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उत्तराध्ययन की सूक्तियाँ
एक सौ पंद्रह
८५. धर्म की धुरा को खींचने के लिए धन की क्या आवश्यकता है ? वहाँ तो
सदाचार की जरूरत है। ८६. आत्मा आदि अमूर्त तत्त्व इंद्रिय ग्राह्य नहीं होते और जो अमूर्त होते हैं
वे अविनाशी-नित्य भी होते हैं ।
८७. अंदर के विकार ही वस्तुतः बंधन के हेतु हैं ।
८८. जरा से घिरा हुआ यह संसार मृत्यु से पीडित हो रहा है ।
८९. जो रात्रियाँ बीत जाती हैं, वे पुनः लौट कर नहीं आतीं; किन्तु, जो धर्म
का आचरण करता रहता है, उसकी रात्रियाँ सफल हो जाती हैं ।
९०. जिसकी मृत्यु के साथ मित्रता हो, जो उससे कहीं भाग कर बच सकता
हो, अथवा जो यह जानता हो कि मैं कभी मरूँगा ही नहीं, वही कल पर भरोसा कर सकता है।
९१. धर्म-श्रद्धा हमें राग (आसक्ति) से मुक्त कर सकती है।
९२. वृक्ष की सुन्दरता शाखाओं से है । शाखाएँ कट जाने पर वही वृक्ष-ठूठ
(स्थाणु) कहलाता है।
९३. बूढ़ा हंस प्रतिस्रोत (जलप्रवाह के सम्मुख) में तैरने से डूब जाता है।
(असमर्थ व्यक्ति समर्थ का प्रतिरोध नहीं कर सकता)।
९४. यदि यह जगत् और जगत का समस्त धन भी तुम्हें दे दिया जाए तब भी
वह (जरा मृत्यु आदि से) तुम्हारी रक्षा करने में अपर्याप्त-असमर्थ
९५. राजन् ! एक धर्म ही रक्षा करने वाला है, उसके सिवा विश्व में कोई भी
मनुष्य का त्राता नहीं है ।
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