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चूणिसाहित्य की सूक्तियां
दो सौ उन्नीस
४७. राग और द्वेष से मुक्त होना ही परिनिर्वाण है ।
४८. जो अपने को और दूसरों को शान्ति प्रदान करता है, वह ज्ञान-दर्शन
चारित्र रूप भावतीर्थ है ।
४९. बाहर में शरीर को लेश्या (वर्ण आदि) अशुद्ध होने पर भी अन्दर में
आत्मा की लेश्या (विचार) शुद्ध हो सकती है।
५०. अज्ञानी साधकों का चित्तशुद्धि के अभाव में किया जाने वाला केवल
जननेंद्रिय-निग्रह द्रव्य ब्रह्मचर्य है, क्योंकि वह मोक्षाधिकार से शून्य है। ५१. तीर्थकर देश और काल के अनुरूप धर्म का उपदेश करते हैं।
५२. परमार्थ दृष्टि से ज्ञान, दर्शन और चारित्र ही मोक्ष का मार्ग है, वेष आदि
नहीं।
५३. जो अपने को और दूसरों को साधना में स्थिर करता है-वह स्थविर है।
५४. मुक्त हुए बिना शान्ति प्राप्त नहीं होती।
५५. जो अपने या दूसरे के संकट काल में भी अपने स्नेही का साथ नहीं छोड़ता
है, वह बंधु है।
५६. अहिंसा, सत्य आदि धर्म सब प्राणियों का पिता है, क्यों कि वही सबका
रक्षक है। ५७. जिससे चिंतन किया जाता है, वह चित्त है।
५८. विशुद्ध भाव अर्थात् पवित्र विचार ही जीवन की सुगंध है ।
५९. विविध कुल एवं जातियों में उत्पन्न हुए साधु पुरुष पृथ्वी पर के कल्प
वृक्ष हैं।
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