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________________ उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ एक सौ पांच ३२. ऋजु अर्थात सरल आत्मा की विशुद्धि होती है और विशुद्ध आत्मा में ही धर्म ठहरता है । ३३. जीवन का धागा टूट जाने पर पुन: जुड़ नहीं सकता, वह असंस्कृत है, इसलिए प्रमाद मत करो । ३४. जो व्यक्ति वैर की परम्परा को लम्बा किए रहते हैं, वे नरक को प्राप्त होते हैं । ३५. कृत कर्मों का फल भोगे बिना छुटकारा नहीं है । ३६. पापात्मा अपने ही कर्मों से पीडित होता है । ३७. प्रमत्त मनुष्य धन के द्वारा अपनी रक्षा नहीं कर सकता - न इस लोक में और न परलोक में ! ३८. समय बड़ा भयकर है और इधर प्रतिक्षण जीर्ण-शीर्ण होता हुआ शरीर है | अतः साधक को सदा अप्रमत्त होकर भारंडपक्षी ( सतत सतर्क रहने वाला एक पौराणिक पक्षी) की तरह विचरण करना चाहिए । ३९. प्रबुद्ध साधक सोये हुओं ( प्रमत्त मनुष्यों) के बीच भी सदा जागृतअप्रमत्त रहे । ४०. इच्छाओं को रोकने से ही मोक्ष प्राप्त होता है । ४१. जब तक जीवन है, ( शरीर-भेद न हो) सद्गुणों की आराधना करते रहना चाहिए । ४२. चीवर, मृगचर्म, नग्नता, जटाएँ, कन्था और शिरोमुंडन - यह सभी उपक्रम आचारहीन साधक की ( दुर्गति से ) रक्षा नहीं कर सकते । ४३. भिक्षु हो चाहे गृहस्थ हो, जो सुव्रती ( सदाचारी) है, वह दिव्यगति को प्राप्त होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001258
Book TitleSukti Triveni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmarmuni
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year1988
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, Canon, & Agam
File Size3 MB
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