त होती हो, तो पानी में
रहने वाले अनेक जीव कभी के मोक्ष प्राप्त कर लेते !
५९. तप के द्वारा पूजा-प्रतिष्ठा की अभिलाषा नहीं करनी चाहिए।
६०. दुःख आ जाने पर भी मन पर संयम रखना चाहिए ।
प्रमाद को कर्म-आश्रव और अप्रमाद को अकर्म-संवर कहा है।
६२. कुछ लोग लोक और परलोक-दोनों ही दृष्टियों से असंयत होते हैं ।
६३. पापानुष्ठान अन्ततः दुःख ही देते हैं।
६४. वैरवृत्ति वाला व्यक्ति जब देखो तब वैर ही करता रहता है । वह एक के
बाद एक किए जाने वाले वैर को बढाते रहने में ही रस लेता है। ६५. कछुआ जिस प्रकार अपने अंगों को अन्दर में समेट कर खतरे से बाहर हो
जाता है, वैसे ही साधक भी अध्यात्म योग के द्वारा अन्तर्मुख होकर अपने को पाप वृत्तियों से सुरक्षित रखे ।
६६. साधक सुख-सुविधा की भावना से अनपेक्ष रहकर, उपशांत एवं दम्भरहित
होकर विचरे। ६७. मन में कपट रख कर झूठ न बोलो।
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