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________________ आचारांग की सूक्तियाँ इक्कीस ८४. आत्मा को शरीर से पृथक् जानकर भोगलिप्त शरीर को धुन डालो। ८५. अपने को कृश करो, तन-मन को हल्का करो। . अपने को जीर्ण करो, भोगवृत्ति को जर्जर करो। ८६. जिस तरह अग्नि पुराने सूखे काठ को शीघ्र ही भस्म कर डालती है, उसी तरह सतत अप्रमत्त रहने वाला आत्मसमाहित निःस्पृह साधक कर्मों को कुछ ही क्षणों में क्षीण कर देता है। ८७. जिसको न कुछ पहले है और न कुछ पीछे है, उसको बीच में कहाँ से होगा? (जिस साधक को न पूर्वभुक्त भोगों का स्मरण होता है, और न भविष्य के भोगों की ही कोई कामना होती है, उसको वर्तमान में भोगासक्ति कैसे हो सकती है ?) ८८. जो आरंभ ( = हिंसा) से उपरत है, वही प्रज्ञानवान् बुद्ध है । ८९. जो कुशल हैं, वे काम भोगों का सेवन नहीं करते। ९०. जिसकी कामनाएँ तीव्र होती हैं, वह मृत्यु से ग्रस्त होता है और जो मृत्यु से ग्रस्त होता है, वह शाश्वत सुख से दूर रहता है। परन्तु जो निष्काम होता है, वह न मृत्यु से ग्रस्त होता है और न शाश्वत सुख से दूर। ९१. जो कर्तव्य पथ पर उठ खडा हुआ है, उसे फिर प्रमाद नहीं करना चाहिए। ९२. संसार में मानव भिन्न-भिन्न विचार वाले हैं। ९३. वस्तुतः बन्धन और मोक्ष अन्दर में ही है। ९४. अपनी योग्य शक्ति को कभी छुपाना नहीं चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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