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श्रमण ŚRAMANA
(जुलाई-सितम्बर २००३)
धापा
पाश्वनाथ
वाराणसी
सहवामगवं
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚWANĀTHA VIDYĀPĪTHA, VARANASI
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श्रमण
ŚRAMAŅA
(जुलाई-सितम्बर २००३)
महाभगवं
पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी PĀRŚWANĀTHA VIDYAPITHA, VARANASI
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श्रमण
(पार्श्वनाथ विद्यापीठ की त्रैमासिक शोध-पत्रिका)
वर्ष ५४
अंक ७-९
जुलाई-सितम्बर २००३
प्रधान सम्पादक प्रोफेसर सागरमल जैन
सम्पादक डॉ० शिवप्रसाद
प्रकाशक पार्श्वनाथ विद्यापीठ, आई.टी.आई. मार्ग, करौंदी
पो.ऑ. - बी.एच.यू., वाराणसी-२२१००५ (उ.प्र.) parshwanathvidyapeeth@rediffmail.com
दूरभाष : ०५४२-२५७५५२१
ISSN-0972-1002
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व्यक्तियों के लिए : रु. ५००.०० नोट : सदस्यता शुल्क का चेक या ड्राफ्ट केवल पार्श्वनाथ विद्यापीठ के नाम से ही भेजें।
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सम्पादकीय
श्रमण जुलाई-सितम्बर २००३ का अंक सम्माननीय पाठकों के समक्ष उपस्थित है। अपरिहार्य कारणों से हम इसे समय से प्रस्तुत न कर सके, इसके लिये हम क्षमाप्रार्थी हैं। श्रमण का अक्टूबर-दिसम्बर अंक भी कम्पोज हो रहा है और हमारा पूर्ण प्रयास है कि उक्त अंक भी सुधी पाठकों को अतिशीघ्र प्रस्तुत हो सके। इस अंक में भी जैन इतिहास, दर्शन, साहित्य एवं कलापक्ष से सम्बद्ध ११ मौलिक आलेख प्रकाशित हैं। हमारा यही प्रयास रहता है कि उक्त विषयों के आलेखों को हम सुसम्पादित कर उन्हें शुद्धरूप में प्रकाशित करें। अपने इस प्रयास में हम कहां तक सफल हो सके हैं यह निर्णय सुधी पाठकगण स्वयं करें और अपनी निष्पक्ष प्रतिक्रिया से हमें अवश्य सूचित करने की कृपा करें। हम अपने ऐसे पाठकों के विशेष अनुगृहीत होंगे जो हमारी त्रुटिओं से हमें नि:संकोच अवगत कराने का कष्ट करेंगे। जैन धर्म-दर्शन-साहित्य-इतिहास एवं कला से सम्बद्ध मौलिक एवं अप्रकाशित आलेख हिन्दी, अंग्रेजी एवं गुजराती भाषाओं में प्रकाशनार्थ आमंत्रित हैं।
१६-१२-२००३
सम्पादक
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श्रमण
जुलाई-सितम्बर २००३ सम्पादकीय विषयसूची
हिन्दी खण्ड १. जैन धर्म की ऐतिहासिक विकास यात्रा - प्रो० सागरमल जैन
१-५३ २. जैनयोग : एक दार्शनिक अनुशीलन - अनिल कुमार सोनकर
५४-६१ ३. जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वस्तु-स्वातन्त्र्य एवं द्रव्य की अवधारणा - कु० अल्पना जैन
६२-७१ ४. भगवती आराधना में समाधिमरण के तत्त्व - डॉ० सुधीर कुमार राय
७२-८० ५. वज्जालग्गं का काव्यात्मक मूल्य ___ - रजनीश शुक्ल
८१-९३ पूर्वमध्यकाल में स्त्रियों की दशा (त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित
के संदर्भ में) - डॉ० उमेश चन्द्र श्रीवास्तव ९४-९७ ७. भारतीय कला को बुद्ध का अवदान - प्रो० अंगने लाल
९८-१०४ ८. एलोरा की महावीर मूर्तियां
- डॉ० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव १०५-११० ९. खरतरगच्छ - बेगड़ शाखा का इतिहास - शिवप्रसाद
१११-१२३ ENGLISH SECTION 10. Myth of Lord Mahāvira's Embryo-Transfer in Jaina-Scriptures - Mangilal Bhutodia
124-132 11. Religious Aspect of Non-violence - Dr. B.N. Sinha
133-156 १२. विद्यापीठ के प्रांगण में
१५७ १३. जैन जगत्
१५८-१६० १४. साहित्य सत्कार
१६१-१६८
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प्रथम अध्याय
जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
(आदिकाल से लेकर आज तक)
जैनधर्म एक जीवित धर्म है और कोई भी जीवित धर्म देश और कालगत परिवर्तनों से अछूता नहीं रहता है। जब भी हम किसी धर्म के इतिहास की बात करते हैं तो हमें यह समझ लेना चाहिए कि हम किसी स्थिर धर्म की बात नहीं करते, क्योंकि किसी स्थिर धर्म का इतिहास ही नहीं होता है। इतिहास तो उसी का होता है जो गतिशील है, परिवर्तनशील है। जो लोग यह मानते हैं कि जैनधर्म अपने आदिकाल से आज तक यथास्थिति में रहा है, वे बहुत ही भ्रान्ति में हैं। जैनधर्म के इतिहास की इस चर्चा के प्रसंग में मैं उन परम्पराओं की और उन परिस्थितियों की चर्चा भी करना चाहँगा, जिसमें अपने सुदूर अतीत से लेकर वर्तमान तक जैनधर्म ने अपनी करवटें बदली हैं और जिनमें उसका उद्भव और विकास हुआ है।
यद्यपि जनसंख्या की दृष्टि से आज विश्व में प्रति एक हजार व्यक्तियों में मात्र छह व्यक्ति जैन हैं, फिर भी विश्व के धर्मों के इतिहास में जैनधर्म का अपना एक विशिष्ट स्थान है क्योंकि वैचारिक उदारता, दार्शनिक गम्भीरता, लोकमंगल की उत्कृष्ट भावना, विपुल साहित्य और उत्कृष्ट शिल्प की दृष्टि से विश्व के धर्मों के इतिहास में इसका अवदान महत्त्वपूर्ण है । यहाँ हम इस धर्म परम्परा को इतिहास के आइने में देखने का प्रयास करेंगे। प्राचीन श्रमण या आर्हत् परम्परा
विश्व के धर्मों की मुख्यत: सेमेटिक धर्म और आर्य धर्म, ऐसी दो शाखाएँ हैं। सेमेटिक धर्मों में यहूदी, ईसाई और इस्लाम आते हैं जबकि आर्य धर्मों में पारसी, हिन्दू (वैदिक), बौद्ध और जैनधर्म की गणना की जाती है । इनके अतिरिक्त सुदूर पूर्व के देश जापान और चीन में विकसित कुछ धर्म कन्फूशियस एवं शिन्तो के नाम से जाने जाते हैं।
__ आर्य धर्मों के इस वर्ग में जहाँ हिन्दूधर्म के वैदिक स्वरूप को प्रवृत्तिमार्गी माना जाता है वहाँ जैनधर्म और बौद्धधर्म को संन्यासमार्गी या निवृत्तिपरक कहा जाता है। यह निवृत्तिपरक संन्यासमार्गी परम्परा प्राचीन काल में श्रमण परम्परा, आर्हत् परम्परा या व्रात्य परम्परा के नाम से जानी जाती थी। जैन और बौद्ध दोनों ही धर्म इसी आहेत, व्रात्य या श्रमण परम्परा के धर्म हैं । श्रमण परम्परा की विशेषता यह है कि वह सांसारिक एवं ऐहिक जीवन की दु:खमयता को उजागर कर संन्यास एवं वैराग्य के माध्यम से निर्वाण या मोक्ष की प्राप्ति को जीवन का चरम लक्ष्य निर्धारित करती है । इस निवृत्तिमार्गी श्रमण परम्परा ने तप एवं योग की अपनी आध्यात्मिक साधना एवं शीलों या
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
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व्रतों के रूप में नैतिक मूल्यों की संस्थापना की दृष्टि से भारतीय धर्मों के इतिहास में अपना विशिष्ट अवदान प्रदान किया है। इस प्राचीन श्रमण परम्परा में न केवल जैन और बौद्ध धारायें ही सम्मिलित हैं, अपितु औपनिषदिक और सांख्य-योग की धारायें भी सम्मिलित हैं जो आज बृहद् हिन्दूधर्म का ही एक अंग बन चुकी हैं। इनके अतिरिक्त आजीवक आदि अन्य कुछ धाराएँ भी थीं जो आज विलुप्त हो चुकी हैं। आज श्रमण परम्परा के जीवन्त धर्मों में बौद्धधर्म और जैनधर्म अपना अस्तित्व बनाये हुए है। यद्यपि बौद्धधर्म भारत में जन्मा और विकसित हुआ और यहीं से उसने सुदूरपूर्व में अपने पैर जमाये, फिर भी भारत में वह एक हजार वर्ष तक विलुप्त ही रहा, किन्तु यह शुभ संकेत है कि श्रमणधारा का यह धर्म भारत में पुनः स्थापित हो रहा है। जहाँ तक आर्हत् या श्रमणधारा के जैनधर्म का प्रश्न है, यह भारतभूमि में अतिप्राचीन काल से आज तक अपना अस्तित्व बनाये हुए है। अग्रिम पृष्ठों में हम इसी के इतिहास की चर्चा करेंगे।
भारतीय इतिहास के आदिकाल से ही हमें श्रमणधारा के अस्तित्व के संकेत उपलब्ध होते हैं। फिर चाहे वह मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त पुरातात्त्विक सामग्री हो या ऋग्वेद जैसा प्राचीनतम साहित्यिक ग्रन्थ हो । एक ओर मोहनजोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त अनेक सीलों पर हमें ध्यानस्थ योगियों के अंकन प्राप्त होते हैं तो दूसरी ओर ऋग्वेद में अर्हत्, व्रात्य, वातरसना मुनि आदि के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। ये सब प्राचीन काल में श्रमण, व्रात्य या आर्हत् परम्परा के अस्तित्व के प्रमाण हैं ।
यहाँ यह ज्ञातव्य है कि आज प्रचलित जैनधर्म 'शब्द' का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। यह शब्द ईसा की छठी-सातवीं शती से प्रचलन में है। इसके पूर्व जैनधर्म के लिये 'निर्ग्रन्थ धर्म' या 'आर्हत् धर्म' ऐसे दो शब्द प्रचलित रहे हैं। इनमें भी 'निर्ग्रन्थ' शब्द मुख्यतः भगवान् पार्श्व और भगवान् महावीर की परम्परा का वाचक रहा है। किन्तु जहाँ तक 'आर्हत्' शब्द का सम्बन्ध है यह मूल में एक व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता था। 'आर्हत्' शब्द अर्हत् या अरहन्त के उपासकों का वाचक था और सभी श्रमण परम्पराएं चाहे वे जैन हों, बौद्ध हों या आजीवक हों, अरहन्त की उपासक रही हैं। अत वे सभी परम्पराएं आर्हत् वर्ग में ही अन्तर्भूत थीं। ऋग्वैदिक काल में आर्हत् (श्रमण) और बार्हत् (वैदिक) दोनों का अस्तित्व था और आर्हत् या व्रात्य श्रमणधारा के परिचायक थे। किन्तु कालान्तर में जब कुछ श्रमण परम्पराएं बृहद् हिन्दूधर्म का अंग बन गईं और आजीवक आदि कुछ श्रमण परम्पराएं लुप्त हो गईं तथा बौद्ध परम्परा विदेशों में अपना अस्तित्व रखते हुये भी इस भारतभूमि से नामशेष हो गई तो 'आर्हत्' शब्द भी सिमट कर मात्र जैन परम्परा का वाचक हो गया। इस प्रकार आर्हत्, व्रात्य, श्रमण आदि शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के भी वाचक रहें हैं। यही कारण है कि जैन धर्म को आर्हत् धर्म, श्रमण धर्म या निवृत्तिमार्गी धर्म भी कहा जाता है । किन्तु यहाँ हमें यह ध्यान रखना है कि आर्हत्, व्रात्य, श्रमण आदि
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
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शब्द अति प्राचीन काल से जैनधर्म के साथ अन्य निवृत्तिमार्गी धर्मों के भी वाचक रहे हैं जब कि निर्ग्रन्थ या ज्ञातपुत्रीय श्रमण जैनों के परिचायक हैं। आगे हम श्रमणधारा या निवृत्तिमार्गी धर्म, जिसका एक अंग जैनधर्म भी है, के उद्भव, विकास और उसकी विशेषताओं की चर्चा करना चाहेंगे ।
श्रमणधारा का उद्भव
मानव-अस्तित्व द्वि-आयामी एवं विरोधाभासपूर्ण है। यह स्वभावतः परस्पर विरोधी दो भिन्न केन्द्रों पर स्थित है। वह न केवल शरीर है और न केवल चेतना, अपितु दोनों की एक विलक्षण एकता है । यही कारण है कि उसे दो भिन्न स्तरों पर जीवन जीना होता है। शारीरिक स्तर पर वह वासनाओं से चालित है और यहाँ उस पर यान्त्रिक नियमों का आधिपत्य है, किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित हैं, यहाँ उसमें संकल्प-स्वातन्त्र्य है । शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु चैतसिक स्तर पर स्वतन्त्र है, मुक्त है। मनोविज्ञान की भाषा में जहाँ एक ओर वह वासनात्मक अहं (Id) से अनुशासित है, तो दूसरी ओर आदर्शात्मा (Super Ego ) से प्रभावित भी है । वासनात्मक अहं उसकी शारीरिक माँगों की अभिव्यक्ति का प्रयास है तो आदर्शात्मा उसका आध्यात्मिक स्वभाव है, उसका निज स्वरूप है, जो निर्द्वन्द्व एवं निराकुल चैतसिक समत्व की अपेक्षा करता है। उसके लिये इन दोनों में से किसी की भी पूर्ण उपेक्षा सम्भव नहीं है। उसके जीवन की सफलता इनके बीच सन्तुलन बनाने में निहित है। उसके वर्तमान अस्तित्व के ये दो छोर हैं। उसकी जीवनधारा इन दोनों का स्पर्श करते हुए इनके बीच बहती है। मानव अस्तित्व के इन दोनों पक्षों के कारण धर्म के क्षेत्र में भी दो धाराओं का उद्भव हुआ- १. वैदिकधारा और २. श्रमणधारा
श्रमणधारा के उद्भव का मनोवैज्ञानिक आधार
मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त-वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध - विवेक अपने अस्तित्व के लिये 'संयम' या 'विराग' की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है । वस्तुतः वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर । यहीं दो अलग-अलग जीवन दृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार वासना और भोग होता है तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण-परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या - दृष्टि और दूसरी को सम्यक् दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषदों में इन्हें क्रमशः प्रेय और श्रेय के मार्ग कहे गये हैं। 'कठोपनिषद्' में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उसमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है । वासना की तुष्टि के लिये भोग और भोगों के साधनों की
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
उपलब्धि के लिये कर्म अपेक्षित है। इसी भोगप्रधान जीवन-दृष्टि से कर्म-निष्ठा का विकास हुआ है। दूसरी ओर विवेक के लिये विराग (संयम) और विराग के लिये आध्यात्मिक मूल्य-बोध (शरीर के ऊपर आत्मा की प्रधानता का बोध) अपेक्षित हैं। इसी से आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि या त्याग मार्ग का विकास हुआ।
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इनमें पहली धारा से प्रवर्तक धर्म का और दूसरी से निवर्तक धर्म का उद्भव हुआ । प्रवर्तक धर्म का लक्ष्य भोग ही रहा, अतः उसने अपनी साधना का लक्ष्य सुविधाओं की उपलब्धि को ही बनाया। जहाँ ऐहिक जीवन में उसने धन-धान्य, पुत्र, सम्पत्ति आदि की कामना की, वहीं पारलौकिक जीवन में स्वर्ग (भौतिक सुख-सुविधाओं की उच्चतम अवस्था) की प्राप्ति को ही मानव-जीवन का चरम लक्ष्य घोषित किया। पुनः आनुभविक जीवन में जब मनुष्य ने यह देखा कि अलौकिक एवं प्राकृतिक शक्तियाँ उसकी सुखसुविधाओं की उपलब्धि के प्रयासों को सफल या विफल बना सकती हैं, अत: उसने यह माना कि उसकी सुख-सुविधाएँ उसके अपने पुरुषार्थ पर नहीं, अपितु इन शक्तियों की कृपा पर निर्भर हैं, तो वह इन्हें प्रसन्न करने के लिये एक ओर इनकी स्तुति और प्रार्थना करने लगा तो दूसरी ओर उन्हें बलि और यज्ञों के माध्यम से भी सन्तुष्ट करने लगा। इस प्रकार प्रवर्तक धर्म में दो शाखाओं का विकास हुआ १. श्रद्धाप्रधान भक्ति-मार्ग और २. यज्ञयाग प्रधान कर्म-मार्ग ।
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दूसरी ओर निष्पाप और स्वतन्त्र जीवन जीने की उमंग में निवर्तक धर्म ने निर्वाण या मोक्ष अर्थात् वासनाओं एवं लौकिक एषणाओं से पूर्ण मुक्ति को मानव-जीवन का लक्ष्य माना और इस हेतु ज्ञान और विराग को प्रधानता दी, किन्तु ज्ञान और विराग का यह जीवन सामाजिक एवं पारिवारिक व्यस्तताओं के मध्य सम्भव नहीं था । अतः निवर्तक धर्म मानव को जीवन के कर्म-क्षेत्र से कहीं दूर निर्जन वनखण्डों और गिरि कन्दराओं में ले गया। उसमें जहाँ एक ओर दैहिक मूल्यों एवं वासनाओं के निषेध पर बल दिया गया जिससे वैराग्यमूलक तप-मार्ग का विकास हुआ, वहीं दूसरी ओर उस निवृत्तिमूलक जीवन में चिन्तन और विमर्श के द्वार खुले, जिज्ञासा का विकास हुआ, जिससे चिन्तनप्रधान ज्ञानमार्ग का उद्भव हुआ। इस प्रकार निवर्तक धर्म भी दो शाखाओं में विभक्त हो गया ज्ञान-मार्ग और २. तप- मार्ग ।
१.
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मानव प्रकृति के दैहिक और चैतसिक पक्षों के आधार पर प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों के विकास की इस प्रक्रिया को निम्न सारिणी के माध्यम से अधिक स्पष्ट किया जा सकता है
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा . मनुष्य
(निवर्तक)
(प्रवर्तक)
चेतना
वासना
विवेक
भोग
विराग (त्याग)
अभ्युदय (प्रेय)
निःश्रेयस्
स्वर्ग
मोक्ष (निर्वाण)
कर्म
संन्यास
प्रवृत्ति
निवृत्ति
प्रर्वतक धर्म
निवर्तक धर्म
अलौकिक शक्तियों की उपासना आत्मोपलब्धि
समर्पणमूलक यज्ञमूलक भक्तिमार्ग कर्ममार्ग
चिन्तन प्रधान देहदण्डनमूलक
ज्ञानमार्ग तपमार्ग
जिवर्तक (श्रमण) एवं प्रवर्तक (वैदिक) धर्मों के दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय.
प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों का यह विकास भिन्न-भिन्न मनोवैज्ञानिक आधारों पर हुआ था, अत: यह स्वाभाविक था कि उनके दार्शनिक एवं सांस्कृतिक प्रदेय भिन्न-भिन्न हों। प्रवर्तक एवं निवर्तक धर्मों के इन प्रदेयों और उनके आधार पर उनमें रही हुई पारस्परिक भिन्नता को निम्न सारणी से स्पष्टतया समझा जा सकता है -
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
प्रर्वतक धर्म
निर्वतक धर्म
१. जैविक मूल्यों की प्रधानता १. आध्यात्मिक मूल्यों की प्रधानता । २. विधायक जीवन-दृष्टि
२. निषेधक जीवन-दृष्टि । ३. समष्टिवादी
३. व्यष्टिवादी। ४. व्यवहार में कर्म पर बल फिर भी | ४. व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थन दैविक शक्तियों की कृपा पर विश्वास फिर आत्मकल्याण हेतु वैयक्तिक पुरुषार्थ
पर बल! ५. ईश्वरवादी
५. अनीश्वरवादी । ६. ईश्वरीय कृपा पर विश्वास ६. वैयक्तिक प्रयासों पर विश्वास, कर्म सिद्धान्त
___ का समर्थन। ७. साधना के बाह्य साधनों पर बल । ७. आन्तरिक विशुद्धता पर बल । ८. जीवन का लक्ष्य स्वर्ग/ईश्वर के ८. जीवन का मोक्ष एवं निर्वाण की प्राप्ति।
सान्निध्य की प्राप्ति ९. वर्ण-व्यवस्था और जातिवाद का | ९. जातिवाद का विरोध, वर्ण-व्यवस्था का
जन्मना आधार पर समर्थन | केवल कर्मणा आधार पर समर्थन । १०. गृहस्थ-जीवन की प्रधानता १०. संन्यास जीवन की प्रधानता । ११. सामाजिक जीवन शैली ११. एकाकी जीवन शैली । १२. राजतन्त्र का समर्थन | १२. जनतन्त्र का समर्थन । १३. शक्तिशाली की पूजा १३. सदाचारी की पूजा १४. विधि विधानों एवं कर्मकाण्डों | १४. ध्यान और तप की प्रधानता । . की प्रधानता १५. ब्राह्मण-संस्था (पुरोहित-वर्ग) का १५. श्रमण-संस्था का विकास ।
विकास १६. उपासनामूलक
१६. समाधिमूलक ।
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
प्रवर्तक धर्म में प्रारम्भ में जैविक मूल्यों की प्रधानता रही, वेदों में जैविक आवश्यकताओं की पूर्ति से सम्बन्धित प्रार्थनाओं के स्वर अधिक मुखर हुए हैं। उदाहरणार्थ- हम सौ वर्ष जीयें, हमारी सन्तान बलिष्ट होवें, हमारी गायें अधिक दूध देवें, वनस्पति प्रचुर मात्रा में हों आदि। इसके विपरीत निवर्तक धर्म ने जैविक मूल्यों के प्रति एक निषेधात्मक रुख अपनाया, उसने सांसारिक जीवन की दुःखमयता का राग अलापा । उनकी दृष्टि में शरीर आत्मा का बन्धन है और संसार दुःखों का सागर । उन्होंने संसार और शरीर दोनों से ही मुक्ति को जीवन-लक्ष्य माना। उनकी दृष्टि में दैहिक आवश्यकताओं का निषेध, अनासक्ति, विराग और आत्म सन्तोष ही सर्वोच्च जीवन-मूल्य है।
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एक ओर जैविक मूल्यों की प्रधानता का परिणाम यह हुआ है कि प्रवर्तक धर्म में जीवन के प्रति एक विधायक दृष्टि का निर्माण हुआ तथा जीवन को सर्वतोभावेन वांछनीय और रक्षणीय माना गया, तो दूसरी ओर जैविक मूल्यों के निषेध से जीवन के प्रति एक ऐसी निषेधात्मक दृष्टि का विकास हुआ जिसमें शारीरिक माँगों को ठुकराना ही जीवन-लक्ष्य मान लिया गया और देह - दण्डन ही तप-त्याग और आध्यात्मिकता के प्रतीक बन गए । प्रवर्तक धर्म जैविक मूल्यों पर बल देता है अतः स्वाभाविक रूप से वह समाजगामी बना, क्योंकि दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति, जिसका एक अंग काम भी है, तो समाज जीवन में ही सम्भव थी, किन्तु विराग और त्याग पर अधिक बल देने के कारण निवर्तक धर्म समाज - विमुख और वैयक्तिक बन गए । यद्यपि दैहिक मूल्यों की उपलब्धि हेतु कर्म आवश्यक थे, किन्तु जब मनुष्य ने यह देखा कि दैहिक आवश्यकताओं की सन्तुष्टि के लिये उसके वैयक्तिक प्रयासों के बावजूद उनकी पूर्ति या अपूर्ति किन्हीं अन्य शक्तियों पर निर्भर है, तो वह दैववादी और ईश्वरवादी बन गया। विश्व व्यवस्था और प्राकृतिक शक्तियों के नियन्त्रक तत्त्वों के रूप में उसने विभिन्न देवों और फिर ईश्वर की कल्पना की और उनकी कृपा की आकांक्षा करने लगा । इसके विपरीत निवर्तक धर्म व्यवहार में नैष्कर्मण्यता का समर्थक होते हुए भी कर्म - सिद्धान्त के प्रति आस्था के कारण यह मानने लगा कि व्यक्ति का बन्धन और मुक्ति स्वयं उसके कारण है, अतः निवर्तक धर्म पुरुषार्थवाद और वैयक्तिक प्रयासों पर आस्था रखने लगा। अनीश्वरवाद, पुरुषार्थवाद और कर्मसिद्धान्त उसके प्रमुख तत्व बन गए। साधना के क्षेत्र में जहाँ प्रवर्तक धर्म में अलौकिक दैवीय शक्तियों की प्रसन्नता के निमित्त कर्मकाण्ड और बाह्य-विधानों (यज्ञ- योग ) का विकास हुआ, वहीं निवर्तक धर्मों ने चित्त-शुद्धि और सदाचार पर अधिक बल दिया तथा किन्हीं दैवीय शक्तियों के निमित्त कर्मकाण्ड के सम्पादन को अनावश्यक माना।
निवर्तक श्रमण धर्मों की विकास-यात्रा
भारतीय संस्कृति एक समन्वित संस्कृति है। इसकी संरचना में वैदिकधारा और श्रमणधारा का महत्त्वपूर्ण अवदान है। वैदिकधारा मूलत: प्रवृत्तिप्रधान और श्रमणधारा
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास निवृत्तिप्रधान रही है। वैदिकधारा का प्रतिनिधित्व वर्तमान में हिन्दूधर्म करता है जबकि श्रमणधारा का प्रतिनिधित्व जैन और बौद्ध धर्म करते हैं। किन्तु यह समझना भ्रान्तिपूर्ण होगा कि वर्तमान हिन्दूधर्म अपने शुद्ध रूप में मात्र वैदिक परम्परा का अनुयायी है। आज उसने श्रमणधारा के अनेक तत्त्वों को अपने में समाविष्ट कर लिया है । अतः वर्तमान हिन्दूधर्म वैदिकधारा और श्रमणधारा का एक समन्वित रूप है और उसमें इन दोनों परम्पराओं के तत्त्व सन्निहित हैं। इसी प्रकार यह कहना भी उचित नहीं होगा कि जैनधर्म और बौद्धधर्म मूलत: श्रमण-परम्परा के धर्म होते हुए भी वैदिकधारा या हिन्दूधर्म से पूर्णतः अप्रभावित रहे हैं। इन दोनों धर्मों ने भी वैदिकधारा के विकसित धर्म से कालक्रम में बहुत कुछ ग्रहण किया है।
यह सत्य है कि हिन्दूधर्म प्रवृत्तिप्रधान रहा है। उसमें यज्ञ-याग और कर्मकाण्ड की प्रधानता है, फिर भी उसमें संन्यास, मोक्ष और वैराग्य का अभाव नहीं है। अध्यात्म, संन्यास और वैराग्य के तत्त्वों को उसने श्रमण-परम्परा से न केवल ग्रहण किया है अपितु उन्हें आत्मसात भी कर लिया है। यद्यपि वेदकाल के प्रारम्भ में ये तत्त्व उसमें पूर्णत: अनुपस्थित थे, किन्तु औपनिषदिक काल में उसमें श्रमण-परम्परा के इन तत्त्वों को मान्यता प्राप्त हो चुकी थी। 'ईशावास्योपनिषद्' सर्वप्रथम वैदिकधारा और श्रमणधारा के समन्वय का प्रयास है। आज हिन्दूधर्म में संन्यास, वैराग्य, तप-त्याग, ध्यान और मोक्ष की जो अवधारणाएँ विकसित हुई हैं, वे सभी इस बात को प्रमाणित करती हैं कि वर्तमान हिन्दूधर्म ने भारत की श्रमणधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। उपनिषद् वैदिक और श्रमणधारा के समन्वयस्थल हैं, उनमें वैदिक हिन्दूधर्म एक नया स्वरूप लेता प्रतीत होता है।
इसी प्रकार कालान्तर में श्रमणधारा ने भी चाहे-अनचाहे वैदिकधारा से बहुत कुछ ग्रहण किया है। श्रमणधारा में कर्मकाण्ड और पूजा-पद्धति तो वैदिकधारा से आयी ही है, अपितु अनेक हिन्दू देवी-देवता भी श्रमण-परम्परा में मान्य कर लिये गए हैं। भारतीय संस्कृति की ये विभिन्न धाराएँ किस रूप में एक-दूसरे से समन्वित हुई हैं, इसकी चर्चा करने के पूर्व हमें यह ध्यान रखना होगा कि इन दोनों धाराओं का स्वतन्त्र विकास किन मनोवैज्ञानिक और पारिस्थितिक कारणों से हुआ है तथा कालक्रम में क्यों
और कैसे इनका परस्पर समन्वय आवश्यक हुआ। श्रमण एवं वैदिक संस्कृतियों के समन्वय की यात्रा
___ यद्यपि पूर्व में हमने प्रवर्तक धर्म अर्थात् वैदिक परम्परा और निवर्तक धर्म अर्थात् श्रमण परम्परा की मूलभूत विशेषताओं और उनके सांस्कृतिक एवं दार्शनिक प्रदेयों को समझा है, किन्तु यह मानना भ्रान्तिपूर्ण ही होगा कि आज वैदिकधारा और श्रमणधारा ने अपने इस मूल स्वरूप को बनाए रखा है। एक ही देश और परिवेश में रहकर
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा दोनों ही धाराओं के लिये यह असम्भव था कि वे एक-दूसरे के प्रभाव से अछूती रहें। अत: जहाँ वैदिकधारा में श्रमणधारा (निवर्तक धर्म-परम्परा) के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है, वहाँ श्रमणधारा में प्रवर्तक धर्म परम्परा के तत्त्वों का प्रवेश भी हुआ है। अत: आज के युग में कोई धर्म-परम्परा न तो ऐकान्तिक निवृत्तिमार्ग की पोषक है और न ऐकान्तिक प्रवृत्तिमार्ग
की।
वस्तुत: निवृत्ति और प्रवृत्ति के सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न तो व्यावहारिक है और न मनोवैज्ञानिक। मनुष्य जब तक मनुष्य है, मानवीय आत्मा जब तक शरीर के साथ योजित होकर सामाजिक जीवन जीती है, तब तक ऐकान्तिक प्रवृत्ति और ऐकान्तिक निवृत्ति की बात करना एक मृग-मरीचिका में जीना होगा। वस्तुत: आवश्यकता इस बात की रही है कि हम वास्तविकता को समझें और प्रवृत्ति तथा निवृत्ति के तत्त्वों में समुचित समन्वयें से एक ऐसी जीवन शैली खोजें जो व्यक्ति और समाज दोनों के लिये कल्याणकारी हो और मानव को तृष्णाजनित मानसिक एवं सामाजिक सन्त्रास से मुक्ति दिला सके। इस प्रकार इन दो भिन्न संस्कृतियों में पारस्परिक समन्वय आवश्यक था। जैनधर्म में इसी प्रयास में मुनिधर्म के साथ-साथ गृहस्थधर्म का भी प्रतिपादन हुआ और उसे विरताविरत अर्थात् आंशिक रूप से निवृत्त और आंशिक रूप से प्रवृत्त कहा गया।
भारत में प्राचीन काल से ही ऐसे प्रयत्न होते रहे हैं। प्रवर्तकधारा के प्रतिनिधि हिन्दूधर्म में समन्वय के सबसे अच्छे उदाहरण 'ईशावास्योपनिषद्' और 'भगवद्गीता' हैं। इन दोनों ग्रन्थों में प्रवृत्ति और निवृत्तिमार्ग के समन्वय का स्तुत्य प्रयास हुआ है। इसी प्रकार श्रमणधारा में भी परवर्ती काल में प्रवर्तक धर्म के तत्त्वों का प्रवेश हुआ है। श्रमण परम्परा की एक अन्य धारा के रूप में विकसित बौद्धधर्म में तो प्रवर्तक धारा के तत्त्वों का इतना अधिक प्रवेश हुआ कि महायान से तन्त्रयान की यात्रा तक वह अपने मूल स्वरूप से काफी दूर हो गया। भारतीय धर्मों के ऐतिहासिक विकास-क्रम में हम कालक्रम में हुए इस आदान-प्रदान की उपेक्षा नहीं कर सकते हैं। इसी आदानप्रदान के कारण ये परम्पराएँ एक-दूसरे के काफी निकट आ गईं।
- वस्तुत: भारतीय संस्कृति एक संश्लिष्ट संस्कृति है। उसे हम विभिन्न चारदीवारियों में अवरुद्ध कर कभी भी सम्यक् प्रकार से नहीं समझ सकते हैं, उसको खण्ड-खण्ड में विभाजित करके देखने में उसकी आत्मा ही मर जाती है। जैसे शरीर को खण्डखण्ड कर देखने से शरीर की क्रिया-शक्ति को नहीं समझा जा सकता है, वैसे ही भारतीय संस्कृति को खण्ड-खण्ड करके उसकी मूल आत्मा को नहीं समझा जा सकता है। भारतीय संस्कृति को हम तभी सम्पूर्ण रूप से समझ सकते हैं, जब उसके विभिन्न घटकों अर्थात् जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म-दर्शन का समन्वित एवं सम्यक् अध्ययन न कर लें। बिना उसके संयोजित घटकों के ज्ञान से उसका सम्पूर्णता में ज्ञान सम्भव ही नहीं है। एक इंजन की प्रक्रिया को भी सम्यक् प्रकार से समझने के लिये न
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास केवल उसके विभिन्न घटकों का अर्थात् कल-पुों का ज्ञान आवश्यक होता है, अपितु उनके परस्पर संयोजित रूप को भी देखना होता है। अतः हमें स्पष्ट रूप से इस तथ्य को समझ लेना चाहिये कि भारतीय संस्कृति के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में अन्य सहवर्ती परम्पराओं और उनके पारस्परिक सम्बन्धों के अध्ययन के बिना कोई भी शोध परिपूर्ण नहीं हो सकती है। धर्म और संस्कृति शून्य में विकसित नहीं होते, वे अपने देश, काल और सहवर्ती परम्पराओं से प्रभावित होकर ही अपना स्वरूप ग्रहण करते हैं। यदि हमें जैन, बौद्ध, वैदिक या अन्य किसी भी भारतीय सांस्कृतिक धारा का अध्ययन करना है, उसे सम्यक् प्रकार से समझना है, तो उसके देश, काल एवं परिवेशगत पक्षों को भी प्रामाणिकतापूर्वक तटस्थ बुद्धि से समझना होगा। चाहे जैन विद्या के शोध एवं अध्ययन का प्रश्न हो या अन्य किसी भारतीय विद्या के, हमें उसकी दूसरी परम्पराओं को अवश्य ही जानना होगा और यह देखना होगा कि वह उन दूसरी सहवर्ती परम्पराओं से किस प्रकार प्रभावित हुई है और उसने उन्हें किस प्रकार प्रभावित किया है। पारस्परिक प्रभाव के अध्ययन के बिना कोई भी अध्ययन पूर्ण नहीं होता है।
यह सत्य है कि भारतीय संस्कृति के इतिहास के आदिकाल से ही हम उसमें श्रमण और वैदिक संस्कृति का अस्तित्व साथ-साथ पाते हैं, किन्तु हमें यह भी स्मरण रखना होगा कि भारतीय संस्कृति में इन दोनों स्वतन्त्र धाराओं का संगम हो गया है
और अब उन्हें एक-दूसरे से पूर्णतया अलग नहीं किया जा सकता। भारतीय इतिहास के प्रारम्भिक काल से ही ये दोनों धाराएँ परस्पर एक-दूसरे से प्रभावित होती रही हैं। अपनी-अपनी विशेषताओं के आधार पर विचार के क्षेत्र में हम चाहे उन्हें अलगअलग देख लें, किन्तु व्यावहारिक स्तर पर उन्हें एक-दूसरे से पृथक् नहीं कर सकते। भारतीय वाङ्मय में ऋग्वेद प्राचीनतम माना जाता है। उसमें जहाँ एक ओर वैदिक समाज एवं वैदिक क्रियाकाण्डों का उल्लेख है, वहीं दूसरी ओर उसमें न केवल व्रात्यों, श्रमणों एवं अर्हतों की उपस्थिति के उल्लेख उपलब्ध हैं, अपितु ऋषभ, अरिष्टनेमि आदि, जो जैन परम्परा में तीर्थङ्कर के रूप में मान्य हैं, के प्रति समादर भाव भी व्यक्त किया गया है। इससे यह प्रतीत होता है कि ऐतिहासिक युग के प्रारम्भ से ही भारत में ये दोनों संस्कृतियाँ साथ-साथ प्रवाहित होती रही हैं। हिन्दधर्म की शैवधारा और सांख्य-योग परम्परा मूलत: निवर्तक या श्रमण रही हैं जो कालक्रम में बृहद् हिन्दूधर्म में आत्मसात् कर ली गई हैं।
____ मोहनजोदड़ों और हड़प्पा के उत्खनन से जिस प्राचीन भारतीय संस्कृति की जानकारी हमें उपलब्ध होती है, उससे सिद्ध होता है कि वैदिक संस्कृति के पूर्व भी भारत में एक उच्च संस्कृति अस्तित्व रखती थी जिसमें तप, ध्यान आदि पर बल दिया जाता था। उस उत्खनन में ध्यानस्थ योगियों की सीलें आदि मिलना तथा प्राचीन स्तर पर यज्ञशाला आदि का न मिलना यही सिद्ध करता है कि वह संस्कृति तप, योग एवं
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ध्यान-प्रधान व्रात्य या श्रमण-संस्कृति का प्रतिनिधित्व करती थी । यह निश्चित है कि आर्यों के आगमन के साथ प्रारम्भ हुए वैदिक युग से ये दोनों ही धाराएँ साथ-साथ प्रवाहित हो रही हैं और उन्होंने एक-दूसरे को पर्याप्त रूप से प्रभावित भी किया है। ऋग्वेद में व्रात्यों के प्रति जो तिरस्कार भाव था, वह अथर्ववेद में समादर भाव में बदल जाता है जो दोनों धाराओं के समन्वय का प्रतीक है। तप, त्याग, संन्यास, ध्यान, समाधि, मुक्ति और अहिंसा की अवधारणाएँ जो प्रारम्भिक वैदिक ऋचाओं और कर्मकाण्डीय ब्राह्मण ग्रन्थों में अनुपलब्ध थीं, वे आरण्यक आदि परवर्ती वैदिक साहित्य में और विशेष रूप से उपनिषदों में अस्तित्व में आ गयी हैं। इससे लगता है कि ये अवधारणाएँ संन्यासमार्गीय श्रमणधाराके प्रभाव से ही वैदिकधारा में प्रविष्ट हुई हैं। उपनिषदों, महाभारत और गीता में एक ओर वैदिक कर्मकाण्ड की समालोचना और उन्हें आध्यात्मिकता से समन्वित कर नए रूप में परिभाषित करने का प्रयत्न तथा दूसरी ओर तप, संन्यास और मुक्ति आदि की स्पष्ट रूप से स्वीकृति, यही सिद्ध करती है कि ये ग्रन्थ वैदिक एवं श्रमणधारा के बीच हुए समन्वय या संगम के ही परिचायक हैं। हमें यह स्मरण रखना होगा कि उपनिषद् और महाभारत, जिसका एक अंग गीता है, शुद्ध रूप से वैदिक कर्मकाण्डात्मक धर्म के प्रतिनिधि नहीं हैं। वह निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिमार्गी वैदिकधारा के समन्वय का परिणाम है। उपनिषदों, महाभारत और गीता में जहाँ एक ओर श्रमणधारा के आध्यात्मिक और निवृत्तिप्रधान तत्त्वों को स्थान दिया गया है, वहीं दूसरी ओर यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की श्रमण परम्परा के समान आध्यात्मिक दृष्टि से नवीन परिभाषाएँ भी प्रस्तुत की गई हैं। उसमें यज्ञ का अर्थ पशुबलि न होकर स्वहितों की बलि या समाजसेवा हो गया। हमें यह स्मरण रखना होगा कि हमारा आज का हिन्दूधर्म वैदिक और श्रमणधाराओं के समन्वय का परिणाम है। वैदिक कर्मकाण्ड के विरोध में जो आवाज औपनिषदिक युग के ऋषिमुनियों ने उठाई थी, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं ने मात्र उसे मुखर ही किया है। हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि वैदिक कर्मकाण्ड के प्रति यदि किसी ने पहली आवाज उठाई तो वे औपनिषदिक ऋषि ही थे। उन्होंने ही सबसे पहले कहा था कि ये यज्ञरूपी नौकाएँ अदृढ़ हैं, ये आत्मा के विकास में सक्षम नहीं हैं। यज्ञ आदि वैदिक कर्मकाण्डों की नवीन आध्यात्मिक दृष्टि से व्याख्या करने का कार्य औपनिषदिक ऋषियों और गीता के प्रवक्ता का है। महावीर एवं बुद्धकालीन जैन और बौद्ध परम्पराएँ तो औपनिषदिक ऋषियों के द्वारा प्रशस्त किये गए पथ पर गतिशील हुई हैं। वे वैदिक कर्मकाण्ड, जन्मना जातिवाद और मिथ्या विश्वासों के विरोध में उठे हुए औपनिषदिक ऋषियों के स्वर के ही मुखरित रूप हैं। जैन और बौद्ध परम्पराओं में औपनिषदिक ऋषियों की अर्हत् ऋषियों के रूप में स्वीकृति इसका स्पष्ट प्रमाण है।
यह सत्य है कि श्रमणों ने यज्ञों में पशुबलि, जन्मना वर्ण-व्यवस्था और वेदों के प्रामाण्य से इन्कार किया और इस प्रकार वे भारतीय संस्कृति के समुद्धारक के रूप
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास में ही सामने आये, किन्तु हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि भारतीय संस्कृति में आई इन विकृतियों के परिमार्जन करने की प्रक्रिया में वे स्वयं ही कहीं न कहीं उन विकृतियों से प्रभावित हो गए हैं। वैदिक कर्मकाण्ड अब पूजा-विधानों एवं तन्त्र-साधना के नये रूप में बौद्ध, जैन और अन्य श्रमण परम्पराओं में प्रविष्ट हो गया है और उनकी साधना-पद्धति का एक अंग बन गया है। आध्यात्मिक विशुद्धि के लिये किया जानेवाला ध्यान अब भौतिक सिद्धियों के निमित्त किया जाने लगा है। जहाँ एक ओर भारतीय श्रमण-परम्परा ने वैदिक परम्परा को आध्यात्मिक जीवन-दृष्टि के साथ-साथ तप, त्याग, संन्यास और मोक्ष की अवधारणाएँ प्रदान की, वहीं दूसरी ओर तीसरी-चौथी शती से वैदिक परम्परा के प्रभाव से पूजा-विधान और तान्त्रिक साधनाएँ जैन और बौद्ध परम्पराओं में प्रविष्ट हो गईं। अनेक हिन्दू देव-देवियाँ प्रकारान्तर में जैनधर्म एवं बौद्धधर्म में स्वीकार कर ली गईं। जैनधर्म में यक्ष-यक्षिणियों एवं शासन-देवता की अवधारणाएँ हिन्दू देवताओं का जैनीकरण मात्र हैं। अनेक हिन्दू देवियाँ जैसे- काली, महाकाली, ज्वालामालिनी, अम्बिका, चक्रेश्वरी, पद्मावती, सिद्धायिका तीर्थङ्करों की शासन-रक्षक देवियों के रूप में जैनधर्म का अंग बन गई। इसी प्रकार श्रुत-देवता के रूप में सरस्वती और सम्पत्ति प्रदाता के रूप में लक्ष्मी की उपासना भी जैनधर्म में भी होने लगी और हिन्दू-परम्परा का गणेश पार्श्व-यक्ष के रूप में लोकमंगल का देवता बन गया। वैदिक परम्परा के प्रभाव से जैन मन्दिरों में भी अब यज्ञ होने लगे और पूजा-विधान में हिन्दू देवताओं की तरह तीर्थङ्करों का भी आह्वान एवं विसर्जन किया जाने लगा। हिन्दुओं की पूजा-विधि को भी मन्त्रों में कुछ शाब्दिक परिवर्तनों के साथ जैनों ने स्वीकार कर लिया। इस सबकी विस्तृत चर्चा आगे की गई है। इस प्रकार जैन और बौद्ध परम्पराओं में तप,ध्यान और समाधि की साधना गौण होकर पूजा-विधि-विधान प्रमुख हो गया। इस पारस्परिक प्रभाव का एक परिणाम यह भी हुआ कि जहाँ हिन्दू परम्परा में ऋषभ और बुद्ध को ईश्वर के अवतार के रूप में स्वीकार कर लिया गया, वहीं जैन परम्परा में राम और कृष्ण को शलाकापुरुष के रूप में मान्यता मिली। इस प्रकार दोनों धाराएँ एकदूसरे से समन्वित हुईं।
आज हमें उनकी इस पारस्परिक प्रभावशीलता को तटस्थ दृष्टि से स्पष्ट करने का प्रयास करना चाहिये, ताकि धर्मों के बीच जो दूरियाँ पैदा कर दी गयी हैं, उन्हें समाप्त किया जा सके और उनकी निकटता को भी सम्यक् रूप से समझा जा सके।
दुर्भाग्य से इस देश में विदेशी तत्त्वों के द्वारा न केवल हिन्दू और मुसलमानों के बीच, अपितु जैन, बौद्ध, हिन्दू और सिक्खों,जो कि बृहद् भारतीय परम्परा के ही अंग हैं, के बीच भी खाइयाँ खोदने का कार्य किया जाता रहा है और सामान्य रूप से यह प्रसारित किया जाता रहा है कि जैन और बौद्धधर्म न केवल स्वतन्त्र धर्म हैं, अपित् वे वैदिक हिन्दू-परम्परा के विरोधी भी हैं। सामान्यतया जैन और बौद्धधर्म को वैदिक धर्म के प्रति एक विद्रोह के रूप में चित्रित किया जाता है। यह सत्य है कि वैदिक और श्रमण
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१३ परम्पराओं में कुछ मूल-भूत प्रश्नों को लेकर स्पष्ट मतभेद हैं। यह भी सत्य है कि जैनबौद्ध परम्परा ने वैदिक परम्परा की उन विकृतियों का, जो कर्मकाण्ड, पुरोहितवाद, जातिवाद और ब्राह्मण वर्ग के द्वारा निम्न वर्गों के धार्मिक शोषण के रूप में उभर रही थीं, खुलकर विरोध किया, किन्तु हमें उसे विद्रोह के रूप में नहीं अपितु भारतीय संस्कृति के परिष्कार के रूप में ही समझना होगा। जैन और बौद्ध धर्मों ने भारतीय संस्कृति में आ रही विकृतियों का परिशोधन कर उसे स्वस्थ बनाने हेतु एक चिकित्सक का कार्य किया है। किन्तु स्मरण रखना होगा कि चिकित्सक कभी भी शत्रु नहीं होता,मित्र ही होता है। दुर्भाग्य से पाश्चात्य चिन्तकों के प्रभाव से भारतीय चिन्तक और किसी सीमा तक कुछ जैन और बौद्ध चिन्तक भी यह मानने लगे हैं कि जैनधर्म और वैदिक (हिन्दू) धर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं, किन्तु यह एक भ्रान्त अवधारणा है। चाहे अपने मूल रूप में वैदिक एवं श्रमण संस्कृति प्रवर्तक और निवर्तक धर्म-परम्पराओं के रूप में भिन्न-भिन्न रही हों, किन्तु आज न तो हिन्दू-परम्परा ही उस अर्थ में पूर्णत: वैदिक है और न ही जैन-बौद्ध परम्परा पूर्णत: श्रमण। आज चाहे हिन्दू धर्म हो अथवा जैन और बौद्ध धर्म हों, ये सभी अपने वर्तमान स्वरूप में वैदिक और श्रमण संस्कृति के समन्वित रूप हैं। यह बात अलग है कि उनमें प्रवृत्ति और निवृत्ति में से कोई एक पक्ष अभी भी प्रमुख है। उदाहरण के रूप में हम कह सकते हैं कि जहाँ जैनधर्म आज भी निवृत्तिप्रधान है वहाँ हिन्दू धर्म प्रवृत्तिप्रधान। फिर भी यह मानना उचित होगा कि ये दोनों धर्म प्रवृत्ति और निवृत्ति के समन्वय से ही निर्मित हुए हैं। जैनधर्म के अनुसार भी भगवान् ऋषभदेव ने दीक्षित होने के पूर्व प्रवृत्तिमार्ग अर्थात् परिवार धर्म, समाज धर्म, राज्य धर्म आदि का उपदेश दिया था।
पूर्व में यह स्पष्ट किया जा चुका है कि इस समन्वय का प्रथम प्रयत्न हमें 'ईशावास्योपनिषद्' में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। अत: आज जहाँ उपनिषदों को प्राचीन श्रमण-परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्कता है, वहीं जैन और बौद्ध परम्परा को भी औपनिषदिक परम्परा के परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्कता है। जिस प्रकार वासना और विवेक, प्रेय और श्रेय, परस्पर भिन्न-भिन्न होकर भी मानव व्यक्तित्व के ही अंग हैं उसी प्रकार निवृत्तिप्रधान श्रमणधारा और प्रवृत्तिप्रधान वैदिकधारा दोनों भारतीय संस्कृति के ही अंग हैं । वस्तुत: कोई भी संस्कृति ऐकान्तिक निवृत्ति या ऐकान्तिक प्रवृत्ति के आधार पर प्रतिष्ठित नहीं हो सकती है। जैन और बौद्ध परम्पराएँ भारतीय संस्कृति का वैसे ही अभिन्न अंग हैं, जैसे हिन्दू-परम्परा। यदि औपनिषदिकधारा को वैदिकधारा से भिन्न होते हुए भी वैदिक या हिन्दू-परम्परा का अभिन्न अंग माना जाता है तो फिर जैन और बौद्ध परम्पराओं को उसका अभिन्न अंग क्यों नहीं माना जा सकता? यदि सांख्य और मीमांसक अनीश्वरवादी होते हुए भी आज हिन्दूधर्म-दर्शन के अंग माने जाते हैं, तो फिर जैन व बौद्ध धर्म को अनीश्वरवादी कहकर उससे कैसे भिन्न किया जा सकता है? वस्तुत:हिन्दू कोई एक धर्म और दर्शन न होकर, एक व्यापक परम्परा का
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास नाम है या कहें कि वह विभिन्न वैचारिक एवं साधनात्मक परम्पराओं का समूह है। उसमें ईश्वरवाद-अनीश्वरवाद, द्वैतवाद-अद्वैतवाद, प्रवृत्ति-निवृत्ति, ज्ञान-कर्म सभी कुछ तो समाहित है। उसमें प्रकृति-पूजा जैसे धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों से लेकर अद्वैत की उच्च गहराइयाँ तक सभी कुछ तो उसमें सन्निविष्ट हैं। अत: हिन्दू उस अर्थ में कोई एक धर्म नहीं है जैसे यहूदी, ईसाई या मुसलमान। हिन्दू एक संश्लिष्ट परम्परा है, एक सांस्कृतिक धारा है जिसमें अनेक धाराएँ समाहित हैं।
अत: जैन और बौद्ध धर्म को हिन्द परम्परा से नितान्त भिन्न नहीं माना जा सकता। जैन और बौद्ध भी उसी अध्यात्म-पक्ष के अनुयायी हैं जिसके औपनिषदिक ऋषि थे। उनकी विशेषता यह है कि उन्होंने भारतीय समाज के दलित वर्ग के उत्थान तथा जन्मना जातिवाद, कर्मकाण्ड व पुरोहितवाद से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त किया। उन्होंने उस धर्म का प्रतिपादन किया जो जनसामान्य का धर्म था और जिसे कर्मकाण्डों की अपेक्षा नैतिक सद्गुणों पर अधिष्ठित किया गया था। उन्होंने भारतीय समाज को पुरोहित वर्ग के धार्मिक शोषण से मुक्त किया। वे विदेशी नहीं हैं, इसी माटी की सन्तान हैं, वे शत-प्रतिशत भारतीय हैं। जैन, बौद्ध और औपनिषदिकधारा किसी एक ही मूल स्त्रोत के विकास हैं और आज उन्हें उसी परिप्रेक्ष्य में समझने की आवश्यकता है।
भारतीय धर्मों, विशेषरूप से औपनिषदिक, बौद्ध और जैन धर्मों की जिस पारस्परिक प्रभावशीलता के अध्ययन की आज विशेष आवश्यकता है, उसे समझने में प्राचीन स्तर के जैन आगम यथा- 'आचारांग', 'सत्रकृतांग', 'ऋषिभाषित' और 'उत्तराध्ययन' आदि हमारे दिशा-निर्देशक सिद्ध हो सकते हैं। मुझे विश्वास है कि इन ग्रन्थों के अध्ययन से भारतीय विद्या के अध्येताओं को एक नई दिशा मिलेगी और यह मिथ्या विश्वास दूर हो जाएगा कि जैनधर्म, बौद्धधर्म और हिन्दूधर्म परस्पर विरोधी धर्म हैं। आचारांग में हमें ऐसे अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं जो अपने भाव, शब्द-योजना
और भाषा-शैली की दृष्टि से औपनिषदिक सूत्रों के निकट हैं। 'आचारांग' में आत्म के स्वरूप के सन्दर्भ में जो विवरण प्रस्तुत किया गया है वह 'माण्डूक्योपनिषद्' से यथावत् मिलता है। 'आचारांग' में श्रमण और ब्राह्मण का उल्लेख परस्पर प्रतिस्पर्धियों के रूप में नहीं, अपितु सहगामियों के रूप में मिलता है। चाहे 'आचारांग', 'उत्तराध्ययन' आदि जैनागम हिंसक यज्ञीय कर्मकाण्ड का निषेध करते हों, किन्तु वे ब्राह्मणों को भी उसी नैतिक एवं आध्यात्मिक पथ का अनुगामी मानते हैं जिस पथ पर श्रमण चल रहे थे। उनकी दृष्टि में ब्राह्मण वह है जो सदाचार का जीवन्त प्रतीक है। उनमें अनेक स्थलों पर श्रमणों और ब्राह्मणों (समणा-माहणा) का साथ-साथ उल्लेख हुआ है।
इसी प्रकार 'सूत्रकृतांग' में यद्यपि तत्कालीन दार्शनिक मान्यताओं की समीक्षा है किन्तु उनके साथ ही उसमें औपनिषदिक युग के अनेक ऋषियों यथा-विदेहनमि, बाहुक,
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अग्नितदेवल, द्वैपायन, पाराशर आदि का समादरपूर्वक उल्लेख भी हुआ है । 'सूत्रकृतांग' स्पष्ट रूप से स्वीकार करता है कि इन ऋषियों के आचार नियम उसकी आचार परम्परा से भिन्न थे, फिर भी वह उन्हें अपनी अर्हत् परम्परा का ही पूज्य पुरुष मानता है। वह उनका महापुरुष और तपोधन के रूप में उल्लेख करता है और यह मानता है कि उन्होंने सिद्धि अर्थात् जीवन के चरम साध्य मोक्ष को प्राप्त कर लिया था । ' सूत्रकृतांग' की दृष्टि में ये ऋषिगण भिन्न आचारर-मार्ग का पालन करते हुए भी उसकी अपनी ही परम्परा के ऋषि थे। 'सूत्रकृतांग' में इन ऋषियों को महापुरुष, तपोधन एवं सिद्धि प्राप्त कहना तथा ‘उत्तराध्ययन’ में अन्य लिंग सिद्धों का अस्तित्व मानना यही सूचित करता है कि प्राचीन काल में जैन परम्परा अत्यन्त उदार थी और वह मानती थी कि मुक्ति का अधिकार केवल उसके आचार नियमों का पालन करनवाले को ही नहीं है, अपितु भिन्न आचार-मार्ग का पालन करनेवाला भी मुक्ति का अधिकारी हो सकता है, शर्त केवल एक ही है उसका चित्त विषय-वासनाओं एवं राग-द्वेष से रहित और समता भाव से वासित हों।
इसी सन्दर्भ में यहाँ 'ऋषिभाषित' (इसिभासियाई) का उल्लेख करना भी आवश्यक है, जो जैन आगम साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ ( ई०पू० चौथी शती) है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ का निर्माण उस समय हुआ होगा, जब जैनधर्म एक सम्प्रदाय के रूप में विकसित नहीं हुआ था। इस ग्रन्थ में नारद, असितदेवल, अंगिरस, पाराशर, अरुण, नारायण, याज्ञवल्क्य, उद्दालक, विदुर, सारिपुत्त, महाकश्यप, मंखलिगोशाल, संजय (वेलिठ्ठिपुत्त) आदि पैंतालिस ऋषियों का उल्लेख है और इन सभी को अर्हत् ऋषि, बुद्ध ऋषि या ब्राह्मण ऋषि कहा गया है। 'ऋषिभाषित' में इनके आध्यात्मिक और नैतिक उपदेशों का संकलन है। जैन परम्परा में इस ग्रन्थ की रचना इस तथ्य का स्पष्ट संकेत है कि औपनिषदिक ऋषियों की परम्परा और जैन - परम्परा का उद्गम स्त्रोत एक ही है। यह ग्रन्थ न केवल जैनधर्म की धार्मिक उदारता का सूचक है, अपितु यह भी बताता है कि सभी भारतीय आध्यात्मिक परम्पराओं का मूल स्रोत एक ही है। औपनिषदिक, बौद्ध, जैन, आजीवक, सांख्य, योग आदि सभी उसी मूल स्रोत से निकली हुई धाराएँ हैं। जिस प्रकार जैनधर्म के 'ऋषिभाषित' में विभिन्न परम्पराओं के ऋषियों के उपदेश संकलित हैं, उसी प्रकार बौद्ध परम्परा की 'थेरगाथा' में भी विभिन्न परम्पराओं के स्थविरों के उपदेश संकलित हैं। उसमें भी अनेक औपनिषदिक एवं अन्य श्रमण परम्परा के आचार्यों के उल्लेख हैं जिनमें एक वर्धमान (महावीर) भी हैं। ये सभी उल्लेख इस तथ्य के सूचक हैं कि भारतीय चिन्तनधारा प्राचीनकाल से ही उदार और सहिष्णु रही है और उसकी प्रत्येक धारा में यही उदारता और सहिष्णुता प्रवाहित होती रही है। आज जब हम साम्प्रदायिक अभिनिवेशों में जकड़कर परस्पर संघर्षों में उलझ गये हैं, इन धाराओं का तुलनात्मक अध्ययन हमें एक नयी दृष्टि प्रदान कर सकता है। यदि भारतीय सांस्कृतिक चिन्तन की इन धाराओं को एक-दूसरे से
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अलग कर देखने का प्रयत्न किया जायगा तो हम उन्हें सम्यक् रूप से समझने में सफल नहीं हो सकेंगे। जिस प्रकार उत्तराध्ययन, सूत्रकृतांग, ऋषिभाषित' और 'आचारांग' को समझने के लिए औपनिषदिक साहित्य का अध्ययन आवश्यक है । उसी प्रकार उपनिषदों और बौद्ध साहित्य को भी जैन परम्परा के अध्ययन के अभाव में सम्यक् प्रकार से नहीं समझा जा सकता है। आज साम्प्रदायिक अभिनिवेशों से ऊपर उठकर तटस्थ एवं तुलनात्मक रूप से सत्य का अन्वेषण ही एक ऐसा विकल्प है, जो साम्प्रदायिक अभिनिवेश से ग्रस्त मानव को मुक्ति दिला सकता है और भारतीय धर्मों की पारस्परिक प्रभावशीलता को स्पष्ट कर सकता है।
जैनधर्म का वैदिकधर्म को अवदान
औपनिषदिक काल या महावीर - युग की सबसे प्रमुख समस्या यह थी कि उस युग में अनेक परम्पराएँ अपने एकांगी दृष्टिकोण को ही पूर्ण सत्य समझकर परस्पर एक-दूसरे के विरोध में खड़ी थीं। उस युग में चार प्रमुख वर्ग थे १. क्रियावादी, २. अक्रियावादी, ३. विनयवादी और ४. अज्ञानवादी । महावीर ने सर्वप्रथम उनमें समन्वय करने का प्रयास किया। प्रथम क्रियावादी दृष्टिकोण आचार के बाह्य पक्षों पर अधिक बल देता था। वह कर्मकाण्डपरक था। बौद्ध परम्परा में इस धारणा को शीलव्रत परामर्श कहा गया है। दूसरा अक्रियावाद था। अक्रियावाद के तात्त्विक आधार या तो विभिन्न नियतिवादी दृष्टिकोण थे या आत्मा को कूटस्थ एवं अकर्ता मानने की दार्शनिक अवधारणा के पोषक थे। ये परम्पराएँ ज्ञानमार्ग की प्रतिपादक थीं । जहाँ क्रियावाद के अनुसार कर्म या आचरण ही साधना का सर्वस्व था, वहाँ अक्रियावाद के अनुसार ज्ञान ही साधना का सर्वस्व था। क्रियावाद कर्ममार्ग का प्रतिपादक था और अक्रियावाद ज्ञानमार्ग का प्रतिपादक । कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग के अतिरिक्त तीसरी परम्परा अज्ञानवादियों की थी जो अतीन्द्रिय एवं पारलौकिक मान्यताओं को 'अज्ञेय' स्वीकार करती थी । इसका दर्शन रहस्यवाद और सन्देहवाद इन दो रूपों में विभाजित था। इन तीनों परम्पराओं के अतिरिक्त चौथी परम्परा विनयवाद की थी जिसे भक्तिमार्ग का प्रारम्भिक रूप माना जाता है। विनयवाद भक्तिमार्ग का ही अपरनाम था। इस प्रकार उस युग में ज्ञानमार्ग, कर्ममार्ग, भक्तिमार्ग और अज्ञेयवाद (सन्देहवाद) की परम्पराएँ अलगअलग रूप में प्रतिष्ठित थीं। महावीर ने अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण के द्वारा इनमें समन्वय खोजने का प्रयास किया। सर्वप्रथम उन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यक् - ज्ञान और सम्यक् चारित्र के रूप में त्रिविध मोक्षमार्ग का एक ऐसा सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसमें ज्ञानवादी, कर्मवादी और भक्तिमार्गी परम्पराओं का समुचित समन्वय था। इस प्रकार महावीर एवं जैन-दर्शन का प्रथम प्रयास ज्ञानमार्गीय, कर्ममार्गीय, विभिन्न भक्तिमार्गी, तापस आदि एकांगी दृष्टिकोणों के मध्य समन्वय स्थापित करना था । यद्यपि 'गीता' में ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग की चर्चा हुई है किन्तु वहाँ इनमें से प्रत्येक को मोक्ष
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा . मार्ग मान लिया गया है। जबकि जैन धर्म में इनके समन्वित के रूप को मोक्ष मार्ग कहा गया।
जैनधर्म ने न केवल वैदिक ऋषियों द्वारा प्रतिपादित यज्ञ-याग की परम्परा का विरोध किया, वरन् श्रमण परम्परा के देह-दण्डन की तपस्यात्मक प्रणाली का भी विरोध किया। सम्भवत: महावीर के पूर्व पार्श्व के काल तक धर्म का सम्बन्ध बाह्य तथ्यों से ही जोड़ा गया था। यही कारण था कि ब्राह्मण-वर्ग यज्ञ-याग के क्रियाकाण्डों में ही धर्म की इति श्री मान लेता था। सम्भवतः जैन परम्परा में महावीर के पूर्ववर्ती तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ ने आध्यात्मिक साधना में बाह्य पहल के स्थान पर उसके आन्तरिक पहल पर बल दिया था और परिणामस्वरूप श्रमण परम्पराओं में भी बौद्ध आदि कुछ धर्म परम्पराओं ने इस आन्तरिक पहलू पर अधिक बल देना प्रारम्भ कर दिया था। लेकिन महावीर के युग तक धर्म एवं साधना का यह बाह्यमुखी दृष्टिकोण पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया था, वरन् ब्राह्मण परम्परा में तो यज्ञ, श्राद्धादि के रूप में वह अधिक प्रसार पा गया था। दूसरी ओर जिन विचारकों ने साधना के आन्तरिक पक्ष पर बल देना प्रारम्भ किया था, उन्होंने उसके बाह्य पक्ष की पूरी तरह अवहेलना करना प्रारम्भ कर दिया था, परिणामस्वरूप वे भी एक अति की ओर जाकर एकांगी बन गए। अत: महावीर ने दोनों ही पक्षों में समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया और यह बताया कि धर्म-साधना का सम्बन्ध सम्पूर्ण जीवन से है। उसमें आचरण के बाह्य पक्ष के रूप में क्रिया का जो स्थान है, उससे भी अधिक स्थान आचरण के आन्तरिक प्रेरक का है। इस प्रकार उन्होंने धार्मिक जीवन में आचरण के प्रेरक और आचरण के परिणाम दोनों पर ही बल दिया। उन्होंने ज्ञान और क्रिया के बीच समन्वय स्थापित किया। 'नरसिंहपुराण' (६१/९/११) में भी 'आवश्यकनियुक्ति' (पृष्ठ, १५-१७) के समान ही ज्ञान और क्रिया के समन्वय को अनेक रूपकों से वर्णित किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि जैन परम्परा के इस चिन्तन ने हिन्दू परम्परा को प्रभावित किया है। मानव मात्र की समानता का उद्घोष
उस युग की सामाजिक समस्याओं में वर्ण-व्यवस्था एक महत्त्वपूर्ण समस्या थी। वर्ण का आधार कर्म और स्वभाव को छोड़. जन्म मान लिया गया था। परिणामस्वरूप वर्ण-व्यवस्था विकृत हो गयी थी और ऊँच-नीच का भेद हो गया था जिसके कारण सामाजिक स्वास्थ्य विषमता के ज्वर से आक्रान्त था। जैन विचारधारा ने जन्मना जातिवाद का विरोध किया और समस्त मानवों की समानता का उद्घोष किया। एक ओर उसने हरिकेशीबल जैसे निम्न कुलोत्पन्न को, तो दूसरी ओर गौतम जैसे ब्राह्मण कुलोत्पन्न साधक को अपने साधना-मार्ग में समान रूप से दीक्षित किया। केवल जातिगत विभेद ही नहीं वरन् आर्थिक विभेद भी समानता की दृष्टि से जैन विचारधारा के सामने कोई मूल्य नहीं रखता। जहाँ एक ओर मगध-सम्राट तो दूसरी ओर पुणिया जैसे
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास निर्धन श्रावक भी उसकी दृष्टि में समान थे। इस प्रकार उसने जातिगत या आर्थिक आधार पर ऊँच-नीच का भेद अस्वीकार कर मानव मात्र की समानता पर बल दिया। इसका प्रभाव हिन्दूधर्म पर भी पड़ा और उसमें भी गुप्तकाल के पश्चात् भक्तियुग में वर्ण-व्यवस्था और ब्राह्मण वर्ग की श्रेष्ठता का विरोध हुआ। वैसे तो महाभारत के रचनाकाल (लगभग चौथी शती) से ही यह प्रभाव परिलक्षित होता है। ईश्वरीय दासता से मुक्ति और मानव को स्वतन्त्रता का उद्घोष
उस युग की दूसरी समस्या यह थी कि मानवीय स्वतन्त्रता का मूल्य लोगों की दृष्टि में कम आँका जाने लगा था। एक ओर ईश्वरवादी धाराएँ तो दूसरी ओर कालवादी एवं नियतिवादी धारणाएँ मानवीय स्वतन्त्रता को अस्वीकार करने लगी थीं। जैन दर्शन ने इस कठिनाई को समझा और मानवीय स्वतन्त्रता की पुन: प्राण-प्रतिष्ठा की। उसने यह उद्घोष किया कि न तो ईश्वर और न अन्य शक्तियाँ मानव की निर्धारक हैं, वरन् मनुष्य स्वयं ही अपना निर्माता है। इस प्रकार उसने मनुष्य को ईश्वरवाद की उस धारणा से मुक्ति दिलाई जो मानवीय स्वतन्त्रता का अपहरण कर रही थी और यह प्रतिपादित किया कि मानवीय स्वतन्त्रता में निष्ठा ही धर्म-दर्शन का सच्चा आधार बन सकती है। जैनों की इस अवधारणा का प्रभाव हिन्दूधर्म पर उतना अधिक नहीं पड़ा, जितना अपेक्षित था, फिर भी ईश्वरवाद की स्वीकृति के साथ-साथ मानव की श्रेष्ठता के स्वर तो मुखरित हुए ही थे। रुढ़िवाद से मुक्ति
... जैनधर्म ने रुढ़िवाद से भी मानव-जाति को मुक्त किया। उसने उस युग की अनेक रुढ़ियों जैसे- पशु-यज्ञ, श्राद्ध, पुरोहितवाद आदि से मानव-समाज को मुक्त करने का प्रयास किया था और इसलिये इन सबका खुला विरोध भी किया। ब्राह्मण-वर्ग ने अपने को ईश्वर का प्रतिनिधि बताकर सामाजिक शोषण का जो सिलसिला प्रारम्भ किया था, उसे समाप्त करने के लिये जैन एवं बौद्ध परम्पराओं ने प्रयास किया। जैन और बौद्ध आचार्यों ने सबसे महत्त्वपूर्ण काम यह किया कि उन्होंने यज्ञादि प्रत्ययों को नई परिभाषाएँ प्रदान की। यहाँ जैनधर्म के द्वारा प्रस्तुत ब्राह्मण, यज्ञ आदि की कुछ नई परिभाषाएँ दी जा रही हैं। ब्राह्मण का नया अर्थ
___ जैन परम्परा ने सदाचरण को ही मानवीय जीवन में उच्चता और निम्नता का प्रतिमान माना और उसे ही ब्राह्मणत्व का आधार बताया। 'उत्तराध्ययन' के पच्चीसवें अध्याय एवं 'धम्मपद' के ब्राह्मण वर्ग नामक अध्याय में सच्चा ब्राह्मण कौन है? इसका सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। विस्तार भय से उसकी समग्र चर्चा में न जाकर केवल एक दो पद्यों को प्रस्तुत कर ही विराम लेंगे। 'उत्तराध्ययन' में बताया गया है कि 'जो जल में उत्पन्न हुए कमल के समान भोगों में उत्पन्न होते हुए भी भोगों में लिप्त नहीं रहता, वही सच्चा ब्राह्मण है। जो राग, द्वेष और भय से मुक्त होकर अन्तर में विशुद्ध
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है, वही सच्चा ब्राह्मण है। 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि जैसे कमलपत्र पानी से अलिप्त होता है, जैसे आरे की नोक पर सरसों का दाना होता है, वैसे ही जो कामों में लिप्त नहीं होता, जिसने अपने दुःखों के भय को यहीं पर देख लिया है, जिसने जन्म-मरण के भार को उतार दिया है, जो सर्वथा अनासक्त है, जो मेधावी है, स्थितप्रज्ञ है, जो सन्मार्ग तथा कुमार्ग को जानने में कुशल है और जो निर्वाण की उत्तम स्थिति को पहुँच चुका है उसे ही मैं ब्राह्मण कहता हूँ। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन एवं बौद्ध दोनों परम्पराओं ने ही ब्राह्मणत्व की श्रेष्ठता को स्वीकार करते हुए भी ब्राह्मण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत की, जो श्रमण परम्परा के अनुकूल थी। फलतः न केवल जैन परम्परा एवं बौद्ध परम्परा में, वरन् हिन्दू परम्परा के महान् ग्रन्थ 'महाभारत' में भी ब्राह्मणत्व की यही परिभाषा दी गई है। जैन परम्परा के 'उत्तराध्ययन', बौद्ध परम्परा के 'धम्मपद' और 'महाभारत' के शान्तिपर्व में सच्चे ब्राह्मण के स्वरूप का जो विवरण मिलता है, वह न केवल वैचारिक साम्यता रखता है, वरन् उसमें शाब्दिक साम्यता भी बहुत अधिक है जो कि तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण है और इन परम्पराओं के पारस्परिक प्रभाव को स्पष्ट करता है।
यज्ञ का आध्यात्मिक अर्थ
जिस प्रकार ब्राह्मण की नई परिभाषा प्रस्तुत की गई उसी प्रकार यज्ञ को भी एक नए अर्थ में परिभाषित किया गया। महावीर ने न केवल हिंसक यज्ञों के विरोध में अपना मन्तव्य प्रस्तुत किया, वरन् उन्होंने यज्ञ की आध्यात्मिक एवं तपस्यापरक नई परिभाषा भी प्रस्तुत की । 'उत्तराध्ययन' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का सविस्तार विवेचन है। बताया गया है कि "तप अग्नि है, जीवात्मा अग्निकुण्ड है, मन, वचन और काया की प्रवृत्तियाँ ही कलछी (चम्मच) हैं और कर्मों (पापों) का नष्ट करना ही आहुति है, यही यज्ञ संयम से युक्त होने से शान्तिदायक और सुखकारक है। ऋषियों ने ऐसे ही यज्ञ की प्रशंसा की है।” ३.. ३. फलतः न केवल जैन-परम्परा में वरन् बौद्ध और वैदिक परम्पराओं में भी यज्ञ-याग के बाह्य पक्ष का खण्डन और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रण उपलब्ध होता है। बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययन में किया गया है। 'अंगुत्तरनिकाय' में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण ! ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन करने के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिये । हे ब्राह्मण ! इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इन्हें सम्मान प्रदान करें, इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करें। ये अग्नियाँ कौन-सी हैं, आह्वानीयाग्नि (आहनेय्यग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि (दक्खिणाय्यग्गि)। माँ-बाप को आह्वानीयाग्नि समझना चाहिये और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिये। श्रमण-ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिये और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। हे ब्राह्मण ! यह लकड़ियों की अग्नि तो कभी
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास जलानी पड़ती है, कभी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझानी पड़ती है, किन्तु ये अग्नियाँ तो सदैव और सर्वत्र पूजनीय हैं। इसी प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन में सहयोग करना बताया। श्रमणधारा के इस दृष्टिकोण के समान ही उपनिषदों एवं गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी है और यज्ञ की सामाजिक एवं आध्यात्मिक दृष्टि से विवेचना की गई है। सामाजिक सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है। निष्कामभाव से समाज की सेवा करना 'गीता' में यज्ञ का सामाजिक पहलू था। दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है। गीताकार कहता है कि योगीजन संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं अथवा इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं, दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहनेवाला वायु जो प्राण कहलाता है, उसके संकुचित होने', 'फैलने' आदि कर्मों को ज्ञान से प्रकाशित हई आत्म-संयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। घृतादि चिकनी वस्तु से प्रज्ज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेक-विज्ञान से उज्ज्वलता को प्राप्त हुई (धारणा-ध्यान समाधि रूप) उस आत्म-संयम-योगाग्नि में (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं। इस प्रकार जैनधर्म में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और वैदिक परम्परा में हुआ है। यही श्रमण परम्परा का हिन्दू-परम्परा को मुख्य अवदान था। स्नान आदि कर्मकाण्डों के प्रति आध्यात्मिक दृष्टिकोण
जैन विचारकों ने बाह्य कर्मकाण्ड सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की। बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और उपासना का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया। 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शान्त, निर्मल और शुद्ध हो जाती है। इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन,वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है। न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है। इस प्रकार श्रमणों के इस चिन्तन का प्रभाव वैदिक या हिन्दू परम्परा पर भी हुआ।
इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जानेवाली दक्षिणा के प्रति एक नई दृष्टि प्रदान की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा, संयम ही श्रेष्ठ है। 'उत्तराध्ययन' में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान करने की अपेक्षा भी जो बाह्य रूप से दान नहीं करता वरन् संयम का पालन करता है,उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है। 'धम्मपद' में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि वर्षों तक हजारों की दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे
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तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ । ' इस प्रकार जैनधर्म ने तत्कालीन कर्मकाण्डात्मक मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया, साथ ही धर्म - साधना का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था, उसे आध्यात्मिक संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया। इससे उस युग के वैदिक चिन्तन में एक क्रान्तिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ। इस प्रकार वैदिक संस्कृति को रूपान्तरित करने का श्रेय सामान्य रूप से श्रमण परम्परा को और विशेष रूप से जैन - परम्परा को है ।
अर्हत् ऋषि परम्परा का सौहार्दपूर्ण इतिहास
प्राकृत साहित्य में 'ऋषिभाषित' (इसिभासियाई) और पालि साहित्य में 'थेरगाथा' ऐसे ग्रन्थ हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि अति प्राचीनकाल में आचार और विचारगत विभिन्नताओं के होते हुए भी अर्हत् ऋषियों की समृद्ध परम्परा थी, जिनमें पारस्परिक सौहार्द था।
'ऋषिभाषित' जो कि प्राकृत जैन आगमों और बौद्ध पालिपिटकों में अपेक्षाकृत रूप से प्राचीन है और जो किसी समय जैन परम्परा का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना जाता था, यह अध्यात्मप्रधान श्रमणधारा के पारस्परिक सौहार्द और एकरूपता को सूचित करता है। यह ग्रन्थ आचारांग के प्रथम श्रुतस्कन्ध के पश्चात् तथा शेष सभी प्राकृत और पालि साहित्य के पूर्व ई० पू० लगभग चतुर्थ शताब्दी में निर्मित हुआ है। इस ग्रन्थ में निर्ग्रन्थ, बौद्ध, औपनिषदिक एवं आजीवक आदि अन्य श्रमण परम्पराओं के ४५ अर्हत् ऋषियों के उपदेश संकलित हैं। इसी प्रकार बौद्ध परम्परा के ग्रन्थ थेरगाथा में भी श्रमणधारा के विभिन्न ऋषियों के उपदेश एवं आध्यात्मिक अनुभूतियाँ संकलित हैं। ऐतिहासिक एवं अनाग्रही दृष्टि से अध्ययन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि न तो 'ऋषिभासित' (इसिभासियाइं) के सभी ऋषि जैन परम्परा के हैं और न थेरगाथा के सभी थेर (स्थविर) बौद्ध परम्परा के हैं। जहाँ 'ऋषिभाषित' में सारिपुत्र, वात्सीपुत्र ( वज्जीपुत्त) और महाकाश्यप बौद्ध परम्परा के हैं, वहीं उद्दालक, याज्ञवल्क्य, अरुण, असितदेवल, नारद, द्वैपायन, अंगिरस, भारद्वाज आदि औपनिषदिक धारा से सम्बन्धित हैं, तो संजय (संजय वेलट्ठिपुत्त), मंखली गोशालक, रामपुत्त आदि अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं से सम्बन्धित हैं । इसी प्रकार 'थेरगाथा' में वर्द्धमान आदि जैनधारा के, तो नारद आदि औपनिषदिक धारा के ऋषियों की स्वानुभूति संकलित है। सामान्यतया यह माना जाता है कि श्रमणधारा का जन्म वैदिकधारा की प्रतिक्रिया के रूप में हुआ, किन्तु इसमें मात्र आंशिक सत्यता है। यह सही है कि वैदिकधारा प्रवृत्तिमार्गी थी और श्रमणधारा निवृत्तिमार्गी । इनके बीच वासना और विवेक अथवा भोग और त्याग के जीवन मूल्यों का संघर्ष था । किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से तो श्रमण-धारा का उद्भव, मानव व्यक्तित्व के परिशोधन एवं नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रतिस्थापन का ही प्रयत्न था, जिसमें श्रमण-ब्राह्मण सभी सहभागी बने थे। 'ऋषिभाषित' में इन ऋषियों को अर्हत् कहना और 'सूत्रकृतांग' में इन्हें अपनी परम्परा से सम्मत मानना,
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास प्राचीनकाल में इन ऋषियों की परम्परा के बीच पारस्परिक सौहार्द का ही सूचक है। निम्रन्थ परम्परा का इतिहास
लगभग ई०पू० सातवीं-आठवीं शताब्दी का युग एक ऐसा युग था जब जनसमाज इन सभी श्रमणों, तपस्वियों, योग-साधकों एवं चिन्तकों के उपदेशों को आदरपूर्वक सुनता था और अपने जीवन को आध्यात्मिक एवं नैतिक साधना से जोड़ता था। फिर भी वह किसी वर्ग-विशेष या व्यक्ति-विशेष से बंधा हुआ नहीं था। दूसरे शब्दों में उस युग में धर्म परम्पराओं या धार्मिक सम्प्रदायों का उद्भव नहीं हुआ था। क्रमश: इन श्रमणों, साधकों एवं चिन्तकों के आसपास शिष्यों, उपासकों एवं श्रद्धालुओं का एक वर्तुल खड़ा हुआ। शिष्यों एवं प्रशिष्यों की परम्परा चली और उनकी अलग-अलग पहचान बनने लगी। इसी क्रम में निर्ग्रन्थ परम्परा का उद्भव हुआ। जहाँ पार्श्व की परम्परा के श्रमण अपने को पाश्र्थापत्य-निम्रन्थ कहने लगे, वहीं वर्द्धमान महावीर के श्रमण अपने को ज्ञात्रपुत्रीय निर्ग्रन्थ कहने लगे। सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का भिक्षु संघ शाक्यपुत्रीय श्रमण के नाम से पहचाना जाने लगा।
पार्श्व और महावीर की एकीकृत परम्परा निर्ग्रन्थ के नाम से जानी जाने लगी। जैन धर्म का प्राचीन नाम हमें निर्ग्रन्थ धर्म के रूप में ही मिलता है। जैन शब्द तो महावीर के निर्वाण के लगभग एक हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आया है। अशोक (ई० पू० तृतीय शताब्दी), खारवेल (ई०पू० द्वितीय शताब्दी) आदि के शिलालेखों में जैनधर्म का उल्लेख निम्रन्थ संघ के रूप में ही हुआ है। पार्श्व एवं महावीर की परम्परा
___'ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'सूत्रकृतांग' आदि से ज्ञात होता है कि पहले निम्रन्थ धर्म में नमि, बाहक, कपिल, नारायण (तारायण), अंगिरस, भारद्वाज, नारद आदि ऋषियों को भी, जो कि वस्तुत: उसकी परम्परा के नहीं थे, अत्यन्त सम्मानपूर्ण स्थान प्राप्त था। पार्श्व और महावीर के समान इन्हें भी अर्हत् कहा गया था, किन्तु जब निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय पार्श्व और महावीर के प्रति केन्द्रित होने लगा, तो इन्हें प्रत्येकबुद्ध के रूप में सम्मानजनक स्थान तो दिया गया, किन्तु अपरोक्ष रूप से अपनी परम्परा से पृथक् मान लिया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि ई०पू० पाँचवीं शती में निर्ग्रन्थ संघ पार्श्व और महावीर की परम्परा तक सीमित हो गया। यहाँ यह भी स्मरण रखना होगा कि प्रारम्भ में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ भी पृथक्-पृथक् ही थीं। यद्यपि उत्तराध्ययन एवं भगवती की सूचनानुसार महावीर के जीवनकाल में ही पार्श्व की परम्परा के कुछ श्रमण उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हो उनके संघ में सम्मिलित हुए थे, किन्तु महावीर के जीवन काल में महावीर और पार्श्व की परम्पराएँ पूर्णत: एकीकृत नहीं हो सकी। 'उत्तराध्ययन' में प्राप्त उल्लेख से ऐसा लगता है कि महावीर के निर्वाण के पश्चात् ही श्रावस्ती में महावीर के प्रधान शिष्य गौतम और
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वेदों एवं वैदिक परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों से इतना तो निर्विवाद रूप से सिद्ध हो जाता है कि वातरसना मुनियों एवं व्रात्यों के रूप में श्रमणधारा उस युग में भी जीवित थी जिसके पूर्व पुरुष ऋषभ थे। फिर भी आज ऐतिहासिक आधार पर यह बता पाना कठिन है कि ऋषभ की दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी विस्तृत मान्यताएँ क्या थीं और वे वर्तमान जैन परम्परा के कितनी निकट थीं, तो भी इतना निश्चित है कि ऋषभ संन्यास-मार्ग के आद्य प्रवर्तक के रूप में ध्यान और तप पर अधिक बल देते थे। प्राचीन जैन ग्रन्थों में यह तो निर्विवाद रूप से मान लिया गया है कि ऋषभ भगवान् महावीर के समान पंच महाव्रत रूप धर्म के प्रस्तोता थे और उनकी आचार व्यवस्था महावीर के अनुरूप ही थी। ऋषभ के उल्लेख ऋग्वेद से लेकर पराणों तक में उपलब्ध हैं। डॉ० राधाकृष्णन ने 'यजर्वेद' में ऋषभ के अतिरिक्त अजित और अरिष्टनेमि के नामों की उपलब्धि की बात कही है। हिन्दू 'पुराणों' और 'भागवत' में ऋषभ का जो जीवन चरित्र वर्णित है वह जैन परम्परा के अनुरूप है। बौद्ध ग्रन्थ 'अंगुतरनिकाय' में पूर्वकाल के सात तीर्थंकरों का उल्लेख किया है, उसमें अरक (अर) का भी उल्लेख है। इसी प्रकार 'थेरगाथा' में अजित थेर का उल्लेख है, उन्हें प्रत्येकबुद्ध कहा गया है। फिर भी मध्यवर्ती २२ तीर्थंकरों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्य अधिक नहीं हैं, उनके प्रति हमारी आस्था का आधार जैन आगम और जैन कथा ग्रन्थ ही हैं। महावीर और आजीवक परम्परा
___जैनधर्म के पूर्व-इतिहास की इस संक्षिप्त रूपरेखा देने के पश्चात् जब हम पुनः महावीर के काल की ओर आते हैं तो 'कल्पसूत्र' एवं 'भगवती' में कुछ ऐसे सूचना सूत्र मिलते हैं, जिनके आधार पर ज्ञातपुत्र श्रमण महावीर के पापित्यों के अतिरिक्त आजीवकों के साथ भी सम्बन्धों की पुष्टि होती है।
जैनागमों और आगमिक व्याख्याओं में यह माना गया है कि महावीर के दीक्षित होने के दूसरे वर्ष में ही मंखलीपुत्र गोशालक उनके निकट सम्पर्क में आया था, कुछ वर्ष
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास दोनों साथ भी रहे किन्तु नियतिवाद और पुरुषार्थवाद सम्बन्धी मतभेदों के कारण दोनों अलग-अलग हो गये। हरमन जेकोबी ने तो यह कल्पना भी की है कि महावीर की निम्रन्थ परम्परा में नग्नता. आदि जो आचार-मार्ग की कठोरता है, वह गोशालक की आजीवक परम्परा का प्रभाव है। यह सत्य है कि गोशालक के पूर्व भी आजीवकों की एक परम्परा थी, जिसमें अर्जुन आदि आचार्य थे। फिर भी ऐतिहासिक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि कठोर साधना की यह परम्परा महावीर से आजीवक परम्परा में गई या आजीवक गोशालक के द्वारा महावीर की परम्परा में आई। क्योंकि इस तथ्य का कोई प्रमाण नहीं है कि महावीर से अलग होने के पश्चात् गोशालक आजीवक परम्परा से जुड़ा था या वह प्रारम्भ में ही आजीवक परम्परा में दीक्षित होकर महावीर के पास आया था। फिर भी इतना निश्चित है कि ईसा की प्रथम-द्वितीय शताब्दी के बाद तक भी इस आजीवक परम्परा का अस्तित्व रहा है। यह निर्ग्रन्थों एवं बौद्धों की एक प्रतिस्पर्धी श्रमण परम्परा थी जिसके श्रमण भी जैनों की दिगम्बर शाखा के समान नग्न रहते थे। जैन और आजीवक दोनों परम्पराएँ प्रतिस्पर्धी होकर भी एक-दूसरे को अन्य परम्पराओं की अपेक्षा अधिक सम्मान देती थीं, इस तथ्य की पुष्टि हमें बौद्ध पिटक साहित्य में उपलब्ध व्यक्तियों के षट्विध वर्गीकरण से होती है। वहाँ निर्ग्रन्थों को अन्य परम्परा के श्रमणों से ऊपर और आजीवक परम्परा से नीचे स्थान दिया गया है। इस प्रकार आजीवकों के निर्ग्रन्थ संघ से जुड़ने एवं अलग होने की यह घटना निम्रन्थ परम्परा की एक महत्त्वपूर्ण घटना है। साथ ही निर्ग्रन्थों के प्रति अपेक्षाकृत उदार भाव दोनों संघों की आंशिक निकटता का भी सूचक है। निर्ग्रन्थ परम्परा में महावीर के जीवनकाल में हुए संघ-भेद
महावीर के जीवनकाल में निर्ग्रन्थ संघ की अन्य महत्त्वपूर्ण घटना महावीर के जामात कहे जानेवाले जामालि से उनका वैचारिक मतभेद होना और जामालि का अपने पाँच सौ शिष्यों सहित उनके संघ से अलग होना है। 'भगवती', 'आवश्यकनियुक्ति और परवर्ती ग्रन्थों में इस सम्बन्ध में विस्तृत विवरण उपलब्ध है। निर्ग्रन्थ संघ-भेद की इस घटना के अतिरिक्त हमें बौद्ध पिटक साहित्य में एक अन्य घटना का उल्लेख भी मिलता है जिसके अनुसार महावीर के निर्वाण होते ही उनके भिक्षुओं एवं श्वेत वस्त्रधारी श्रावकों में तीव्र विवाद उत्पन्न हो गया। निर्ग्रन्थ संघ के इस विवाद की सूचना बुद्ध तक भी पहुँचती है। किन्तु पिटक साहित्य में इस विवाद के कारण क्या थे, इसकी कोई चर्चा नहीं है। एक सम्भावना यह हो सकती है कि यह विवाद महावीर के उत्तराधिकारी के प्रश्न को लेकर हुआ होगा। श्वेताम्बर और दिगम्बर परम्पराओं में महावीर के प्रथम उत्तराधिकारी को लेकर मतभेद है। दिगम्बर परम्परा महावीर के पश्चात् गौतम को पट्टधर मानती है, जबकि श्वेताम्बर परम्परा सुधर्मा को। श्वेताम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण के समय गौतम को निकट के दूसरे ग्राम में किसी देवशर्मा ब्राह्मण को प्रतिबोध देने हेतु भेजने की जो घटना वर्णित है, वह भी इस प्रसंग में विचारणीय हो सकती है। किन्तु दूसरी सम्भावना यह भी हो सकती
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
२५ है कि बौद्धों ने जैनों के श्वेताम्बर एवं दिगम्बर सम्बन्धी परवर्ती विवाद को पिटकों के सम्पादन के समय महावीर के निर्वाण की घटना के साथ जोड़ दिया हो। मेरी दृष्टि में यदि ऐसा कोई विवाद घटित हुआ होगा तो वह महावीर के अचेल एवं सचेल श्रमणों के बीच हुआ होगा, क्योंकि पार्थापत्यों के महावीर के निर्ग्रन्थ संघ में प्रवेश के साथ ही उनके संघ में नग्न और सवस्त्र ऐसे दो वर्ग अवश्य ही बन गये होंगे और महावीर ने श्रमणों के इन दो वर्गों को सामायिक-चारित्र और छेदोपस्थापनीय-चारित्रधारी के रूप में विभाजित किया होगा। विवाद का कारण ये दोनों वर्ग ही रहे होंगे। मेरी दृष्टि में बौद्ध परम्परा में जिन्हें श्वेत वस्त्रधारी श्रावक कहा गया, वे वस्तुत: सवस्त्र श्रमण ही होंगे, क्योंकि बौद्ध परम्परा में श्रमण (भिक्षु) को भी श्रावक कहा जाता है, फिर भी इस सम्बन्ध में गम्भीर चिन्तन की आवश्कता है। महावीर के निर्ग्रन्थ संघ की धर्म प्रसार-यात्रा
भगवान् महावीर के काल में उनके निर्ग्रन्थ संघ का प्रभाव-क्षेत्र बिहार एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा उनके आसपास का प्रदेश ही था। किन्तु महावीर के निर्वाण के पश्चात् इन सीमाओं में विस्तार होता गया। फिर भी आगमों और नियुक्तियों की रचना तथा जैनधर्म के प्रारम्भिक-विकास-काल तक उत्तरप्रदेश, हरियाणा, पंजाब एवं पश्चिमी राजस्थान के कुछ भाग तक ही निर्ग्रन्थों के विहार की अनुमति थी। तीर्थङ्करों के कल्याण क्षेत्र भी यहीं तक सीमित थे। मात्र अरिष्टनेमि ही ऐसे तीर्थङ्कर हैं जिनका सम्बन्ध शूरसेन (मथुरा के आसपास के प्रदेश) के अतिरिक्त सौराष्ट्र से भी दिखाया गया है और उनका निर्वाण स्थल गिरनार पर्वत माना गया है। किन्तु आगमों में द्वारिका और गिरनार की जो निकटता वर्णित है वह यथार्थ स्थिति से भिन्न है। सम्भवत: अरिष्टनेमि और कृष्ण के निकट सम्बन्ध होने के कारण ही कृष्ण के साथ-साथ अरिष्टनेमि का सम्बन्ध भी द्वारिका से रहा होगा। अभी तक इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक साक्ष्यों का अभाव है। विद्वानों से अपेक्षा है कि इस दिशा में खोज करें।
जो कुछ ऐतिहासिक साक्ष्य मिले हैं उससे ऐसा लगता है कि निर्ग्रन्थ संघ अपने जन्म स्थल बिहार से दो दिशाओं में अपने प्रचार अभियान के लिए आगे बढ़ा। एक वर्ग दक्षिण-बिहार एवं बंगाल से उड़ीसा के रास्ते तमिलनाड़ गया और वहीं से उसने श्रीलंका
और स्वर्णदेश (जावा-सुमात्रा आदि) की यात्राएँ की। लगभग ई०पू० दूसरी शती में बौद्धों के बढ़ते प्रभाव के कारण निर्ग्रन्थों को श्रीलंका से निकाल दिया गया। फलत: वे पुनः तमिलनाडु में आ गये। तमिलनाडु में लगभग ई०पू० प्रथम-द्वितीय शती से ब्राह्मी लिपि में अनेक जैन अभिलेख मिलते हैं जो इस तथ्य के साक्षी हैं कि निर्ग्रन्थ संघ महावीर के निर्वाण के लगभग दो-तीन सौ वर्ष पश्चात् ही तमिल प्रदेश में पहुँच चुका था। मान्यता तो यह भी है कि आचार्य भद्रबाहु चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके दक्षिण गये थे। यद्यपि इसकी ऐतिहासिक प्रामाणिकता निर्विवाद रूप से सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि जो
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास अभिलेख घटना का उल्लेख करता है वह लगभग छठी-सातवीं शती का है। आज भी तमिल-जैनों की विपुल संख्या है और वे भारत में जैनधर्म के अनुयायियों की प्राचीनतम परम्परा के प्रतिनिधि हैं। ये नयनार एवं पंचमवर्णी के रूप में जाने जाते हैं। यद्यपि बिहार, बंगाल और उड़ीसा की प्राचीन जैन परम्परा कालक्रम में विलुप्त हो गयी है किन्तु सराक जाति के रूप में उस परम्परा के अवशेष आज भी शेष हैं। 'सराक' शब्द श्रावक का ही अपभ्रंश रूप है और आज भी इस जाति में रात्रि भोजन और हिंसक शब्दों जैसे काटो, मारो आदि के निषेध जैसे कुछ संस्कार शेष हैं। उपाध्याय ज्ञानसागरजी एवं कुछ श्वेताम्बर मुनियों के प्रयत्नों से सराक पुन: जैनधर्म की और लौटे हैं। उत्तर और दक्षिण के निर्ग्रन्थ श्रमणों में आचार-भेद
दक्षिण में गया निर्ग्रन्थ संघ अपने साथ विप्ल प्राकृत जैन साहित्य तो नहीं ले जा सका क्योंकि उस काल तक जैन साहित्य के अनेक ग्रन्थों की रचना ही नहीं हो पायी थी। वह अपने साथ श्रुत परम्परा से कुछ दार्शनिक विचारों एवं महावीर के कठोर आचारमार्ग को ही लेकर चला था, जिसे उसने बहुत काल तक सुरक्षित रखा। आज की दिगम्बर परम्परा का पूर्वज यही दक्षिणी अचेल निर्ग्रन्थ संघ हैं। इस सम्बन्ध में अन्य कुछ मुद्दे भी ऐतिहासिक दृष्टि से विचारणीय हैं। महावीर के अपने युग में भी उनका प्रभाव क्षेत्र मुख्यतया दक्षिण बिहार ही था जिसका केन्द्र राजगृह था, जबकि बौद्धों एवं पार्थापत्यों का प्रभाव क्षेत्र उत्तरी बिहार एवं पूर्वोत्तर उत्तर प्रदेश था, जिसका केन्द्र श्रावस्ती था। महावीर के अचेल निर्ग्रन्थ संघ और पापित्य सन्तरोत्तर (सचेल) निर्ग्रन्थ संघ के सम्मिलन की भूमिका भी श्रावस्ती में गौतम और केशी के नेतृत्व में तैयार हुई थी। महावीर के सर्वाधिक चातुर्मास राजगृह नालन्दा में होना और बुद्ध के श्रावस्ती में होना भी इसी तथ्य का प्रमाण है। दक्षिण का जलवायु उत्तर की अपेक्षा गर्म था, अत: अचेलता के परिपालन में दक्षिण में गये निर्ग्रन्थ संघ को कोई कठिनाई नहीं हुई जबकि उत्तर के निर्ग्रन्थ संघ में कुछ पार्थापत्यों के प्रभाव से और कुछ अति शीतल जलवायु के कारण यह अचेलता अक्षुण्ण नहीं रह सकी
और एक वस्त्र रखा जाने लगा। स्वभाव से भी दक्षिण की अपेक्षा उत्तर के निवासी अधिक सविधावादी होते हैं। बौद्धधर्म में भी बुद्ध के निर्वाण के पश्चात् सुविधाओं की माँग वात्सीपुत्रीय भिक्षुओं ने ही की थी, जो उत्तरी तराई क्षेत्र के थे। बौद्ध पिटक साहित्य में निर्ग्रन्थों को एक शाटक और आजीवकों को नग्न कहा गया है। यह भी यही सूचित करता है कि लज्जा और शीत निवारण हेतु उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ कम से कम एक वस्त्र तो रखने लग गया था। मथुरा में ईस्वी सन् प्रथम शताब्दी के आसपास की जैन श्रमणों की जो मर्तियाँ उपलब्ध हई हैं उनमें सभी में श्रमणों को कम्बल जैसे एक वस्त्र से युक्त दिखाया गया है। वे सामान्यतया नग्न रहते थे किन्तु भिक्षा या जनसमाज में जाते समय वह वस्त्र या कम्बल हाथ पर डालकर अपनी नग्नता छिपा लेते थे और अति शीत आदि की स्थिति में उसे ओढ़ भी लेते थे। आचारांग' के प्रथम श्रुतस्कंध आठवें अध्ययन में अचेल
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा श्रमणों के साथ-साथ एक, दो और तीन वस्त्र रखने वाले श्रमणों का उल्लेख है।
___ यह सुनिश्चित है कि महावीर बिना किसी पात्र के दीक्षित हुए थे। 'आचारांग' से उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले तो वे गृही पात्र का उपयोग कर लेते थे, किन्तु बाद में उन्होंने इसका भी त्याग कर दिया और पाणिपात्र हो गये अर्थात् हाथ में ही भिक्षा ग्रहण करने लगे। सचित्त जल का प्रयोग निषिद्ध होने से सम्भवत: सर्वप्रथम निम्रन्थ संघ में शौच के लिए जलपात्र का ग्रहण किया गया होगा, किन्तु भिक्षुओं की बढ़ती हुई संख्या और एक ही घर से प्रत्येक भिक्षु को पेट भर भोजन न मिल पाने के कारण आगे चलकर भिक्षा हेतु भी पात्र का उपयोग प्रारम्भ हो गया होगा। इसके अतिरिक्त बीमार और अतिवृद्ध भिक्षुओं की परिचर्या के लिए भी पात्र में आहार लाने और ग्रहण करने की परम्परा प्रचलित हो गई होगी । मथुरा में ईसा की प्रथम-द्वितीय शती की एक जैन श्रमण की प्रतिमा मिली है जो अपने हाथ में एक पात्र युक्त झोली और दूसरे में प्रतिलेखन (रजोहरण) लिए हुए है। इस झोली का स्वरूप आज श्वेताम्बर परम्परा में, विशेष रूप से स्थानकवासी और तेरापंथी परम्परा में प्रचलित झोली के समान है। यद्यपि मथुरा के अंकनों में हाथ में खुला पात्र भी प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त मथुरा के अंकन में मुनियों एवं साध्वियों के हाथ में मुख वस्त्रिका (मुँह-पत्ति) और प्रतिलेखन (रजोहरण) के अंकन उपलब्ध होते हैं। प्रतिलेखन के अंकन दिगम्बर परम्परा में प्रचलित मयूरपिच्छि और श्वेताम्बर परम्परा में प्रचलित रजोहरण दोनों ही आकारों में मिलते हैं। यद्यपि स्पष्ट साहित्यिक और पुरातात्त्विक साक्ष्य के अभाव में यह कहना कठिन है कि वे प्रतिलेखन मयूरपिच्छि के बने होते थे या अन्य किसी वस्तु के। दिगम्बर परम्परा में मान्य यापनीय ग्रन्थ मूलाचार और भगवती आराधना में प्रतिलेखन (पडिलेहण) और उसके गुणों का तो वर्णन है किन्तु यह स्पष्ट उल्लेख नहीं है कि वे किस वस्तु के बने होते थे। इस प्रकार ईसा की प्रथम शती के पूर्व उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में वस्त्र, पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन (रजोहरण) का प्रचलन था। सामान्यतया मुनि नग्न ही रहते थे और साध्वियों साड़ी पहनती थीं। मुनि वस्त्र का उपयोग विशेष परिस्थिति में मात्र शीत एवं लज्जा-निवारण हेत करते थे। मनियों के द्वारा सदैव वस्त्र धारण किये रहने की परम्परा नहीं थी। इसी प्रकार अंकनों में मुखवस्त्रिका भी हाथ में ही प्रदर्शित है, न कि वर्तमान स्थानकवासी और तेरापंथी परम्पराओं के अनुरूप मुख पर बंधी हुई दिखाई गई है। प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगम ग्रन्थ भी इन्ही तथ्यों की पुष्टि करते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में मुनि के जिन १४ उपकरणों का उल्लेख मिला है, वे सम्भवतः ईसा की दूसरी-तीसरी शती तक निश्चित हो गये थे। महावीर के पश्चात् निर्ग्रन्थ संघ में हुए संघ-भेद
महावीर के निर्वाण और मथुरा के अंकन के बीच लगभग पाँच सौ वर्षों के इतिहास से हमें जो महत्त्वपूर्ण सूचनाएँ मिलती हैं वे निह्रवों के दार्शनिक एवं वैचारिक
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास मतभेदों एवं संघ के विभिन्न गणों, शाखाओं, कुलों एवं सम्भोगों में विभक्त होने से सम्बन्धित हैं। 'आवश्यकनियुक्ति' सात निह्नवों का उल्लेख करती है, इनमें से जामालि
और तिष्यगुप्त तो महावीर के समय में हुए थे, शेष पाँच आषाढ़भूति,अश्वामित्र, गंग, रोहगुप्त और गोष्टमहिल महावीर निर्वाण के पश्चात् २१४ वर्ष से ५८४ वर्ष के बीच हुए। ये निह्नव किन्हीं दार्शनिक प्रश्नों पर निर्ग्रन्थ संघ की परम्परागत मान्यताओं से मतभेद रखते थे। किन्तु इनके द्वारा निर्ग्रन्थ संघ में किसी नवीन सम्प्रदाय की उत्पत्ति हई हो, ऐसी कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं होती। इस काल में निर्ग्रन्थ संघ में गण
और शाखा भेद भी हुए किन्तु वे किम दार्शनिक एवं आचार सम्बन्धी मतभेद को लेकर हुए थे, यह ज्ञात नहीं होता है। मेरी दृष्टि में व्यवस्थागत सुविधाओं एवं शिष्यप्रशिष्यों की परम्पराओं को लेकर ही ये गण या शाखा भेद हुए होंगे। यद्यपि 'कल्पसूत्र' स्थविरावली में षडुलक रोहगुप्त से त्रैराशिक शाखा निकलने का उल्लेख हुआ है। रोहगप्त त्रैराशिक मत के प्रवक्ता एक निहव माने गये हैं। अत: यह स्पष्ट है कि इन गणों एवं शाखाओं में कुछ मान्यता भेद भी रहे होंगे, किन्तु आज हमारे पास यह जानने का कोई साधन नहीं है।
'कल्पसूत्र' की स्थविरावली तुंगीयायन गोत्रीय आर्य यशोभद्र के दो शिष्यों माढर गोत्रीय सम्भूतिविजय और प्राची (पौर्वात्य) गोत्रीय भद्रबाहु का उल्लेख करती है। 'कल्पसूत्र' में गणों और शाखाओं की उत्पत्ति बताई गई है, जो एक ओर आर्य भद्रबाहु के शिष्य काश्यप गोत्रीय गोदास से एवं दूसरी ओर स्थूलिभद्र के शिष्यप्रशिष्यों से प्रारम्भ होती है। गोदास से गोदासगण की उत्पत्ति हुई और उसकी चार शाखाएँ ताम्रलिप्तिका, कोटिवर्षीया, पौण्ड्रवर्द्धनिका और दासीकाटिका निकली हैं । इसके पश्चात् भद्रबाह की परम्परा कैसे आगे बढ़ी, इस सम्बन्ध में 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली में कोई निर्देश नहीं है। इन शाखाओं के नामों से भी ऐसा लगता है कि भद्रबाहु की शिष्य परम्परा बंगाल और उड़ीसा से दक्षिण की ओर चली गई होगी। दक्षिण में गोदासगण का एक अभिलेख भी मिला है। अत: यह मान्यता समुचित ही है कि भद्रबाहु की परम्परा से ही आगे चलकर दक्षिण की अचेलक निम्रन्थ परम्परा का विकास हुआ। -.. श्वेताम्बर परम्परा पाटलिपुत्र की वाचना के समय भद्रबाहु के नेपाल में होने का उल्लेख करती है जबकि दिगम्बर परम्परा चन्द्रगुप्त मौर्य को दीक्षित करके उनके दक्षिण जाने का उल्लेख करती है। सम्भव है कि वे अपने जीवन के अन्तिम चरण में उत्तर से दक्षिण चले गये हों। उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ की परम्परा सम्भूतिविजय के प्रशिष्य स्थूलिभद्र के शिष्यों से आगे बढ़ी। 'कल्पसूत्र में वर्णित गोदासगण और उसकी उपर्युक्त चार शाखाओं को छोड़कर शेष सभी गणों, कुलों और शाखाओं का सम्बन्ध स्थूलिभद्र की शिष्य-प्रशिष्य परम्परा से ही है। इसी प्रकार दक्षिण का अचेल निर्ग्रन्थ
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा संघ भद्रबाहु की परम्परा से और उत्तर का सचेल निर्ग्रन्थ संघ स्थूलिभद्र की परम्परा से विकसित हुआ। इस संघ में उत्तर बलिस्सहगण, उद्धेहगण, कोटिकगण, चारणगण, मानवगण, वेसवाडियगण, उड्डवाडियगण आदि प्रमुख गण थे । इन गणों की अनेक शाखाएँ एवं कुल थे। 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली इन सबका उल्लेख तो करती है, किन्तु इसके अन्तिम भाग में मात्र कोटिकगण की वज्री शाखा की आचार्य परम्परा दी गई है जो देवर्द्धिक्षमाश्रमण (वीर निर्माण सं० ९८०) तक जाती है। स्थूलभद्र के शिष्य-प्रशिष्यों की परम्परा में उद्भूत जिन विभिन्न गणों, शाखाओं एवं कुलों की सूचना हमें ‘कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलती है उसकी पुष्टि मथुरा के अभिलेखों से हो जाती है जो ‘कल्पसूत्र' की स्थविरावली की प्रामाणिकता को सिद्ध करती हैं। दिगम्बर परम्परा में महावीर के निर्वाण से लगभग एक हजार वर्ष पश्चात् तक की जो पहाबली उपलब्ध है, एक तो वह पर्याप्त परवर्ती है दूसरे भद्रबाहु के नाम के अतिरिक्त उसकी पुष्टि का प्राचीन साहित्यिक
और अभिलेखीय कोई साक्ष्य नहीं है। भद्रबाहु के सम्बन्ध में भी जो साक्ष्य हैं, वे पर्याप्त परवर्ती हैं। अत: ऐतिहासिक दृष्टि से उनकी प्रामाणिकता पर प्रश्नचिह्न लगाये जा सकते हैं। महावीर के निर्वाण से ईसा की प्रथम एवं द्वितीय शताब्दी तक के जो महत्त्वपूर्ण परिवर्तन उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में हए, उन्हें समझने के लिए अर्द्धमागधी आगमों के अतिरिक्त मथुरा का शिल्प एवं अभिलेख हमारी बहुत अधिक मदद करते हैं। मथुरा शिल्प की विशेषता यह है कि तीर्थङ्कर प्रतिमाएँ नग्न हैं, मुनि नग्न होकर भी वस्त्र (कम्बल) से अपनी नग्नता छिपाये हुए हैं। वस्त्र के अतिरिक्त पात्र, झोली, मुखवस्त्रिका और प्रतिलेखन भी मुनि के उपकरणों में समाहित हैं। मुनियों के नाम, गण,शाखा, कुल आदि श्वेताम्बर परम्परा के 'कल्पसूत्र' की स्थविरावली से मिलते हैं। इस प्रकार ये श्वेताम्बर परम्परा की पूर्व स्थिति के सूचक हैं। जैनधर्म में तीर्थङ्कर प्रतिमाओं के अतिरिक्त स्तूप के निर्माण की परम्परा भी थी, यह भी मथुरा के शिल्प से सिद्ध हो जाता है। यापनीय या बोटिक संघ का उद्भव
- ईसा की द्वितीय शती में महावीर के निर्वाण के छ: सौ नौ वर्ष पश्चात् उत्तर भारत निर्ग्रन्थ संघ में विभाजन की एक अन्य घटना घटित हुई, फलत: उत्तर भारत का निर्ग्रन्थ संघ सचेल एवं अचेल ऐसे दो भागों में बँट गया। पार्थापत्यों के प्रभाव से आपवादिक रूप में एवं शीतादि के निवारणार्थ गृहीत हुए वस्त्र, पात्र आदि जब मुनि की अपरिहार्य उपधि बनने लगे, तो परिग्रह की इस बढ़ती हुई प्रवृत्ति को रोकने के प्रश्न पर आर्य कृष्ण और आर्य शिवभूति में मतभेद हो गया। आर्य कृष्ण जिनकल्प का उच्छेद बताकर गृहीत वस्त्र-पात्र को मुनिचर्या का अपरिहार्य अंग मानने लगे, जबकि आर्य शिवभूति ने इनके त्याग और जिनकल्प के आचरण पर बल दिया। उनका कहना था कि समर्थ के लिये जिनकल्प का निषेध नहीं मानना चाहिए। वस्त्र, पात्र का ग्रहण अपवाद मार्ग है, उत्सर्ग मार्ग तो अचेलता ही है। आर्य शिवभूति की उत्तर भारत की इस अचेल परम्परा को
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास श्वेताम्बरों ने बोटिक (भ्रष्ट) कहा। किन्तु आगे चलकर यह परम्परा यापनीय के नाम से ही अधिक प्रसिद्ध हुई। गोपाञ्चल में विकसित होने के कारण यह गोप्यसंघ नाम से भी जानी जाती थी। 'षटदर्शनसमुच्चय' की टीका में गुणरत्न ने गोप्यसंघ एवं यापनीयसंघ को पर्यायवाची बताया है । यापनीय संघ की विशेषता यह थी कि एक ओर यह श्वेताम्बर परम्परा के समान 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि अर्द्धमागधी आगम साहित्य को मान्य करता था जो कि उसे उत्तराधिकार में ही प्राप्त हुआ था, साथ ही वह सचेल, स्त्री और अन्यतैर्थिकों की मुक्ति को स्वीकार करता था। आगम साहित्य के वस्त्र-पात्र सम्बन्धी उल्लेखों को वह साध्वियों एवं आपवादिक स्थिति में मुनियों से सम्बन्धित मानता था, किन्तु दूसरी ओर वह दिगम्बर परम्परा के समान वस्त्र और पात्र का निषेध कर मुनि की नग्नता पर बल देता था। यापनीय मुनि नग्न रहते थे और पाणितलभोजी (हाथ में भोजन करनेवाले) होते थे। इनके आचार्यों ने उत्तराधिकार में प्राप्त आगमों से गाथायें लेकर शौरसेनी प्राकृत में अनेक ग्रन्थ बनाये। इनमें 'कषायप्राभृत', 'षट्खण्डागम', 'भगवती आराधना', 'मूलाचार' आदि प्रसिद्ध हैं।
दक्षिण भारत में अचेल निर्ग्रन्थ परम्परा का इतिहास ईस्वी सन् की तीसरी-चौथी शती तक अन्धकार में ही है । इस सम्बन्ध में हमें न तो विशेष साहित्यिक साक्ष्य ही मिलते हैं और न अभिलेखीय ही । यद्यपि इस काल के कुछ पूर्व के ब्राह्मी लिपि के अनेक गुफा अभिलेख तमिलनाडु में पाये जाते हैं, किन्तु वे श्रमणों या निर्माता के नाम के अतिरिक्त कोई जानकारी नहीं देते। तमिलनाडु में अभिलेख युक्त जो गुफायें हैं, वे सम्भवत: निर्ग्रन्थ के समाधिमरण ग्रहण करने के स्थल रहे होंगे। संगम युग के तमिल साहित्य से इतना अवश्य ज्ञात होता है कि जैन श्रमणों ने भी तमिल भाषा के विकास और समृद्धि में अपना योगदान दिया था। तिरूकुरल के जैनाचार्यकृत होने की भी एक मान्यता है। ईसा की चौथी शताब्दी में तमिल देश का यह निर्ग्रन्थ संघ कर्णाटक के रास्ते उत्तर की ओर बढ़ा, उधर उत्तर का निर्ग्रन्थ संघ सचेल (श्वेताम्बर) और अचेलक (यापनीय) इन दो भागों में विभक्त होकर दक्षिण में गया। सचेल श्वेताम्बर परम्परा राजस्थान, गुजरात एवं पश्चिमी महाराष्ट्र होती हुई उत्तर कर्नाटक पहुँची तो अचेल यापनीय परम्परा बुन्देलखण्ड एवं विदिशा होकर विंध्य और सतपुडा को पार करती हुई पूर्वी महाराष्ट्र से होकर उत्तरी कर्नाटक पहुँची। ईसा की पाँचवी शती में उत्तरी कनार्टक में मृगेशवर्मा के जो अभिलेख मिले हैं उनसे उस काल में जैनों के पाँच संघों के अस्तित्व की सूचना मिलती है-- १. निम्रन्थ संघ, २. मूल संघ, ३. यापनीय संघ, ४. कूचर्क संघ और ५. श्वेतपट महाश्रमण संघ। इसी काल में पूर्वोत्तर भारत में वटगोहली से प्राप्त ताम्रपत्र में पंचस्तूपान्वय के अस्तित्व की भी सूचना मिलती है। इस युग का श्वेतपट महाश्रमण संघ अनेक कुलों एवं शाखाओं में विभक्त था, जिसका सम्पूर्ण विवरण कल्पसूत्र एवं मथुरा के अभिलेखों से प्राप्त होता है।
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा महावीर के निर्वाण के पश्चात् से लेकर ईसा की पाँचवी शती तक एक हजार वर्ष की इस सुदीर्घ अवधि में अर्द्धमागधी आगम साहित्य का निर्माण एवं संकलन होता रहा है। अत: आज हमें जो आगम उपलब्ध हैं, वे न तो एक व्यक्ति की रचना हैं और न एक काल की। मात्र इतना ही नहीं, एक ही आगम में विविध कालों की सामग्री संकलित हैं। इस अवधि में सर्वप्रथम ई०पू० तीसरी शती में पाटलिपुत्र में प्रथम वाचना हुई, सम्भवत: इस वाचना में अंगसूत्रों एवं पार्थापत्य परम्परा के पूर्व साहित्य के ग्रन्थों का संकलन हुआ। पूर्व साहित्य के संकलन का प्रश्न इसलिये महत्त्वपूर्ण बन गया था कि पार्थापत्य परम्परा लुप्त होने लगी थी। इसके पश्चात् आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में मथुरा में और आर्य नागार्जुन की अध्यक्षता में वल्लभी में समानान्तर वाचनाएँ हुईं, जिनमें अंग, उपांग आदि
आगम संकलित हए। इसके पश्चात् वीर निर्वाण ९८० अर्थात् ई० सन् की पाँचवी शती में वल्लभी में देवर्द्धिक्षमाश्रमण के नेतृत्व में अन्तिम वाचना हुई। वर्तमान आगम इसी वाचना का परिणाम है। फिर भी देवर्द्धि इन आगमों के सम्पादक ही हैं, रचनाकार नहीं। उन्होंने मात्र ग्रन्थों को सुव्यवस्थित किया। इन ग्रन्थों की सामग्री तो उनके पहले की है। अर्धमागधी आगमों में जहाँ 'आचारांग' एवं 'सूत्रकृतांग' के प्रथम श्रुतस्कंध, 'ऋषिभाषित', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि प्राचीन स्तर के अर्थात् ई०पू० के ग्रन्थ हैं, वहीं 'समवायांग', वर्तमान ‘प्रश्नव्याकरण' आदि पर्याप्त परवर्ती अर्थात् लगभग ई०स० की पांचवीं शती के हैं। 'स्थानांग', 'अंतकृतदशा', 'ज्ञाताधर्मकथा' और 'भगवती' का कुछ अंश प्राचीन (अर्थात् ई० पू० का) है, तो कुछ पर्याप्त परवर्ती है। उपांग साहित्य में अपेक्षाकृत रूप में 'सूर्यप्रज्ञप्ति', 'राजप्रश्नीय', 'प्रज्ञापना' प्राचीन हैं। उपांगों की अपेक्षा भी छेद-सूत्रों की प्राचीनता निर्विवाद है। इसी प्रकार प्रकीर्णक साहित्य में अनेक ग्रन्थ ऐसे हैं, जो कुछ अंगों और उपांगों की अपेक्षा भी प्राचीन है। फिर भी सम्पूर्ण अर्धमागधी आगम साहित्य को अन्तिम रूप लगभग ई० सन् की छठी शती के पूर्वार्ध में मिला, यद्यपि इसके बाद भी इसमें कुछ प्रक्षेप और परिवर्तन हुए हैं। ईसा की छठी शताब्दी के पश्चात् से दसवींग्यारहवीं शताब्दी के मध्य तक मुख्यत: आगमिक व्याख्या साहित्य के रूप में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीकाएँ लिखी गईं। यद्यपि कुछ नियुक्तियाँ प्राचीन भी हैं। इस काल में इन आगमिक व्याख्याओं के अतिरिक्त स्वतंत्र ग्रन्थ भी लिखे गये। इस काल के प्रसिद्ध आचार्यों में सिद्धसेन, जिनभद्रगणि, शिवार्य, वट्टकेर, कुन्दकुन्द, अकलंक, समन्तभद्र, विद्यानन्द, जिनसेन, स्वयम्भ, हरिभद्र, सिद्धर्षि, शीलांक, अभयदेव आदि प्रमुख हैं। दिगम्बरों में तत्त्वार्थ की विविध टीकाओं और पुराणों के रचनाकाल का भी यही युग है। निम्रन्थ परम्परा में विभावों का प्रवेश (अ) हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था का जैनधर्म पर प्रभाव
मूलत: श्रमण परम्परा और जैनधर्म हिन्दू वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध खड़े हुए थे
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास किन्तु कालक्रम में बृहद् हिन्दू-समाज के प्रभाव से उसमें भी वर्ण एवं जाति सम्बन्धी अवधारणाएँ प्रविष्ट हो गईं। जैन परम्परा में जाति और वर्ण-व्यवस्था के उद्भव एवं ऐतिहासिक विकास का विवरण सर्वप्रथम 'आचारांगनियुक्ति' (लगभग ईस्वी सन् तीसरी शती) में प्राप्त होता है। उसके अनुसार प्रारम्भ में मनुष्य जाति एक ही थी। ऋषभ के द्वारा राज्य-व्यवस्था का प्रारम्भ होने पर उसके दो विभाग हो गये- १.शासक(स्वामी) २.शासित(सेवक) उसके पश्चात् शिल्प और वाणिज्य के विकास के साथ उसके तीन विभाग हो हुए - १. क्षत्रिय (शासक), २. वैश्य (कृषक और व्यवसायी) और ३. शूद्र (सेवक)। उसके पश्चात् श्रावक-धर्म की स्थापना होने पर अहिंसक, सदाचारी और धर्मनिष्ठ व्यक्तियों को ब्राह्मण (माहण) कहा गया। इस प्रकार क्रमश: चार वर्ण अस्तित्व में आए। इन चार वर्गों के स्त्री-पुरुषों के समवर्णीय अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोगों से सोलह वर्ण बने जिनमें सात वर्ण और नौ अन्तर वर्ण कहलाए। सात वर्ण में समवर्णीय स्त्री-पुरुष के संयोग से चार मूल वर्ण तथा ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्रिय स्त्री के संयोग से उत्पन्न, क्षत्रिय पुरुष एवं वैश्य स्त्री के संयोग से उत्पन्न और वैश्य पुरुष एवं शूद्र स्त्री के संयोग से उत्पन्न, ऐसे अनुलोम संयोग से उत्पन्न तीन वर्ण। 'आचारांगचूर्णि' (ईसा की ७वीं शती) में इसे स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि 'ब्राह्मण पुरुष एवं क्षत्राणी के संयोग से जो सन्तान उत्पन्न होती है वह उत्तम क्षत्रिय, शुद्ध क्षत्रिय या संकर क्षत्रिय कही जाती है, यह पाँचवाँ वर्ण है। इसी प्रकार क्षत्रिय पुरुष और वैश्य स्त्री से उत्पत्र सन्तान उत्तम वैश्य, शुद्ध वैश्य या संकर वैश्य कही जाती है, यह छठाँ वर्ण है तथा वैश्य पुरुष एवं शूद्र-स्त्री के संयोग से उत्पन्न सन्तान शुद्ध शूद्र या संकर शूद्र कही जाती है, यह सातवाँ वर्ण है। पुन: अनुलोम
और प्रतिलोम सम्बन्धों के आधार पर निम्नलिखित नौ अन्तर-वर्ण बने। ब्राह्मण पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अम्बष्ठ' नामक आठवाँ वर्ण उत्पन्न हआ, क्षत्रिय पुरुष और शूद्र स्त्री से 'उग्र' नामक नवाँ वर्ण हुआ, ब्राह्मण पुरुष और शूद्र स्त्री से 'निषाद' नामक दसवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, शूद्र पुरुष और वैश्य स्त्री से 'अयोग' नामक ग्यारहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, क्षत्रिय और ब्राह्मणी से 'सूत' नामक तेरहवाँ वर्ण हुआ, शूद्र पुरुष और क्षत्रिय स्त्री से 'क्षत्रा' (खन्ना) नामक चौदहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ, वैश्य पुरुष और ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'वेदेह' नामक पन्द्रहवाँ वर्ण उत्पन्न हुआ और शूद्र पुरुष तथा ब्राह्मण स्त्री के संयोग से 'चाण्डाल' नामक सोलहवाँ वर्ण हुआ। इसके पश्चात् इन सोलह वर्गों में परस्पर अनुलोम एवं प्रतिलोम संयोग से अनेक जातियाँ अस्तित्व में आयी।
उपरोक्त विवरण में हम यह देखते हैं कि जैनधर्म के आचार्यों ने भी काल-क्रम में जाति और वर्ण की उत्पत्ति के सन्दर्भ में हिन्दू परम्परा की व्यवस्थाओं को अपने ढंग से संशोधित कर स्वीकार कर लिया। लगभग सातवीं शती में दक्षिण भारत में हुए आचार्य जिनसेन ने लोकापवाद के भय से तथा जैनधर्म का अस्तित्व और सामाजिक सम्मान बनाये रखने के लिये हिन्दू वर्ण एवं जाति-व्यवस्था को इस प्रकार आत्मसात कर लिया कि
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
३३ इस सम्बन्ध में जैनों का जो वैशिष्ट्य था, वह प्राय: समाप्त हो गया। जिनसेन ने सर्वप्रथम यह बताया कि आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्षों (क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) की सृष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र हैं। इनके दो भेद हैं-कारु और अकारु। पुन: कारु के भी दो भेद हैं - स्पृश्य और अस्पृश्य। धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं
और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं ('आदिपुराण', १६/ १८४-१८६) शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू समाज-व्यवस्था से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्राय: मान्य किया। 'षट्प्राभृत' के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात् क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में 'स्थानांग' (३/२०२) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि-दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-जुंगित और व्याधादि कर्मजंगित लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैनधर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था फिर भी हिन्दू परम्परा के प्रभाव से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहँची कि एक ही जैनधर्म के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपात्ति करने लगे। शूद्र-जल का त्याग एक आवश्यक कर्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मन्दिर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। श्वेताम्बर शाखा की एक परम्परा में केवल ओसवाल जाति को ही दीक्षित करने और अन्य एक परम्परा में केवल बीसा ओसवाल को आचार्यपद देने की अवधारणा विकसित हो गई।
. इस प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन परम्परा में चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे, वहीं सातवीं-आठवीं शती में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि-दीक्षा और मोक्ष-प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, 'स्थानांग' में मात्र रोगी,भयार्त और नपंसक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जुंगति जैसे- चाण्डाल आदि और कर्म-जंगति जैसे-कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया। किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया, क्योंकि आगमों में हरिकेशबल, मेतार्य, मातंगमुनि आदि अनेक चाण्डालों के मुनि होने और मोक्ष प्राप्त
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास करने के उल्लेख हैं। (ब) जैनधर्म में मूर्तिपूजा तथा आडम्बरयुक्त कर्मकाण्ड का प्रवेश
यद्यपि जैनधर्म में मूर्ति और मंदिर निर्माण की परम्परा भगवान् महावीर के निर्वाण के लगभग सौ वर्ष पश्चात् नन्दों के काल से प्रारम्भ हो गई थी। हड़प्पा से प्राप्त एक नग्न कबन्ध जैन है या नहीं यह निर्णय कर पाना कठिन है, किन्तु लोहानीपुर पटना से प्राप्त मौर्यकालीन जिनप्रतिमा इस तथ्य का संकेत है कि जैन धर्म में मूर्ति उपासना की परम्परा रही है। तथापि उसमें यह सब अपनी सहवर्ती परम्पराओं के प्रभाव से आया है।
कर्मकाण्ड और आध्यात्मिक साधनाएँ प्रत्येक धर्म के अनिवार्य अंग हैं । कर्मकाण्ड उसका शरीर है और आध्यात्मिक उसका प्राण। भारतीय धर्मों में प्राचीन काल से ही हमें ये दोनों प्रकार की प्रवृत्तियाँ स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होती हैं। जहाँ प्रारम्भिक वैदिक परम्परा कर्म-काण्डात्मक अधिक रही है, वहाँ प्राचीन श्रमण परम्पराएँ साधनात्मक अधिक रही हैं। फिर भी इन दोनों प्रवृत्तियों को एक-दूसरे से पूर्णतया पृथक् रख पाना कठिन है। श्रमण-परम्परा में आध्यात्मिक और धार्मिक साधना के जो विधि-विधान बने थे, वे भी धीरे-धीरे कर्मकाण्ड के रूप में ही विकसित होते गये। अनेक आन्तरिक एवं बाह्य साक्ष्यों से यह सुनिश्चित हो जाता है कि इनमें अधिकांश कर्मकाण्ड वैदिक या ब्राह्मण परम्परा अथवा दूसरी अन्य परम्पराओं के प्रभाव से आये हैं।
जैन परम्परा मूलतः श्रमण परम्परा का ही एक अंग है और इसलिये यह अपने प्रारम्भिक रूप में कर्मकाण्ड की विरोधी एवं आध्यात्मिक साधना प्रधान रही है। मात्र यही नहीं 'उत्तराध्ययन' जैसे प्राचीन जैन ग्रन्थों में स्नान, हवन, यज्ञ आदि कर्मकाण्डों के विरोध से भी यही परिलक्षित होता है। जैसा हम पूर्व में बता चुके हैं कि उत्तराध्ययन की यह विशेषता है कि उसने धर्म के नाम पर किये जानेवाले इन कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों को एक आध्यात्मिक रूप प्रदान किया था। तत्कालीन ब्राह्मण वर्ग ने यज्ञ, श्राद्ध और तर्पण के नाम पर कर्मकाण्डों एवं अनुष्ठानों के माध्यम से सामाजिक शोषण की जो प्रक्रिया प्रारम्भ की थी, जैन परम्परा ने उसका खुला विरोध किया था। .. वस्तुत: वैदिक कर्मकाण्ड की विरोधी जनजातियों एवं भक्तिमार्गी परम्पराओं में धार्मिक अनुष्ठान के रूप में पूजा-विधि का विकास हुआ और श्रमण परम्परा में तपस्या और ध्यान का। समाज में यक्ष-पूजा के प्राचीनतम उल्लेख जैनागमों में उपलब्ध हैं। जनसाधारण में प्रचलित भक्तिमार्गी धारा का प्रभाव जैन और बौद्ध धर्मों पर भी पड़ा और उनमें तप, संयम एवं ध्यान के साथ-साथ जिन एवं बुद्ध की पूजा की भावना विकसित हुई। परिणामत: प्रथम स्तूप, चैत्य आदि के रूप में प्रतीक पूजा प्रारम्भ हुई, फिर सिद्धायतन (जिन-मन्दिर) आदि बने और बुद्ध एवं जिन-प्रतिमा की पूजा होने लगी, परिणामस्वरूप जिन-पूजा, दान आदि को गृहस्थ का मुख्य कर्तव्य माना गया।
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों जिन- पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गयी। हमें 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'भगवती' आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों 'स्थानांग' आदि में जिन-प्रतिमा एवं जिन-मन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और 'ज्ञाताधर्मकथा' में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं । यह सब बृहद् हिन्दू परम्परा का जैनधर्म पर प्रभाव है।
‘हरिवंशपुराण' में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है । स्मरण रहे कि प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है।
____ 'पद्मपुराण', “पंचविंशति'(पद्मनन्दिकृत ), 'आदिपुराण', 'हरिवंशपुराण', 'वसुनन्दि श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। 'भावसंग्रह' में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है।
डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत विवरण हिन्दू परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी पूजा वैष्णवौं की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहत कुछ रूप में इसका उल्लेख 'राजप्रश्नीय' में उपलब्ध है।
इस समय चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान था, उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन-पूजा सम्बन्धी जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' (प्रथम खण्ड), पृ० ३७१ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमश: विकास हुआ
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास है। यद्यपि पुष्प-पूजा प्राचीनकाल से ही प्रचलित है फिर भी यह जैन परम्परा के आत्यन्तिक अहिंसा सिद्धान्त से मेल नहीं खाती है। एक ओर तो पूजा-विधान का पाठ जिसमें होनेवाली एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित हो और दूसरी ओर पुष्प, जो स्वयं एकेन्द्रिय जीव है, उन्हें जिन-प्रतिमा को समर्पित करना कहाँ तक संगतिपूर्ण हो सकता है। वह प्रायश्चित्त पाठ निम्नलिखित है
ईयापथे प्रचलताद्य मया प्रमादात् , एकेन्द्रियप्रमुखजीवनिकायबाधा । निद्वर्तिता यदि भवेव युगान्तरेक्षा,
मिथ्या तदस्तु दुरितं गुरुभक्तितो मे ।। स्मरणीय है कि श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवन्दन में भी 'इरियाविहि विराहनाये' नामक पाठ बोला जाता है जिसका तात्पर्य है 'मैं चैत्यवन्दन के लिये जाने में हुई एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का प्रायश्चित्त करता हूँ। दूसरी ओर पूजा-विधानों में एवं होमों में पृथ्वी, वायु, अप, अग्नि और वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय जीवों की हिंसा का विधान, एक आन्तरिक अंसगति तो है ही। सम्भवतः हिन्दूधर्म के प्रभाव से ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी तक जैनधर्म में पूजा-प्रतिष्ठा सम्बन्धी अनेक कर्मकाण्डों का प्रवेश हो गया था। यही कारण है कि आठवीं शती में हरिभद्र को इनमें से अनेक का मुनियों के लिये निषेध करना पड़ा। हरिभद्र ने 'सम्बोधप्रकरण' में चैत्यों में निवास, जिन-प्रतिमा की द्रव्य-पूजा, जिन-प्रतिमा के समक्ष नृत्य, गान, नाटक आदि का जैनमुनि के लिये निषेध किया है। मात्र इतना ही नहीं, उन्होंने उसी ग्रन्थ में द्रव्य-पूजा को अशुद्ध पूजा भी कहा है।१०
____सामान्यत: जैन परम्परा में तपप्रधान अनुष्ठानों का सम्बन्ध कर्ममल को दूरकर मनुष्य के आध्यात्मिक गुणों का विकास और पाशविक आवेगों का नियन्त्रण रहा है। जिन-भक्ति और जिन-पूजा सम्बन्धी अनुष्ठानों का उद्देश्य भी -लौकिक उपलब्धियों एवं विघ्न-बाधाओं का उपशमन न होकर व्यक्ति का अपना आध्यात्मिक विकास ही है। जैन साधक स्पष्ट रूप से इस बात को दृष्टि में रखता है कि प्रभु की पूजा और स्तुति केवल भक्त के स्व-स्वरूप या निज गुणों की उपलब्धि के लिये है
जैन परम्परा का उद्घोष है- 'वन्दे तद्गुण लब्धये' अर्थात् वंदन का उद्देश्य परमात्मा के गुणों की उपलब्धि है। जिनदेव की एवं हमारी आत्मा तत्त्वत: समान है, अत: वीतराग के गुणों की उपलब्धि का अर्थ है स्वरूप की उपलब्धि। इस प्रकार जैन अनुष्ठान मूलत: आत्मविशुद्धि और स्वरूप की उपलब्धि के लिये है। जैन अनुष्ठानों में जिन गाथाओं या मन्त्रों का पाठ किया जाता है, उनमें भी अधिकांशत: तो पूजनीय के स्वरूप का ही बोध कराते हैं अथवा आत्मा के लिये पतनकारी प्रवृत्तियों का अनुस्मरण कराकर उनसे मुक्त होने की प्रेरणा देते हैं।
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास यात्रा
३७ यद्यपि जैन अनुष्ठानों की मूल प्रकृति अध्यात्मपरक है, किन्तु मनुष्य की यह एक स्वाभाविक कमजोरी है कि वह धर्म के माध्यम से भौतिक सुख-सुविधाओं की उपलब्धि चाहता है, साथ ही उनकी उपलब्धि में बाधक शक्तियों के निवर्तन के लिये भी धर्म से ही अपेक्षा रखता है। वह धर्म को इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट के शमन का साधन मानता है। मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति का यह परिणाम हुआ कि हिन्दूधर्म के प्रभाव से जैन परम्परा में भी अनुष्ठानों का आध्यात्मिक स्वरूप पूर्णतया स्थिर न रह सका, उसमें विकृति आयी। वस्तुत: इन्हीं विकृतियों के निराकरण के लिए स्थानकवासी अमूर्तिपूजक परम्परा अस्तित्व में आई। सत्य तो यह है कि जैनधर्म का अनुयायी आखिर वही मनुष्य है जो भौतिक जीवन में सुख-समृद्धि की कामना से मुक्त नहीं है। अत: जैन आचार्यों के लिये यह आवश्यक हो गया कि वे अपने उपासकों की जैनधर्म में श्रद्धा बनाये रखने के लिये जैनधर्म के साथ कुछ ऐसे अनुष्ठानों को भी जोड़ें, जो अपने उपासकों के भौतिक कल्याण में सहायक हों। निवृत्तिप्रधान, अध्यात्मवादी एवं कर्मसिद्धान्त में अटल विश्वास रखनेवाले जैनधर्म के लिये यह न्यायसंगत तो नहीं था, फिर भी यह एक ऐतिहासिक सत्य है कि उसमें यह प्रवृत्ति विकसित हुई, जिसका निराकरण आवश्यक था।
जैनधर्म का तीर्थङ्कर व्यक्ति के भौतिक कल्याण में साधक या बाधक नहीं हो सकता है, अत: जैन अनुष्ठानों में जिन-पूजा के साथ-साथ यक्ष-यक्षियों के रूप में शासनदेवता तथा देवी की पूजा की कल्पना विकसित हुई और यह माना जाने लगा कि तीर्थङ्कर अथवा अपनी उपासना से शासन देवता (यक्ष-यक्षी) प्रसन्न होकर उपासक का कल्याण करते हैं। शासनरक्षक देवी-देवताओं के रूप में सरस्वती, लक्ष्मी, अम्बिका, पद्मावती, चक्रेश्वरी, काली आदि अनेक देवियों तथा मणिभद्र, घण्टाकर्ण महावीर, पार्श्वयक्ष आदि यक्षों, दिक्पालों एवं अनेक क्षेत्रपालों (भैरवों) को जैन परम्परा में स्थान मिला। इन सबकी पूजा के लिये जैनों ने विभिन्न अनुष्ठानों को किंचित् परिवर्तन के साथ हिन्दू परम्परा से ग्रहण कर लिया। 'भैरव पद्मावतीकल्प' आदि ग्रन्थों से इसकी पुष्टि होती है। जिन-पूजा और प्रतिष्ठा की विधि में वैदिक परम्परा के अनेक ऐसे तत्त्व भी जुड़ गये जो जैन परम्परा के मूलभूत मन्तव्यों से भित्र हैं। आज हम यह देखते हैं कि जैन परम्परा में चक्रेश्वरी, पद्मावती, अम्बिका, घण्टाकर्ण महावीर, नाकोड़ा-भैरव, भोमियाजी, दिक्पाल, क्षेत्रपाल आदि की उपासना प्रमुख होती जा रही है। जैनधर्म में पूजा और उपासना का यह दूसरा पक्ष जो हमारे सामने आया, वह मूलत: हिन्दू या ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव ही है। जिन-पूजा एवं अनुष्ठान विधियों में अनेक ऐसे मन्त्र मिलते हैं जिन्हें ब्राह्मण परम्परा के तत्सम्बन्धी मन्त्रों का मात्र जैनीकरण कहा जा सकता है। उदाहरण के रूप में जिस प्रकार ब्राह्मण परम्परा में इष्ट देवता की पूजा के समय उसका आह्वान और विसर्जन किया जाता है, उसी प्रकार जैन परम्परा में भी पूजा के समय जिन के आह्वान और विसर्जन के मन्त्र बोले जाते हैं । यथा
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र अवतर अवतर संवोषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् अत्र मम सन्निहतो भवभव वषट् । ॐ ह्रीं णमो सिद्धाणं सिद्धपरमेष्ठिन् स्वस्थानं गच्छ गच्छ जः जः जः ।
ये मन्त्र जैन दर्शन की मूलभूत मान्यताओं के प्रतिकूल हैं , क्योंकि जहाँ ब्राह्मण परम्परा का यह विश्वास है कि आह्वान करने पर देवता आते हैं और विसर्जन करने पर चले जाते हैं । वहाँ जैन परम्परा में सिद्धावस्था को प्राप्त तीर्थङ्कर न तो आह्वान करने पर उपस्थित हो सकते हैं और न विसर्जन करने पर जा ही सकते हैं । पं० फूलचन्दजी ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में विस्तार से इसकी चर्चा की है तथा आह्वान एवं विसर्जन सम्बन्धी जैन मन्त्रों की ब्राह्मण मन्त्रों से समानता भी दिखाई है । तुलना कीजिये
आवाहनं नैव जानामि नैव जानामि पूजनम् । विसर्जनं न जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं द्रव्यहीनं तथैव च । तत्सर्व क्षम्यतां देव रक्ष रक्ष जिनेश्वर ।।२।।
- विसर्जनपाठ इसके स्थान पर ब्राह्मणधर्म में ये श्लोक उपलब्ध होते हैं
आवाहनं न जानामि न जानामि विसर्जनम् । पूजनं नैव जानामि क्षमस्व परमेश्वर ।।१।। मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं जनार्दन ।
यत्पूजितं मया देव परिपूर्ण तदस्तु मे ।।२।।
इसी प्रकार पंचोपचारपूजा, अष्टद्रव्यपूजा, यज्ञ का विधान, विनायक-यन्त्रस्थापना, यज्ञोपवीतधारण आदि भी जैन परम्परा के अनुकूल नहीं हैं। किन्तु जब पौराणिक धर्म का प्रभाव बढ़ने लगा तो पंचोपचारपूजा आदि विधियों का प्रवेश हुआ। दसवीं शती के अनन्तर इन विधियों को इतना महत्त्व प्राप्त हुआ कि पूर्व प्रचलित विधि गौण हो गयी। प्रतिमा के समक्ष रहने पर भी आह्वान सत्रिधिकरण, पूजन और विसर्जन क्रमश: पंचकल्याणकों की स्मृति के लिये व्यवहत होने लगे। पूजा को वैयावृत्य का अंग माना जाने लगा तथा एक प्रकार से इसे 'आहारदान' के तुल्य महत्त्व प्राप्त हुआ। इस प्रकार पूजा के समय सामायिक या ध्यान की मूल भावना में परिवर्तन हुआ और पूजा को अतिथिसंविभाग व्रत का अंग मान लिया गया। यह सभी ब्राह्मण परम्परा की अनुकृति ही है, यद्यपि इस सम्बन्ध में बोले जानेवाले मन्त्रों को निश्चित ही जैन रूप दे दिया गया
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा है। जिस परम्परा में एक वर्ग ऐसा हो जो तीर्थङ्कर के कवलाहार का भी निषेध करता हो वही तीर्थङ्कर की सेवा में नैवेद्य अर्पित करे, क्या यह सिद्धान्त की विडम्बना नहीं कही जायेगी? जैन परम्परा ने पूजा-विधान के अतिरिक्त संस्कार-विधि में भी हिन्दू-परम्परा का अनुसरण किया है।
. सर्वप्रथम आचार्य जिनसेन ने 'आदिपुराण' में हिन्दू संस्कारों को जैन-दृष्टि से संशोधित करके जैनों के लिये भी एक पूरी संस्कार-विधि तैयार की है। सामान्यतया हिन्दुओं में जो सोलह संस्कारों की परम्परा है, उसमें निवृत्तिमूलक परम्परा की दृष्टि से दीक्षा (संन्यासग्रहण) आदि कुछ संस्कारों की वृद्धि करके यह संस्कार-विधि तैयार की गयी है । इसमें गर्भान्वय क्रिया, दीक्षान्वय क्रिया और क्रियान्वय क्रिया ऐसे तीन विभाग किये गए हैं। इनमें गर्भ से लेकर निर्वाण पर्यन्त तक की क्रियाएँ बताई गई हैं। यह स्पष्ट है कि दिगम्बर परम्परा में जो संस्कार-विधि प्रचलित हुई वह बृहद् हिन्दू परम्परा से प्रभावित है। श्वेताम्बर परम्परा में किसी संस्कार-विधि का उल्लेख नहीं मिलता है, किन्तु व्यवहार में वे भी हिन्दू परम्परा में प्रचलित संस्कारों को यथावत् रूप में अपनाते हैं। उनमें आज भी विवाहादि संस्कार हिन्दू परम्परानुसार ही ब्राह्मण पण्डित के द्वारा सम्पन्न कराए जाते हैं। अत: स्पष्ट है कि विवाहादि संस्कारों के सम्बन्ध में भी जैन परम्परा पर हिन्दू परम्परा का स्पष्ट प्रभाव है।
वस्तुत: मन्दिर एवं जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि से सम्बन्धित अधिकांश अनुष्ठान ब्राह्मण परम्परा की देन हैं और उसकी मूलभूत प्रकृति कहे जा सकते हैं । किसी भी परम्परा के लिये अपनी सहवर्ती परम्परा से पूर्णतया अप्रभावित रह पाना कठिन है और इसलिये यह स्वाभाविक ही था कि जैन परम्परा की अनुष्ठान विधियों में ब्राह्मण परम्परा का प्रभाव आया, किन्तु श्रमण परम्परा के लिये यह विकृति रूप ही था। वस्तुत: मन्दिर और मूर्ति निर्माण के साथ चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का विकास हुआ। जिसके विरोध में संविग्न परम्परा और अमूर्तिपूजक परम्पराएँ अस्तित्व में आईं। चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का उदय
मूर्ति और मन्दिर निर्माण के साथ उनके संरक्षण और व्यवस्था का प्रश्न आया, फलतः दिगम्बर परम्परा में भट्टारक सम्प्रदाय और श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का विकास लगभग ईसा की पाँचवीं शती में हुआ। यद्यपि जिन-मन्दिर और जिन-प्रतिमा के निर्माण के पुरातात्त्विक प्रमाण मौर्यकाल से. तो स्पष्ट रूप से मिलने लगते हैं। शक और कुषाण युग में इसमें पर्याप्त विकास हुआ, फिर भी ईसा की ५ वीं शती से १२ वीं शती के बीच जैन शिल्प अपने सर्वोत्तम रूप को प्राप्त होता है। यह वस्तुतः चैत्यवास की देन है। दोनों परम्पराओं में इस युग में मुनि वनवास को छोड़कर चैत्यों, जिन मन्दिरों में रहने लगे थे। केवल इतना ही नहीं, वे इन चैत्यों की व्यवस्था भी करने
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास लगे थे। अभिलेखों से तो यहाँ तक सूचना मिलती है कि न केवल चैत्यों की व्यवस्था के लिए, अपितु मुनियों के आहार और तेलमर्दन आदि के लिये भी संभ्रान्त वर्ग से दान प्राप्त किये जाते थे। इस प्रकार इस काल में जैन साधु मठाधीश बन गये थे। फिर भी इस सुविधाभोगी वर्ग के द्वारा जैन दर्शन, साहित्य एवं शिल्प का जो विकास इस युग में हुआ उसकी सर्वोत्कृष्टता से इन्कार नहीं किया जा सकता। यद्यपि इस चैत्यवास में सुविधावाद के नाम पर जो शिथिलाचार विकसित हो रहा था उसका विरोध श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में हुआ। दिगम्बर परम्परा में चैत्यवास और भट्टारक परम्परा का विरोध सर्वप्रथम आचार्य कुन्दकुन्द के 'अष्टपाहुड'(लिंगपाहुड १-२२) में प्राप्त होता है। उनके पश्चात् आशाधर, बनारसीदास आदि ने भी इसका विरोध किया। श्वेताम्बर परम्परा में सर्वप्रथम आचार्य हरिभद्र ने इसके विरोध में लेखनी चलायी। 'सम्बोधप्रकरण' में उन्होंने. इन चैत्यवासियों के आगम विरुद्ध आचार की खुलकर अलोचना की, यहाँ तक कि उन्हें नरपिशाच भी कह दिया। चैत्यवास की इसी प्रकार की आलोचना आगे चलकर जिनेश्वरसूरि, जिनचन्द्रसूरि आदि खरतरगच्छ के अन्य आचार्यों ने भी की। ईस्वी सन् की दसवीं शताब्दी में खरतगच्छ का आविर्भाव भी चैत्यवास के विरोध में हुआ था, जिसका प्रारम्भिक नाम सविहित मार्ग या संविग्न पक्ष था। दिगम्बर परम्परा में इस युग में द्रविड़ संघ, माथुर संघ, काष्टा संघ आदि का उद्भव भी इसी काल में हुआ, जिन्हें दर्शनसार नामक ग्रन्थ में जैनाभास कहा गया ।
इस सम्बन्ध में पं० नाथूरामजी 'प्रेमी' ने अपने ग्रन्थ 'जैन साहित्य और इतिहास में 'चैत्यवास और वनवास' नामक शीर्षक के अन्तर्गत विस्तृत चर्चा की है। फिर भी उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर यह कहना कठिन है कि इन विरोधों के बावजूद जैन संघ इस बढ़ते हुए शिथिलाचार से मुक्ति पा सका। फिर भी यह विरोध जैनसंघ में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों के उद्भव का प्रेरक अवश्य बना। तन्त्र और भक्तिमार्ग का जैनधर्म पर प्रभाव
वस्तुत: गुप्तकाल से लेकर दसवीं और ग्यारहवीं शताब्दी तक का युग पूरे भारतीय समाज के लिए चरित्रबल के ह्रास और ललित कलाओं के विकास का युग है। यही काल है जब खजुराहो और कोणार्क के मन्दिरों में कामुक अंकन किये गये। जिन मन्दिर भी इस प्रभाव से अछूते नहीं रह सके। यही वह युग है जब कृष्ण के साथ राधा
और गोपियों की कथा को गढ़कर धर्म के नाम पर कामुकता का प्रदर्शन किया गया। इसी काल में तन्त्र और वाम मार्ग का प्रचार हुआ,जिसकी अग्नि में बौद्ध भिक्षु संघ तो पूरी तरह जल मरा किन्तु जैन भिक्षु संघ भी उसकी लपटों की झुलस से बच न सका। अध्यात्मवादी जैनधर्म पर भी तन्त्र का प्रभाव आया। हिन्दु परम्परा के अनेक देवी-देवताओं को प्रकारान्तर से यक्ष, यक्षी अथवा शासन देवियों के रूप में जैन देवमण्डल का सदस्य स्वीकार कर लिया गया। उनकी कृपा या उनसे लौकिक सुख-समृद्धि प्राप्त करने के लिये अनेक तान्त्रिक
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा विधि-विधान बने। जैन तीर्थङ्कर तो वीतराग था अत: वह न तो भक्तों का कल्याण कर सकता था न दुष्टों का विनाश, फलत: जैनों ने यक्ष-यक्षियों या शासन-देवता को भक्तों के कल्याण की जवाबदारी देकर अपने को युग-परम्परा के साथ समायोजित कर लिया।
इसी प्रकार भक्तिमार्ग का प्रभाव भी इस युग में जैन संघ पर पड़ा। तन्त्र एवं भक्तिमार्ग के संयुक्त प्रभाव से जिन-मन्दिरों में पूजा-यज्ञ आदि के रूप में विविध प्रकार के कर्मकाण्ड अस्तित्व में आये। वीतराग जिन-प्रतिमा की हिन्दू परम्परा की षोडशोपचार पूजा की तरह सत्रहभेदी पूजा की जाने लगी। न केवल वीतराग जिन-प्रतिमा को वस्त्राभूषणादि से सुसज्जित किया गया, अपितु उसे फल-नैवेद्य आदि भी अर्पित किये जाने लगे। यह विडम्बना ही थी कि हिन्दू देवी-देवताओं की पूजा-पद्धति के विवेकशून्य अनुकरण के द्वारा नवग्रह आदि के साथ-साथ तीर्थङ्कर या सिद्ध परमात्मा का भी आह्वान और विसर्जन किया जाने लगा। यद्यपि यह प्रभाव श्वेताम्बर परम्परा में अधिक आया था किन्तु दिगम्बर परम्परा भी इससे बच न सकी। विविध प्रकार के कर्मकाण्ड और मन्त्र-तन्त्र का प्रवेश उनमें भी हो गया था, जिन-मन्दिर में यज्ञ होने लगे थे। श्रमण परम्परा की वर्ण-मुक्त सर्वोदयी धर्म व्यवस्था का परित्याग करके उसमें शूद्र की मुक्ति के निषेध और शूद्र-जल त्याग पर बल दिया गया।
यद्यपि बारहवीं एवं तेरहवीं शती में हेमचन्द्र आदि अनेक समर्थ जैन दार्शनिक और साहित्यकार हुए, फिर भी जैन परम्परा में सहगामी अन्य धर्म परम्पराओं से जो प्रभाव आ गये थे, उनसे उसे मुक्त करने का कोई सशक्त और सार्थक प्रयास हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं होता। यद्यपि सुधार के कुछ प्रयत्नों एवं मतभेदों के आधार पर श्वेताम्बर परम्परा में तपागच्छ, अंचलगच्छ आदि अस्तित्व में आये और उनकी शाखा-प्रशाखाएँ भी बनी, फिर भी लगभग १५वीं शती तक जैन संघ इसी स्थिति का शिकार रहा। मध्ययुग में कला एवं साहित्य के क्षेत्र में जैनों का महत्त्वपूर्ण अवदान
__यद्यपि मध्यकाल जैनाचार की दृष्टि से शिथिलाचार एवं सुविधावाद का युग था, फिर भी कला और साहित्य के क्षेत्र में जैनों ने महनीय अवदान प्रदान किया। खजुराहो श्रवणबेलगोल, आबू (देलवाड़ा), तारंगा, रणकपुर, देवगढ़ आदि का भव्य शिल्प और स्थापत्य कला जो ९ वीं शती से १४ वीं शती के बीच में निर्मित हुई, आज भी जैन समाज का मस्तक गौरव से ऊँचा कर देती है। अनेक प्रौढ़ दार्शनिक एवं साहित्यिक ग्रन्थों की रचनाएँ भी इन्हीं शताब्दियों में हुईं। श्वेताम्बर परम्परा में हरिभद्र, अभयदेव, वादिदेवसूरि, हेमचन्द्र, मणिभद्र, मल्लिसेन, जिनप्रभ आदि आचार्य एवं दिगम्बर परम्परा में विद्यानन्दी, शाकटायन, प्रभाचन्द्र जैसे समर्थ विचारक भी इसी काल के हैं। मन्त्र-तन्त्र के साथ चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन आचार्य आगे आये। इस युग के भट्टारकों और जैन यतियों ने साहित्य एवं कलात्मक मन्दिरों का निर्माण तो
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास किया ही साथ ही चिकित्सा के माध्यम से जनसेवा के क्षेत्र में भी वे पीछे नहीं रहे। लोकाशाह के पूर्व की धर्मक्रान्तियाँ
भारतीय श्रमण परम्परा एक क्रान्तधर्मी परम्परा रही है। उसने सदैव ही स्थापित रूढ़ि एवं अन्धविश्वासों के प्रति क्रान्ति का स्वर मुखर किया है। इसके अनुसार वे परम्परागत धार्मिक रूढ़ियाँ जिनके पीछे कोई सार्थक प्रयोजन निहित नहीं है, धर्म के शव के समान है। शव पूजा या प्रतिष्ठा का विषय नहीं होता बल्कि विसर्जन का विषय होता है, अत: अन्ध और रूढ़िवादी परम्पराओं के प्रति क्रान्ति आवश्यक और अपरिहार्य होती है। श्रमण धर्मों अथवा जैनधर्म का प्रादुर्भाव इसी क्रान्ति दृष्टि के परिणामस्वरूप हुआ है। भगवान् ऋषभदेव ने अपने युग के अनुरूप लौकिक और आध्यात्मिक क्षेत्रों में अपनी व्यवस्थायें दी थी। परवर्ती तीर्थंकरों ने अपने युग और परिस्थिति के अनुरूप उसमें भी परिवर्तन किये। परिवर्तन और संशोधन का यह क्रम महावीर के युग तक चला। भगवान् महावीर ने भगवान पार्श्वनाथ के धर्ममार्ग और आचार-व्यवस्था में अपने युग के अनुरूप विविध परिवर्तन किये। भगवान् महावीर ने जो आचार-व्यवस्था दी थी उसमें भी देश, काल और व्यक्तिगत परिस्थितियों के कारण कालान्तर में परिवर्तन आवश्यक हुए। फलत: जैनाचार्यों ने महावीर के साधना-मार्ग
और आचार-व्यवस्था को उत्सर्ग मार्ग मानते हुये अपवाद मार्ग के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के आधार पर नवीन मान्यताओं को स्थान दिया । अपवाद मार्ग की सृजना के साथ जो सुविधावाद जैन संघ में प्रविष्ट हुआ वह कालान्तर में आचार शैथिल्य का प्रतीक बन गया । उस आचार शैथिल्य के प्रति भी युग-युग में सुविहित मार्ग के समर्थक आचार्यों ने धर्मक्रान्तियाँ या क्रियोद्धार किये।
जैनधर्म एक गत्यात्मक धर्म है। अपने मूल तत्त्वों को संरक्षित रखते हुये उसने देश, काल और परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ-साथ अपनी व्यवस्थाओं में भी परिवर्तन स्वीकार किया। अत: विभिन्न परम्पराओं के जैन आचार्यों के द्वारा की गयी धर्मक्रान्तियाँ जैनधर्म के लिए कोई नई बात नहीं थी, अपितु इसकी क्रान्तधर्मी विचारदृष्टि का ही परिणाम था। लोकाशाह के पूर्व भी धर्मक्रान्तियाँ हुई थीं। उन धर्मक्रान्तियों या क्रियोद्धार की घटनाओं का हम संक्षिप्त विवरण यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं.... जैसाकि पूर्व में संकेत किया गया है कि भगवान महावीर ने भी भगवान् पार्श्वनाथ की आचार-व्यवस्था को यथावत् रूप में स्वीकार नहीं किया था। यह ठीक है कि भगवान् पार्श्वनाथ और भगवान् महावीर की मूलभूत सिद्धान्तों में मौलिक अन्तर न हो, किन्तु उनकी आचार-व्यवस्थायें तो भिन्न-भिन्न रही ही हैं जिनका जैनागमों में अनेक स्थानों पर निर्देश प्राप्त होता है। महावीर की परम्परा में इन दोनों महापुरुषों की आचार-व्यवस्थाओं का समन्वय प्रथमत: सामायिक चारित्र और छेदोपस्थापनीय चारित्र (पञ्चमहाव्रतारोपण) के रूप में हुआ। फलतः मुनि आचार में एक द्विस्तरीय व्यवस्था की गई। भगवान् महावीर
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा के द्वारा स्थापित यह आचार-व्यवस्था बिना किसी मौलिक परिवर्तन के भद्रबाहु के युग तक चलती रही, किन्तु उसमें भी देश कालगत परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ आंशिक परिवर्तन तो अवश्य ही आये। उन परिस्थितिजन्य परिवर्तनों को मान्यता प्रदान करने हेतु आचार्य भद्रबाहु को निकल्प और स्थविरकल्प तथा उत्सर्ग-मार्ग और अपवाद मार्ग के रूप में पुन: एक द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्वीकृति देनी पड़ी। आचार्य भद्रबाहु के प्रशिष्य और स्थूलिभद्र के शिष्य आर्य महागिरि एवं आर्य सुहस्ती के काल में जैनधर्म में जिनकल्प और स्थविरकल्प - ऐसी दो व्यवस्थायें स्वीकृत हो चुकी थीं। वस्तुतः यह द्विस्तरीय आचार व्यवस्था इसलिए भी आवश्यक हो गयी थी कि जिनकल्प का पालन करते हुये आत्म-साधना तो सम्भव थी, किन्तु संघीय व्यवस्थाओं से और विशेष रूप से समाज से जुड़कर जैनधर्म के प्रसार और प्रचार का कार्य जिनकल्प जैसी कठोर आचारचर्या द्वारा सम्भव नहीं था। अतः मुनिजन अपनी सुविधा के अनुरूप स्थविरकल्प और जिनकल्प में से किसी एक का पालन करते थे। फिर भी इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था के परिणामस्वरूप संघ में वैमनस्य की स्थिति का निर्माण नहीं हो पाया था। आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ति के काल तक संघ में द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था होते हुए भी सौहार्द बना रहा, किन्तु कालान्तर में यह स्थिति सम्भव नहीं रह पायी । जहाँ जिनकल्पी अपने कठोर आचार के कारण श्रद्धा के केन्द्र थे वहीं दूसरी ओर स्थविरकल्पी संघ या समाज से जुड़े होने के कारण उस पर अपना वर्चस्व रख रहे थे। आगे चलकर वर्चस्व की इस होड़ में जैनधर्म भी दो वर्गों में विभाजित हो गया, जो श्वेताम्बर और दिगम्बर नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध हुये।
आचार्य भद्रबाहु के द्वारा रचित 'निशीथ', 'दशाश्रुतस्कन्ध', 'बृहत्कल्प' एवं 'व्यवहारसूत्र' में उत्सर्ग और अपवाद के रूप में अथवा जिनकल्प और स्थविरकल्प के रूप में इस द्विस्तरीय आचार-व्यवस्था को स्पष्ट रूप से मान्यता प्रदान की गयी है। जहाँ मूल आगम ग्रन्थों में अपवाद के क्वचित ही निर्देश उपलब्ध होते हैं वहाँ इन छेदग्रन्थों में हमें अपवाद - मार्ग की विस्तृत व्याख्या भी प्राप्त होती है। आगे चलकर आर्यभद्र द्वारा रचित नियुक्तियों में जिनभद्रगणि द्वारा रचित 'विशेषावश्यक' आदि भाष्यों में और जिनदासमहत्तर रचित चूर्णियों में इस अपवाद - मार्ग का खुला समर्थन देखा जाता है।
यह सत्य है कि कोई भी आचार-व्यवस्था या साधना पद्धति अपवाद-मार्ग को पूरी तरह अस्वीकृत करके नहीं चलती । देश, कालगत परिस्थितियाँ कुछ ऐसी होती हैं जिसमें अपवाद को मान्यता देनी पड़ती है, किन्तु आगे चलकर अपवाद-मार्ग की यह व्यवस्था सुविधावाद और आचार शैथिल्यता का कारण बनती है जो सुविधा मार्ग से होती हुई आचार शैथिल्यता की पराकाष्ठा तक पहुँच जाती है। जैन संघ में ऐसी परिस्थितियाँ अनेक बार उत्पन्न हुईं और उनके लिए समय-समय पर जैनाचार्यों को
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धर्मक्रान्ति या क्रियोद्धार करना पड़ा।
आचार-व्यवस्था को लेकर विशेष रूप से सचेल और अचेल साधना के सन्दर्भ में प्रथम विवाद वी०नि०सं० ६०६ या ६०९ तदनुसार विक्रम की प्रथम द्वितीय शताब्दी में हुआ। यह विवाद मुख्यतया आर्य शिवभूति और आर्य कृष्ण के मध्य हुआ था। जहाँ आर्य शिवभूति ने अचेल पक्ष को प्रमुखता दी, वहीं आर्य कृष्ण सचेल पक्ष के समर्थक रहे । आर्य शिवभूति की आचार क्रान्ति के परिणामस्वरूप उत्तर भारत के निर्ग्रन्थ संघ में बोटिक या यापनीय परम्परा का विकास हुआ जिसने आगमों और स्त्रीमुक्ति को स्वीकार करते हुये भी यह माना कि साधना का उत्कृष्ट मार्ग तो अचेल धर्म ही है।
लोगों के भावनात्मक और आस्थापरक पक्ष को लेकर महावीर के पश्चात् कालान्तर में जैनधर्म में मूर्तिपूजा का विकास हुआ। यद्यपि महावीर के निर्वाण के १५० वर्ष के पश्चात् से ही जैनधर्म में मूर्तिपूजा के प्रमाण मिलने प्रारम्भ हो जाते हैं। लोहानीपुर पटना से मिली जिनप्रतिमाएँ और कंकाली टीला मथुरा से मिली जिनप्रतिमायें इस तथ्य के प्रबल प्रमाण हैं कि ईसा पूर्व ही जैनों में मूर्तिपूजा की परम्परा अस्तित्व में आ गयी थी। यहाँ हम मूर्तिपूजा सम्बन्धी पक्ष-विपक्ष की इस चर्चा में न पड़कर तटस्थ दृष्टि से यह देखने का प्रयत्न करेंगे कि कालक्रम से जैनधर्म की मूर्तिपूजा में अन्य परम्पराओं के प्रभाव से कैसे-कैसे परिवर्तन हुए और उसका मुनिवर्ग के जीवन पर क्या और कैसा प्रभाव पड़ा ? मन्दिर और मूर्तियों के निर्माण के साथ ही जैन साधुओं की आचार शैथिल्य को तेजी से बढ़ावा मिला तथा श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में मठ या चैत्यवासी और वनवासी ऐसी दो परम्पराओं का विकास हुआ। मन्दिर और मूर्ति के निर्माण तथा उसकी व्यवस्था हेतु भूमिदान आदि भी प्राप्त होने लगे और उनके स्वामित्व का प्रश्न भी खड़ा होने लगा। प्रारम्भ में जो दान सम्बन्धी अभिलेख या ताम्र पत्र मिलते हैं उनमें दान मन्दिर, प्रतिमा या संघ को दिया जाता था- • ऐसे उल्लेख हैं। लेकिन कालान्तर में आचार्यों के नाम पर दान पत्र लिखे जाने लगे। परिणामस्वरूप मुनिगण न केवल चैत्यवासी बन बैठे अपितु वे मठ, मन्दिर आदि की व्यवस्था से भी जुड़ गये। सम्भवतः यही कारण रहा है कि दान आदि उनके नाम से प्राप्त होने लगे। इस प्रकार मुनि जीवन में सुविधावाद और आचार शैथिल्य का विकास हुआ। आचार शैथिल्य ने श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में अपना आधिपत्य कर लिया। श्वेताम्बर में यह चैत्यवासी यति परम्परा के रूप में और दिगम्बर में मठवासी भट्टारक परम्परा के रूप में विकसित हुई । यद्यपि इस परम्परा ने जैनधर्म एवं संस्कृति को बचाये रखने में तथा जैनविद्या के सरंक्षण और समाज सेवा के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण कार्य किया । चिकित्सा के क्षेत्र में भी जैन यतियों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा, किन्तु दूसरी ओर सुविधाओं के उपभोग, परिग्रह के संचयन ने उन्हें अपने श्रमण जीवन से च्युत भी कर दिया। इस परम्परा के विरोध में दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द ने लगभग ६ठी शती में और श्वेताम्बर आचार्य हरिभद्र ने ८वीं शती में क्रान्ति के स्वर
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
मुखर लिये । आचार्य कुन्दकुन्द के द्वारा जो क्रान्ति की गयी वह मुख्य रूप से परम्परागत धर्म के स्थान पर आध्यात्मिक धर्म के सन्दर्भ में थी । यद्यपि उन्होंने 'अष्टपाहुड' में विशेष रूप से 'चारित्रपाहुड', 'लिंगपाहुड' आदि में आचार शैथिल्य के सन्दर्भ में भी अपने स्वर मुखरित किये थे, किन्तु ये स्वर अनसुने ही रहे, क्योंकि परवर्ती काल में भी यह भट्टारक परम्परा पुष्ट ही होती रही। आचार्य कुन्दकुन्द के पश्चात् उनके ग्रन्थों के प्रथम टीकाकार आचार्य अमृतचन्द्र जैनसंघ को एक आध्यात्मिक दृष्टि देने का प्रयत्न किया जिसका समाज पर कुछ प्रभाव पड़ा किन्तु भट्टारक परम्परा भी यथावत रूप में महिमामंडित होती रहा। इसी प्रकार श्वेताम्बर परम्परा में भी सुविहितमार्ग, संविग्नपक्ष आदि के रूप में ि परम्परा के विरोध में स्वर मुखरित हुये और खरतरगच्छ, तपागच्छ आदि अस्तित्व में भी आये, किन्तु ये सभी यति परम्परा के प्रभाव से अपने को अलिप्त नहीं रख सके ।
• श्वेताम्बर परम्परा में ८ वीं शती से चैत्यवास का विरोध प्रारम्भ हुआ था। आचार्य हरिभद्र ने अपने ग्रन्थ 'सम्बोधप्रकरण' के द्वितीय अध्याय में इन चैत्यवासी यतियों के क्रियाकलापों एवं आचार शैथिल्य पर तीखे व्यंग किये और उनके विरुद्ध क्रान्ति का शंखनाद किया, किन्तु युगीन परिस्थितियों के परिणामस्वरूप हरिभद्र की क्रान्ति के ये स्वर भी अनसुने ही रहे। यतिवर्ग सुविधावाद, परिग्रह संचय आदि की प्रवृत्तियों में यथावत जुड़ा रहा। हमें ऐसा कोई भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं होता जिसके आधार पर यह कहा जा सके कि आचार्य हरिभद्र की इस क्रान्तधर्मिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी यतियों पर कोई व्यापक प्रभाव पड़ा हो। श्वेताम्बर परम्परा में चैत्यवास का सबल विरोध चन्द्रकुल के आचार्य वर्द्धमानसूरि ने किया। उन्होंने चैत्यवास के विरुद्ध सर्वप्रथम सुविहित मुनि परम्परा की पुनः स्थापना की। यह परम्परा आगे चलकर खरतरगच्छ के नाम से विख्यात हुई । इनका काल लगभग ११वीं शताब्दी माना जाता है । यद्यपि सुविहित मार्ग की स्थापना से आगम पर आधारित मुनि आचार व्यवस्था को नया जीवन तो प्राप्त हुआ, किन्तु यति परम्परा नामशेष नहीं हो पायी। अनेक स्थलों पर श्वेताम्बर यतियों का इतना प्रभाव था कि उनके अपने क्षेत्रों में किसी अन्य सुविहित मुनि का प्रवेश भी सम्भव नहीं हो पाता था। चैत्यवासी यति परम्परा तो नामशेष नहीं हो पायी, अपितु हुआ यह कि उस यति परम्परा के प्रभाव से संविग्न मुनि परम्परा पुनः पुनः आक्रान्त होती रही और समय-समय पर पुनः क्रियोद्धार की आवश्यकता बनी रही। इस प्रकार हम देखते हैं कि श्वेताम्बर परम्परा में प्रत्येक सौ-डेढ़ सौ वर्ष के पश्चात् पुनः पुनः आचार शैथिल्य के विरुद्ध और संविग्न मार्ग की स्थापना के निमित्त धर्म क्रान्तियाँ होती रहीं । खरतरगच्छ की धर्मक्रान्ति के पश्चात् अंचलगच्छ एवं तपागच्छ के आचार्यों द्वारा पुनः क्रियोद्धार किया गया और आगम अनुकूल मुनि आचार की स्थापना के प्रयत्न वि० सं० १९१६९ में आचार्य आर्यरक्षित (अंचलगच्छ) तथा वि०सं० १२८५ में आचार्य जगच्चन्द्र (तपागच्छ) के द्वारा किया गया।
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास
इसी तरह एक अन्य प्रयत्न वि० सं० १२१४ या १२५० में आगमिकगच्छ एवं तपागच्छ की स्थापना के रूप में हुआ । आगमिकगच्छ ने न केवल चैत्यवास एवं यक्षयक्षी की पूजा का विरोध किया, अपितु सचित्त द्रव्यों से जिन - प्रतिमा की पूजा का भी विरोध किया। यहाँ हम देखते हैं कि दिगम्बर परम्परा में जहाँ बनारसीदास आदि के प्रभाव से लगभग १६ वीं शती में सचित्त द्रव्य से पूजन का विरोध हुआ, वहीं श्वेताम्बर परम्परा
दो शती पूर्व ही इस प्रकार का विरोध जन्म ले चुका था। यद्यपि आगमिकगच्छ अधिक जीवंत नहीं रह पाया और कालक्रम से उसका अन्त भी हो गया, फिर भी खरतरगच्छ, तपागच्छ और अंचलगच्छ अपने प्रभाव के कारण अस्तित्व में बने रहे। किन्तु ये तीनों परम्परायें भी चैत्यवासी- यतिवासी परम्परा से अप्रभावित नहीं रह सकीं। जिस संविग्न मुनि परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए जो ये परम्परायें अस्तित्व में आयी थीं, वे अपने उस कार्य में सफल नहीं हो सकीं। खरतरगच्छ, अंचलगच्छ और यहाँ तक कि तपागच्छ में भी यतियों का वर्चस्व स्थापित हो गया। मात्र यही नहीं मन्दिर और मूर्ति सम्बन्धी आडम्बर बढ़ता ही गया और श्रमण वर्ग जिसका लक्ष्य आत्म-साधना था, वह इन कर्मकाण्डों का पुरोहित होकर रह गया। तप और त्याग के द्वारा आत्मविशुद्धि का मार्ग मात्र आगमों में ही सीमित रह गया । यथार्थ जीवन से उनका कोई सम्बन्ध नहीं रह पाया । ऐसी स्थिति में पुनः एक समग्र क्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। चैत्यवास का विरोध और संविग्न सम्प्रदायों का आविर्भाव
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जैन परम्परा में परिवर्तन की लहर पुनः सोलहवीं शताब्दी में आयी। जब अध्यात्मप्रधान जैनधर्म का शुद्ध स्वरूप कर्मकाण्ड के घोर आडम्बर के आवरण में धूमिल हो रहा था और मुस्लिम शासकों के मूर्तिभंजक स्वरूप से मूर्तिपूजा के प्रति आस्थाएँ विचलित हो रही थीं, तभी मुसलमानों की आडम्बर रहित सहज धर्म साधना ने हिन्दुओं की भाँति जैनों को भी प्रभावित किया । हिन्दूधर्म में अनेक निर्गुण भक्तिमार्गी सन्तों के आविर्भाव के समान ही जैनधर्म में भी ऐसे सन्तों का आविर्भाव हुआ जिन्होंने धर्म के नाम पर कर्मकाण्ड और आडम्बरयुक्त पूजा-पद्धति का विरोध किया। फलतः जैनधर्म की श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही शाखाओं में सुधारवादी आन्दोलन का प्रादुर्भाव हुआ। इनमें श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में सन्त बारणस्वामी तथा बनारसीदास प्रमुख थे। यद्यपि बनारसीदास जन्मना श्वेताम्बर परम्परा के थे, किन्तु उनका सुधारवादी आन्दोलन दिगम्बर परम्परा से सम्बन्धित था। लोकाशाह ने श्वेताम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा तथा धार्मिक कर्मकाण्ड और आडम्बरों का विरोध किया। इनकी परम्परा आगे चलकर लोकागच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुई । इसी से आगे चलकर सत्रहवीं शताब्दी में श्वेताम्बर स्थानकवासी परम्परा विकसित हुई। जिसका पुनः एक विभाजन १८वीं शती में शुद्ध निवृत्तिमार्गी जीवनदृष्टि एवं अहिंसा की निषेधात्मक व्याख्या के आधार पर श्वेताम्बर तेरापंथ के रूप में हुआ।
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा
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दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास ने भट्टारक परम्परा के विरुद्ध अपनी आवाज बुलन्द की और सचित्त द्रव्यों से जिन - प्रतिमा के पूजन का निषेध किया, किन्तु तारणस्वामी तो बनारसीदास से भी एक कदम आगे थे। उन्होंने दिगम्बर परम्परा में मूर्तिपूजा का निषेध कर दिया। मात्र यही नहीं, उन्होंने धर्म के आध्यात्मिक स्वरूप की पुनः प्रतिष्ठा की। बनारसीदास की परम्परा जहाँ दिगम्बर तेरापंथ के नाम से विकसित हुई, वही तारणस्वामी का वह आन्दोलन तारणपंथ या समैया के नाम से पहचाना जाने लगा। तारणपंथ के चैत्यालयों में मूर्ति के स्थान पर शास्त्र की प्रतिष्ठा की गई। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी में जैन परम्परा में इस्लाम धर्म के प्रभाव के फलस्वरूप एक नया परिवर्तन आया और अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का जन्म हुआ। फिर भी पुरानी परम्पराएँ "यथावत चलती रहीं।
एक ओर अध्यात्म साधना, जो श्रमण संस्कृति की प्राण थी वह तत्कालीन यतियों के जीवन में कहीं भी दिखाई नहीं पड़ रही थी। धर्म कर्मकाण्डों से इतना बोझल बन गया था कि उसकी अन्तरात्मा दब-सी गयी थी। धर्म का सहज, स्वाभाविक स्वरूप विलुप्त हो रहा था और उसके स्थान पर धार्मिक कर्मकाण्डों के रूप में धर्म पर सम्पत्तिशाली लोगों का वर्चस्व बढ़ रहा था। धर्म के नाम पर केवल ऐहिक हितों की सिद्धि केही प्रयत्न हो रहे थे। दूसरी ओर इस्लाम के देश में सुस्थापित होने के परिणामस्वरूप एक आडम्बर विहीन सरल और सहज धर्म का परिचय जनसाधारण को प्राप्त हुआ। तीसरी ओर मन्दिर और मूर्ति जिस पर उस समय का धर्म अधिष्ठित था, मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा ध्वस्त किये जा रहे थे। ऐसी स्थिति में जनसाधारण को एक अध्यात्मपूर्ण, तप और त्यागमय, सरल, स्वाभाविक, आडम्बर और कर्मकाण्ड विहीन धर्म की अपेक्षा थी, जो मुस्लिम आक्रान्ताओं के द्वारा ध्वस्त उसके श्रद्धा केन्द्रों से उद्वेलित उसकी आत्मा को सम्यक् आधार दे सके।
अमूर्तिपूजक परम्पराओं का उद्भव
विक्रम की प्रथम सहस्राब्दी पूर्ण होते-होते इस देश पर मुस्लिम आक्रमण प्रारम्भ हो चुका था। उस समय मुस्लिम आक्रान्ताओं का लक्ष्य मात्र भारत से धन-सम्पदा को लूटकर जाना था, किन्तु धीरे-धीरे भारत की सम्पदा और उसकी उर्वर भूमि उनके आकर्षण का केन्द्र बनी और उन्होंने अपनी सत्ता को यहाँ स्थापित करने को प्रयत्न किया । सत्ता के स्थापन के साथ ही इस्लाम ने भी इस देश की मिट्टी पर अपने पैर जमाने प्रारम्भ कर दिये थे। यद्यपि मुस्लिम शासक भी एक-दूसरे को उखाड़ने में लगे हुये थे। एक ओर हुमायूँ और शेरशाह सूरि का संघर्ष चल रहा था, तो दूसरी ओर दिल्ली में मुस्लिम शासकों के वर्चस्व के कारण इस्लाम अपने पैर इस धरती पर जमा रहा था। मुस्लिम शासकों का लक्ष्य भी सत्ता और सम्पत्ति के साथ-साथ अपने धर्म की स्थापना बन गया था, क्योंकि वे जानते थे कि उनकी सल्तनत तभी कायम रह सकती है जब इस देश में इस्लाम की
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास सत्ता स्थापित हो। अत: मुस्लिम शासकों ने इस देश में इस्लाम को फैलाने और अपने पैर जमाने के लिए पर्याप्त सुविधाएँ प्रदान की। इस्लाम की स्थापना और उसके पैर जमने के साथ ही उसका सम्पर्क अन्य भारतीय परम्पराओं से हुआ। भारतीय चिन्तकों ने इस्लाम के सांस्कृतिक और धार्मिक पक्ष पर ध्यान देना प्रारम्भ किया। फलत: भारतीय जनमानस ने यह पाया कि इस्लाम कर्मकाण्ड से मुक्त एक सरल और सहज उपासना-विधि है। इस पारस्परिक सम्पर्क के परिणामस्वरूप देश में एक ऐसी सन्त परम्परा का विकास हुआ जिसने हिन्दूधर्म को कर्मकाण्डों से मुक्त कर एक सहज उपासना-पद्धति प्रदान की। हम देखते हैं कि १४वी, १५वीं और १६वीं शताब्दी में इस देश में निर्गण उपासना पद्धति का न केवल विकास हुआ, अपितु वह उपासना की एक प्रमुख पद्धति बन गई।
उस युग में भारतीय जनमानस कठोर जातिवाद और वर्णवाद से तो ग्रसित था ही साथ ही, धर्म के क्षेत्र में कर्मकाण्ड का प्रभाव इतना हो गया था कि धर्म में से आध्यात्मिक पक्ष गौण हो गया था और मात्र कर्मकाण्डों की प्रधानता रह गयी थी। एक ओर धर्म का सहज आध्यात्मिक स्वरूप विलुप्त हो रहा था तो दूसरी ओर धार्मिक मतान्धता और सत्ता बल को पाकर मुस्लिम शासक देश भर में मन्दिरों, मूर्तियों को तोड़ रहे थे और मन्दिरों की सामग्री से मस्जिदों का निर्माण कर रहे थे। इसका परिणाम यह हुआ कि मन्दिरों और मूर्तियों पर से लोगों की आस्था घटने लगी। मन्दिरों और मूर्तियों के विषय में जो महत्त्वपूर्ण किंवदंतियाँ प्रचलित थीं वह आँखों के सामने ही धूलधूसरित हो रही थी। मुस्लिम धर्म की सहज और सरल उपासना-पद्धति भारतीय जनमानस को आकर्षित कर रही थी। इस सबके परिणामस्वरूप भारतीय धर्मों में मूर्तिपूजा और कर्मकाण्ड के प्रति एक विद्रोह की भावना जाग्रत हो रही थी। अनेक सन्त यथा- कबीर, दादू, नानक, रैदास आदि हिन्दूधर्म में क्रान्ति का शंखनाद कर रहे थे। धर्म के नाम पर प्रचलित कर्मकाण्ड के प्रति लोगों के मन में समर्थन का भाव कम हो रहा था। यही कारण है कि इस काल में भारतीय संस्कृति में अनेक ऐसे महापुरुषों ने जन्म लिया जिन्होंने धर्म को कर्मकाण्ड से मुक्त कराकर लोगों को एक सरल, सहज और आडम्बर विहीन साधना-पद्धति दी।
जैनधर्म भी इस प्रभाव से अछूता नहीं रह सका। गुप्तकाल से जैनधर्म में "चैत्यवास के प्रारम्भ के साथ-साथ कर्मकाण्ड की प्रमुखता बढ़ती गयी थी। कर्मकाण्डों के शिकंजे में धर्म की मूल आत्मा मर चुकी थी। धर्म पंडों और परोहितों द्वारा शोषण का माध्यम बन गया था। सामान्य जनमानस खर्चीले, आडम्बरपूर्ण आध्यात्मिकता से शून्य कर्मकाण्ड को अस्वीकार कर रहे थे। ऐसी स्थिति में जैनधर्म के दोनों ही प्रमुख सम्प्रदायों में तीन विशिष्ट पुरुषों ने जन्म लिया । श्वेताम्बर परम्परा में लोकाशाह और दिगम्बर परम्परा में बनारसीदास तथा तारणस्वामी ।
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एक ओर मन्दिर और मूर्तियों का तोड़ा जाना और देश पर मुस्लिम शासकों का प्रभाव बढ़ना, दूसरी ओर कर्मकाण्ड से मुक्त सहज और सरल इस्लाम धर्म से हिन्दू और जैन मानस का प्रभावित होना, जैनधर्म में इन अमूर्तिपूजक धर्म-सम्प्रदायों की उत्पत्ति का किसी सीमा तक कारण माना जा सकता है। लोकाशाह का जन्म वि० सं० १४७५ के आस-पास हुआ। यद्यपि उस काल तक मुस्लिमों का साम्राज्य तो स्थापित नहीं हो सका था, किन्तु देश के अनेक भागों में धीरे-धीरे मुस्लिम शासकों ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया था। गुजरात भी इससे अछूता नहीं था। इस युग की दूसरी विशेषता यह थी कि अब तक इस देश में स्थापित मुस्लिम शासक साम्राज्य का स्वप्न देखने लगे थे, किन्तु उसके लिए आवश्यक था भारत की हिन्दू प्रजा को अपने विश्वास में लेना । अतः मोहम्मद तुगलक, बाबर, हुमायूँ आदि ने इस्लाम के प्रचार और प्रसार को अपना लक्ष्य रखकर भी हिन्दूओं को प्रशासन में स्थान देना प्रारम्भ किया, फलतः हिन्दू सामन्त और राज्य कर्मचारी राजा के सम्पर्क में आये । फलतः पर कर्मकाण्डमुक्त जाति-पाति के भेद से रहित और भ्रातृ-भाव से पूरित इस्लाम का अच्छा पक्ष भी उनके सामने आया जिसने यह चिन्तन करने पर बाध्य कर दिया कि यदि हिन्दूधर्म या जैनधर्म को बचाये रखना है तो उसको कर्मकाण्ड से मुक्त करना आवश्यक है। इसी के परिणामस्वरूप जैन परम्परा में अमूर्तिपूजक सम्प्रदायों का न केवल उद्भव हुआ, अपितु अनुकूल अवसर को पाकर वह तेजी से विकसित भी हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय में स्थानकवासी परम्परा का और दिगम्बर सम्प्रदाय में तारणपंथ के उदय के नेपथ्य में इस्लाम की कर्मकाण्ड मुक्त उपासना पद्धति का प्रभाव दिखता है। यद्यपि जैनधर्म की पृष्ठभूमि भी कर्मकाण्ड मुक्त ही रही है, अतः यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता है कि इन दो सम्प्रदायों की उत्पत्ति के पीछे मात्र इस्लाम का ही पूर्ण प्रभाव था ।
परम्परा के अनुसार यह मान्यता है कि लोकाशाह को मुस्लिम शासक ने न केवल अपने खजाञ्ची के रूप में मान्यता दी थी, अपितु उनके धार्मिक आन्दोलन को एक मूक स्वीकृति तो प्रदान की ही थी। लोकाशाह का काल मोहम्मद तुगलक की समाप्ति के बाद शेरशाह सूरि और बाबर का सत्ताकाल था । मुस्लिम बादशाह से अपनी आजीविका पाने के साथ-साथ हिन्दू अधिकारी मुस्लिम धर्म और संस्कृति से प्रभावित हो रहे थे। ऐसा लगता है कि अहमदाबाद के मुस्लिम शासक के साथ काम करते हुए उनके धर्म की अच्छाईयों का प्रभाव भी लोकाशाह पर पड़ा। दूसरी ओर उस युग में हिन्दू धर्म के समान जैनधर्म भी मुख्यतः कर्मकाण्डी हो गया था। धीरे-धीरे उसमें से धर्म का आध्यात्मिक पक्ष विलुप्त होता जा रहा था। चैत्यवासी यति कर्मकाण्ड के नाम पर अपनी आजीविका को सबल बनाने के लिए जनसामान्य का शोषण कर रहे थे। अपनी अक्षरों की सुन्दरता के कारण लोकाशाह को जब प्रतिलिपि करते समय आगम ग्रन्थों के अध्ययन का मौका मिला तो उन्होंने देखा कि आज जैन मुनियों के आचार में भी सिद्धान्त और व्यवहार में बहुत बड़ी खाई आ गयी है। साधकों के जीवन में आयी सिद्धान्त और
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास व्यवहार की यह खाई जनसामान्य की चेतना में अनेक प्रश्न खड़े कर रही थी। लोकाशाह के लिए यह एक अच्छा मौका था कि वे कर्मकाण्ड से मुक्त और आध्यात्मिक साधना से युक्त किसी धर्म परम्परा का विकास कर सकें।
लोकाशाह पूर्व जैन संघ की क्या स्थिति थी? इस सम्बन्ध में थोड़ा विचार पर्व में कर चुके हैं। लोकाशाह के पूर्व १४ वीं-१५वीं शती में जैन संघ मुख्य रूप से तीन सम्प्रदायों में विभक्त था- श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय। इसमें भी लगभग ५ वीं शती में अस्तित्व में आयी यापनीय परम्परा अब विलुप्ति के कगार पर थी। एक-दो भट्टारक गद्दियों के अतिरिक्त स्वतन्त्र रूप से उसका कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। अत: मूलत: श्वेताम्बर और दिगम्बर ये दो परम्परायें ही अस्तित्व में थी। जहाँ तक दिगम्बर परम्परा का प्रश्न है तो उस काल में मुनि और आर्या संघ का कोई अस्तित्व नहीं रह गया था। मात्र भट्टारकों की ही प्रमुखता थी, किन्तु भट्टारक त्यागी वर्ग के प्रतिनिधि होकर भी मुख्यत: मठवासी बने बैठे थे। मठ की सम्पत्ति की वृद्धि और उसका संरक्षण उनका प्रमुख कार्य रह गया था। उत्तर भारत और दक्षिण भारत दोनों में ही स्थान-स्थान पर भट्टारकों की गद्दियाँ थीं और धीरे-धीरे सामन्तों की तरह ये भी अपने क्षेत्रों और अनुयायियों पर अपना शासन चला रहे थे। भट्टारकों में भी अनेक संघ यथा- काष्ठा, माथुर, मूल, लाड़वागड़, द्रविड़ आदि थे। जो कि कुछ गण या गच्छों में विभाजित थे। जहाँ तक श्वेताम्बर परम्परा का प्रश्न है उसमें संविग्न और सुविहित मुनियों का पूर्ण अभाव तो नहीं हुआ था, फिर भी चैत्यवासी यतियों की ही प्रमुखता थी। समाज पर वर्चस्व यति वर्ग का ही था और उनकी स्थिति भी मठवासी भट्टारकों के समान ही थी। धार्मिक क्रियाकाण्डों के साथ यति वर्ग मन्त्र-तन्त्र और चिकित्सा आदि से जुड़ा हुआ था। यह मात्र कहने की दृष्टि से ही त्यागी वर्ग कहा जाता था। वस्तुत: आचार की अपेक्षा से उनके पास उस युग के अनुरूप भोग की सारी सुविधायें उपलब्ध होती थीं। यति वर्ग इतना प्रभावशाली था कि वे अपने प्रभाव से संविग्न एवं सुविहित मुनियों को अपने वर्चस्व क्षेत्र में प्रवेश करने से भी रोक देते थे।
इस्लाम के प्रभाव के साथ-साथ भट्टारकों एवं यतियों के आचार शैथिल्य एवं धर्माचरण के क्षेत्र में कर्मकाणडों का वर्चस्व ऐसी स्थितियाँ थीं कि जिसने लोकाशाह को धर्मक्रान्ति हेतु प्रेरणा दी। लोकाशाह ने मूर्तिपूजा, कर्मकाण्ड और आचार शैथिल्य का विरोध कर जैनधर्म को एक नवीन दिशा दी। उनकी इस साहसपूर्ण धर्मक्रान्ति का प्रभाव यह हुआ कि प्राय: सम्पूर्ण उत्तर-पश्चिम भारत में लाखों की संख्या में उनके अनुयायी बन गये। कालन्तर में उनके अनुयायियों का यह वर्ग गुजराती लोकागच्छ, नागौरी लोकागच्छ
और लाहौरी लोकागच्छ के रूप में तीन भागों में विभाजित हो गया, किन्तु श्वेताम्बर मूर्तिपूजक यति परम्परा के प्रभाव से शनै-शनै आचार शैथिल्य की ओर बढ़ते हुए इसने पुन: यति परम्परा का रूप ले लिया। फलत: लोकाशाह की धर्मक्रान्ति के लगभग १५०
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जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा वर्ष पश्चात् पुनः एक नवीन धर्मक्रान्ति की आवश्यकता अनुभव की जाने लगी। इसी लोकागच्छीय यति परम्परा में से निकल कर जीवराजजी, लवजीऋषिजी, धर्मसिंहजी, धर्मदासजी, मनोहरदासजी, हरजीस्वामीजी आदि ने पुन: एक धर्मक्रान्ति का उद्घोष किया और आगमसम्मत्त मुनि आचार पर विशेष बल दिया, फलत: स्थानकवासी सम्प्रदाय का उदय हुआ। स्थानकवासी परम्परा का उद्भव एवं विकास किसी एक व्यक्ति से एक ही काल में नहीं हुआ, अपितु विभिन्न व्यक्तियों द्वारा अलग-अलग समय में हुआ। अत: विचार और आचार के क्षेत्र में मतभेद बने रहे। जिसका परिणाम यह हुआ कि यह सम्प्रदाय अपने उदय काल से ही अनेक उप-सम्प्रदायों में विभाजित रहा। - १७वीं शताब्दी में इसी स्थानकवासी सम्प्रदाय से निकल कर रघुनाथजी के शिष्य भीखणजी स्वामी ने श्वेताम्बर तेरापंथ की स्थापना की। इनके स्थानकवासी परम्परा से पृथक् होने के मूलतः दो कारण रहे- एक ओर स्थानकवासी परम्परा के साधुओं ने भी यति परम्परा के समान ही अपनी-अपनी परम्परा के स्थानकों का निर्माण करवाकर उनमें निवास करना प्रारम्भ कर दिया तो दूसरी ओर भीखणजी स्वामी का आग्रह यह रहा कि दया व दान की वे सभी प्रवृत्तियाँ जो सावध हैं और जिनके साथ किसी भी रूप में हिंसा जुड़ी हुई है, चाहे वह हिंसा एकेन्द्रिय जीवों की हो, धर्म नहीं मानी जा सकती। कालान्तर में आचार्य भीखणजी का यह सम्प्रदाय पर्याप्त रूप से विकसित हुआ और आज जैनधर्म के एक प्रबुद्ध सम्प्रदाय के रूप में जाना पहचाना जाता है। इसे तेरापंथ के नवें आचार्य तुलसीजी और दसवें आचार्य महाप्रज्ञजी ने नई उचाईंयाँ दी हैं।
स्थानकवासी और तेरापंथ के उदय के पश्चात् क्रमश: वीसवीं शती के पूवार्ध, मध्य और उत्तरार्ध में विकसित जैनधर्म के सांस्कृतिक इतिहास की दृष्टि से जो तीन परम्पराएँ अति महत्त्वपूर्ण हैं, उनमें श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्मप्रधान परम्परा में विकसित 'कविपंथ', स्थानकवासी परम्परा से निकलकर बनारसीदास के दिगम्बर तेरापंथ को नवजीवन देनेवाले कानजीस्वामी का निश्चयनय प्रधान 'कानजी पंथ' तथा गुजरात के ए०एम० पटेल के द्वारा स्थापित दादा भगवान का सम्प्रदाय मुख्य है। यद्यपि ये तीनों सम्प्रदाय मूलत: जैनधर्म की अध्यात्मप्रधान दृष्टि को लेकर ही विकसित हुये। श्रीमद् राजचन्द्रजी जिन्हें महात्मा गाँधी ने गुरु का स्थान दिया था, जैनधर्म में किसी सम्प्रदाय की स्थापना की दृष्टि से नहीं, मात्र व्यक्ति के आध्यात्मिक जागरण की अपेक्षा से जनसाधारण को जैनधर्म के अध्यात्म प्रधान सारभूत तत्त्वों का बोध दिया। श्रीमद् राजचन्द्र आध्यात्मिक प्रज्ञासम्पन्न आशु कवि थे। अत: उनका अनुयायी वर्ग कविपंथ के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कानजीस्वामी कुन्दकुन्द के समयसार' आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर बनारसीदास और श्रीमद् राजचन्द्र की अध्यात्म प्रधान दृष्टि को ही जन-जन में प्रसारित करने का प्रयत्न किया, किन्तु जहाँ श्रीमद् राजचन्द्र ने निश्चय और व्यवहार दोनों पर समान बल
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स्थानकवासी जैन परम्परा का इतिहास दिया वहाँ कानजी स्वामी का दृष्टिकोण मूलत: निश्चय प्रधान रहा। दोनों की विचारधाराओं में यही मात्र मौलिक अन्तर माना जा सकता है। व्यक्ति की आन्तरिक विशद्धि और आध्यात्मिक विकास दोनों का ही मूल लक्ष्य है। ऐसा कहा जाता है कि श्री एम० के० पटेल को सन् १९५७ में ज्ञान का प्रकाश मिला और उन्होंने भी अपने उपदेशों के माध्यम से व्यक्ति के आन्तरिक विकारों की विशुद्धि पर ही विशेष बल दिया। फिर भी जहाँ कानजीस्वामी ने क्रमबद्ध पर्याय की बात कही वहाँ श्री एम० के० पटेल जो आगे चलकर दादा भगवान के नाम से प्रसिद्ध हुये ने अक्रम विज्ञान की बात कही। अक्रम विज्ञान का मूल अर्थ केवल इतना ही है कि आध्यात्मिक प्रकाश की यह घटना कभी भी घटित हो सकती है। आध्यात्मिक बोध कोई यांत्रिक घटना नहीं है। वह प्राकृतिक नियमों से भी ऊपर है। दादा भगवान की परम्परा का वैशिष्ट्य यह है कि उन्होंने अध्यात्म के क्षेत्र में जैन एवं हिन्दू परम्परा की समरूपता का अनुभव किया और इसी आधार पर जहाँ तीर्थङ्कर परमात्मा की आराधना को लक्ष्य बनाया वहीं वासुदेव और शिव को भी अपने आराध्य के रूप में स्वीकार किया। इस प्रकार उनकी परम्परा हिन्दू और जैन अध्यात्म का एक मिश्रण है। २०वीं शती में विकसित इन तीनों परम्पराओं का वैशिष्ट्य यह है कि वे विकास पर सर्वाधिक बल देती है। उनकी दृष्टि में आचार शुद्धि से पूर्व विचार शुद्धि या दृष्टि शुद्धि आवश्यक है। इन नवीन पृथक् भूत परम्पराओं के अतिरिक्त पूर्व प्रचलित परम्पराओं में भी ऐतिहासिक महत्त्व की अनेक घटनाएँ घटित हुईं। उनमें एक महत्त्वपूर्ण घटना यह है कि दिगम्बर परम्परा में जो नग्न मुनि परम्परा शताब्दियों से नामशेष या विलुप्त हो चुकी थी, वह आचार्य शान्तिसागरजी से पुनर्जीवित हुई। आज देश में पर्याप्त संख्या में दिगम्बर मुनि हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में इस शती में विभिन्न गच्छों और समुदायों के मध्य एकीकरण के प्रयास तो हुये, किन्तु वे अधिक सफल नहीं हो पाये। दूसरे इस शती में चैत्यवासी यति परम्परा प्राय: क्षीण हो गयी। कुछ यतियों को छोड़ यह परम्परा नामशेष हो रही है, वहीं संविग्न मुनि संस्था में धीरे-धीरे आचार शैथिल्य में वृद्धि हो रही है और कुछ संविग्न पक्षीय मुनि धीरे-धीरे यतियों के समरूप आचार करने लगे हैं। यह एक विचारणीय पक्ष है। स्थानकवासी समाज की दृष्टि से यह शती इसलिये महत्त्वपूर्ण कही जा सकती है कि इस शती में इस विकीर्ण समाज को जोड़ने के महत्त्वपूर्ण प्रयत्न हुये। अजमेर और सादड़ी घाणेराव में दो महत्त्वपूर्ण साधु सम्मेलन हुये जिनकी फलश्रुति के रूप में विभिन्न सम्प्रदायें एक-दूसरे के निकट आईं। सादड़ी सम्मेलन में गुजरात और मारवाड़ के कुछ सम्प्रदायों को छोड़कर समस्त स्थानकवासी मुनि संघ वर्द्धमान स्थानकवासी श्रमणसंघ के रूप में एक जुट हुआ, किन्तु कालान्तर में कुछ सम्प्रदाय पुनः पृथक् भी हये। इस शती में तेरापंथ सम्प्रदाय ने जैन धर्म-दर्शन से सम्बन्धित साहित्य का प्रकाशन कर महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। सामान्य रूप से यह शती आध्यात्मिक चेतना की जागृति के साथ जैन साहित्य के लेखन, सम्पादन, प्रकाशन और प्रसार की दृष्टि से अति महत्त्वपूर्ण
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रही है। साथ ही जैन धर्मानुयायी के विदेश गमन से इसे एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म होने का गौरव प्राप्त हुआ
है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म की सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति के आदिकाल से लेकर आज तक नवोन्मेष को प्राप्त होती रही है। वह एक गतिशील जीवन्त परम्परा के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के साथ समन्वय करते हुये उसने अपनी गतिशीलता का परिचय दिया है।
सन्दर्भ
१. 'उत्तराध्ययन', २५/२७,२१ ।
२. 'धम्मपद', ४०१-४०३ ।
३. 'उत्तराध्ययन', १२/४४ |
४. 'अंगुत्तरनिकाय', 'सुत्तनिपात', उद्धृत भगवान् बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी),
पृ० - २६ ।
५. 'भगवान् बुद्ध' (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ० - २३६-२३९ ।
६. 'गीता', ४ / ३३, २६-२८ ।
७. 'उत्तराध्ययन', १२/४६ ।
८. 'उत्तराध्ययन', ९/४०, देखिये- 'गीता' (शा० ) ४ / २६-२७ ।
९. 'धम्मपद', १०६ ।
१०. 'सम्बोधप्रकरण', गुर्वाधिकार ।
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जैनयोग : एक दार्शनिक अनुशीलन
अनिल कुमार सोनकर *
"भारतीय संस्कृति में जो कुछ भी शाश्वत है, जो कुछ भी उदात्त एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, वह सब तपस्या से ही सम्भूत है, तपस्या से ही इस राष्ट्र का ओज़ समुत्पन्न हुआ है...... तपस्या भारतीय दर्शनशास्त्र का ही नहीं, प्रत्युत उसके समस्त इतिहास का प्रस्तावना है..... प्रत्येक चिन्तनशील प्राणी चाहे वह आध्यात्मिक हों चाहे आधिभौतिक, सभी तपस्या की भावना से अनुप्राणित हैं..... उसके वेद, वेदांग, दर्शन, पुराण, धर्मशास्त्र आदि सभी विद्या के क्षेत्र जीवन की साधनारूप तपस्या के एकनिष्ठ उपासक हैं। " १
जनसामान्य के कल्याण हेतु आचार-व्यवहार के सुव्यवस्थित नियमों का प्रतिपादन करने वाला जैन दर्शन व्यापक आदर्शों वाला वह वैज्ञानिक जीवन-पद्धति है जो मनुष्य के आचार- शुद्धि और साधना द्वारा चरम उन्नति का समर्थ आश्वासन प्रतिपादित करते हुए मनुष्य को जैनत्त्व से सम्पन्न करने की क्षमता रखता है साथ ही अन्याय परम्पराओं के विपरीत मुक्तिदाता के रूप में किसी सर्वोच्च सत्ता सम्पन्न ईश्वर अथवा तीर्थंकर के अनस्तित्व का निर्देश करते हुए उस आस्था का विधायक है कि मनुष्य अपने प्रयासों एवं कर्मों से जगत् में सर्वोच्च स्थिति को प्राप्त कर सकता है। मानव के ऐहिक मूल्यों की प्राप्ति का साक्षात् हेतु तथा पारलौकिक मूल्यों की प्राप्ति का पारम्परिक हेतु जैन दर्शन मात्र वैयक्तिक मुक्ति का उपख्यान नहीं करता, अपितु उसे समष्टिगत कल्याण के रूप में देखता है। उसकी यही दृष्टि मनुष्य में आत्मगौरव, आत्मविश्वास और आत्मशक्ति को उदित करने में सफल रहती है।
उमास्वाति प्रणीत तत्त्वार्थसूत्र में सात तत्त्वों का निरूपण हुआ है- जीव, अंजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष - जो कि जैन दर्शन की तत्त्व योजना भी है। प्रथम दो जीव और अजीव तत्त्वों का निरूपण जैन-तत्त्वमीमांसा के अन्तर्गत एवं आस्रव और बंध का विवेचन कर्म सिद्धान्त के अन्तर्गत हुआ है, यही उसका मनोविज्ञान भी है। संवर और निर्जरा चारित्र विषयक हैं और यही जैन धर्मगत आचारशास्त्र कहलाता है। सातवाँ तत्त्व मोक्ष जैन दर्शन के अनुसार जीवन की सर्वोत्कृष्ट अवस्था है जिसे प्राप्त करना समस्त धार्मिक क्रियाओं एवं आचरण का अन्तिम ध्येय * (शोध छात्र) दर्शन एवं धर्म विभाग, कला संकाय, का० हि०वि०वि०, वाराणसी
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है। जैन-साधना में परमश्रेय के रूप में जो मोक्ष है, वही धर्म है और जो धर्म है, वही 'समत्व-प्राप्ति' है। समस्त धर्मों का यही परमश्रेय - 'समत्व' जैन-धर्म के अन्तर्गत मानसिक क्षेत्र में 'अनासक्ति' या 'वीतरागता' के रूप में; सामाजिक क्षेत्र में 'अहिंसा' के रूप में और आर्थिक क्षेत्र में 'अपरिग्रह' के रूप में अभिव्यक्त होता है, जो कि योग-साधना का प्रयोजन भी है।
जैन-साधना पद्धति में मन, वचन और शरीर की क्रियाओं से उत्पन्न आत्म प्रदेशों का कम्पन्न जिससे कर्म परमाणुओं का बंध होता है, योग है। इसके विपरीत अयोग है। वस्तुत: यही अयोग पातञ्जल योग के योग शब्द से साम्य रखता है। जीव मन, वचन और काय से सम्बन्धित योग-व्यापार के त्याग से अयोगत्त्व को प्राप्त होता है एवं अयोगी जीवन में कर्मों का बन्धन नहीं करता, तथापि पूर्वार्द्ध कर्मों की निर्जरा ही करता है। निषेधात्मक 'योग' से विपरीत विधेयात्मक 'संवर' शब्द जैनागमों में प्राप्त होता है। आचार्य हरिभद्र के अनुसार - मोक्ष तत्त्व के साथ संयोग करने वाला धर्म व्यापार योग है। जैनविचारानुसार मन के दो प्रकार हैं - द्रव्यमन, जो पौद्गलिक है
और दूसरा भावमन, जो आत्मरूप है। द्रव्यमन, भावमन का मात्र साधन है। अत: उसका निरोध साधना की उच्चभूमि में स्वत: हो जाता है, तथापि आत्मरूप भावमन के लिए उसका परिणमन स्वाभाविक है, क्योंकि वह उसका लक्षण है। यह परिणमन स्वभाविक एवं वैभाविक दो रूपों में अभिव्यक्त होता है। जैनयोग के लिए कषायों से उत्पन्न आत्मिक परिणमन अर्थात् वैभाविक परिणमन का निरोध आवश्यक है, न कि आत्मा के स्वाभाविक परिणमन-ज्ञान, दर्शन एवं आनन्दिक गुणों का।
जैन विचारणानुसार योग वैभाविक परिणमनों/बाह्याभिमुखता से स्वाभाविक परिणमन/अन्तर्मुखता की ओर गमन है। जैनागमों में मन यत्र-तत्र चित्त के रूप में
अभिहित हुआ है, यथा-मुनि अव्याक्षिप्त चित्त से गोचरी न करे।५ 'अव्याक्षिप्त' पद से पातन्जल योग में वर्णित क्षिप्त एवं विक्षिप्त दोनों अवस्थाओं का संकेत प्राप्त होता है उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार - जो मोह से अभिभूत हैं, वे मूढ़ हैं। एकाग्रमन सनिवेशन से चित्त निरोध होता है। इसमें एकाग्र और निरोध दोनों ही अवस्थाएँ प्रतिबिम्बित हुई हैं। आचार्य हेमचन्द्र ने इन अवस्थाओं को विक्षिप्त (अत्यन्त चंचल), यातायात (साधारण), श्लिष्ट (अनुकूल) एवं सुलीन मन (अनुकूल) कहा है। इसमें से योग के लिए सर्वथा उपर्युक्त एवं पातन्जल योग में वर्णित एकाग्र एवं निरोध से समानता रखने वाली श्लिष्ट मन व सुलीनमन है। संवर के चार आयाम - व्रत, अकषाय, इन्द्रिय व्यापार, निरोध एवं अक्रियत्व हैं। इसमें से 'व्रत' पातन्जल योग के यम से, ध्यान एवं समाधि से 'अक्रियत्व' का एवं 'निरोध' से प्रत्याहार का साम्य है। मन, वचन एवं काय का निग्रह गुप्ति है, घ्राण एवं काय की विवेक युक्त प्रवृत्ति, एकाग्रता एवं निरोध जैनागम की समिति व गुप्ति में समाविष्ट हैं। समिति सत्प्रवृत्ति की और
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गुप्ति मन की एकाग्रता एवं निरोध का संकेत है। जहाँ योग साधना के आरम्भ में सत्प्रवृत्तिरूप समिति होती है वहीं सम्प्रज्ञात में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति और असम्प्रज्ञात में निरोधरूप मनोगुप्ति होती है।
जैनागमों में द्वादशांग योग का निरूपण हुआ, जो इस प्रकार है- अनशन (सब प्रकार के आहार का अल्पकालीन या दीर्घकालीन परित्याग), उणोदरी (भूख से कम भोजन करना), भिक्षाचर्या (भिक्षा के नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन निर्वाह करना), रस-परित्याग (रसेन्द्रिय से प्राप्त होने वाले सुख का परित्याग). कायक्लेश (यह शरीर दमन नहीं, अपितु यह शरीर परीक्षण है), प्रतिसंलीनता (एकान्तवास एवं इन्द्रियों के भोगों का त्याग ), प्रायश्चित्त (अपने दोषों की स्वीकृति), विनय (अहंकार त्याग), वैयावृत्य (दशविध भिक्षु एवं संघ की सेवा शुश्रुषा करना), स्वाध्याय (आध्यात्मिक साहित्य का पठन-पाठन), व्युत्सर्ग (शरीर के ममत्व का, परित्याग) और ध्यान (मन / चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना) । ' इसमें से प्रथम छः को बाह्य साधना एवं अन्तिम छः को आभ्यन्तरिक साधना की संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार जैनागमों में बाह्य साधन और आभ्यन्तर साधन का विधान अभिहित है उसी प्रकार पातन्जल योग में भी यम, नियम, आसन, प्राणयाम एवं प्रत्याहार को बहिरंग साधन तथा धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तरंग साधन की संज्ञा दी गयी है। पातन्जल योग में निरूपित धारणा, ध्यान और समाधि जैनयोग के अन्तर्गत ध्यान में ही समाविष्ट है। ध्यान की चार अवस्थाओं आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में से प्रथम दो का साधन एवं योग की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें शुक्ल ध्यान की अवस्था समाधि के समतुल्य है। समाधि के दो रूप प्राप्त होते हैंसम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि । सम्प्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव, जैनयोग के अन्तर्गत शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार पृथकत्त्व विचार - सविचार ( कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का, तो शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का ध्यान करना) और एकत्त्व वितर्क - अविचार (अर्थ, व्यंजन और योग संक्रमण से रहित एक पर्याय - विषयक ध्यान) में तथा असम्प्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकार - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ( मन, वचन और शरीर के व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यानावस्था) और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति (मन, वचन और काय के साथ-साथ सूक्ष्म क्रिया के निरोध की अवस्था) में हो जाता है। इस प्रकार पातन्जल योग में निरूपित अष्टांग योग का विवेचन समुचित रूप से जैनागमों में हुआ है।
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जैनागमों में मोक्षमार्ग के रूप में निरूपित सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र को त्रिविधयोग कहा गया है।" यहाँ पर दर्शन, ज्ञान और चारित्र क्रमशः धर्म, तत्त्वज्ञान और आचरण
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के प्रतीक हैं। जैन-साधना में जिस प्रकार मोक्ष के त्रिविध मार्ग-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र एक-दूसरे से अपृथक् हैं ठीक उसी प्रकार तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन भी एक-दूसरे से अपृथक् हैं। त्रिविध साधना मार्ग मात्र जैनागमों में ही स्वीकृत नहीं है, अपितु अन्यान्य परम्पराओं में भी स्वीकृत हैं, यथाबौद्ध दर्शन में प्रज्ञा, शील एवं समाधि तो हिन्दू साधना - पद्धतियों (गीता) में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष स्वीकृत हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प। नैतिक जीवन का साध्य चेतना के तीनों पक्षों का विकास है और एतदर्थ नैतिक जीवन के तीनों पक्षों के समुचित विकास हेतु त्रिविध साधना-पक्ष का विधान अभिहित हुआ है। जहाँ चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक् बनाने के लिए एवं यथार्थ विकास हेतु सम्यग्दर्शन का विधान हुआ है वहीं ज्ञानात्मक पक्ष व संकल्पात्मक पक्ष के सम्यक् विकास हेतु ज्ञान और चारित्र का विधान अभिहित हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि त्रिविध साधनापक्ष के विधान के पृष्ठभूमि में एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है।
जैनागमों के अनुसार सम्यग्दर्शन से ज्ञान एवं चरित्र सम्यक् रूप को प्राप्त होता है। यह सामान्यत: सात तत्त्वों का या विशेषत: आत्म-अनात्म का यथार्थ बोध है। यह आत्मस्वरूप/उन्मुखता है। सम्यग्दर्शन देव-गुरु-शास्त्र के प्रति श्रद्धा है। यह व्यावहारिक जीवन में शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता इन पाँच रूपों में अभिव्यक्त होता है। शम क्रोधादि कषायों को शान्त करता है जबकि संवेग मोक्षप्राप्ति की कामना करता है। निर्वेद विषय - भोगों के प्रति अनासक्ति समुत्पन्न करता है तो अनुकम्पा समस्त प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव।
इसका साम्य पातन्जल योग दर्शन के ईश्वर प्राणिधान से है - 'क्लेशकर्मविपाकफल परामृष्टः पुरुषविशेष: ईश्वरः।' योग दर्शन में ईश्वर साधक के विघ्नों को दूर करता है जबकि जैनविचारणा में स्वीकृत सिद्ध आत्माएँ मात्र प्रेरणादायक हैं। ईश्वर के अनस्तित्त्व को स्वीकार करने वाले जैनयोग में सम्यग्दर्शन जनित निष्काम कर्म की अवधारणा उपलब्ध है, क्योंकि यह पुरुषार्थ बंधन का कारण नहीं है। बौद्धयोग में भी अष्टांगमार्ग के अन्तर्गत सम्यग्दृष्टि की अवधारणा चार आर्यसत्य के प्रति श्रद्धा है। जैन परम्परानुसार सर्वप्रथम ज्ञान तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण संयमी साधना का यही क्रम है। उत्तराध्ययन में कहा गया है - ज्ञान, अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्टकर सभी तथ्यों को देदीप्यमान करता है। बौद्ध परम्परा में निरूपित त्रिविध साधनामार्ग के अन्तर्गत प्रज्ञा का वही स्थान है जो सम्यग्ज्ञान का जैन परम्परा में है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं - अविद्या के कारण मनुष्य मृत्यु रूपी संसार में प्रवेश करते हैं एवं एक गति से दूसरी गति को प्राप्त होते हैं। यह अविद्या महामोह है, जिसके आश्रित लोग संसार में पुनरागमन करते हैं। जो लोग विद्या से मुक्त नहीं है, वे पुर्नजन्म को
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प्राप्त नहीं होते। संसार चक्र के मूल में अज्ञान है। प्रज्ञा की अनुपस्थिति में निर्वाण संभव नहीं हैं। जैनयोग में गणधरप्रणीत जैनागम ही यथार्थ ज्ञान है, शेष मिथ्या ज्ञान है। जैन परम्परा में राग-द्वेष से रहित वीतरागी ही आप्त पुरुष हैं और इन्ही के वचन ज्ञान की सम्यकता की कसौटी हैं। जैनागमों में ज्ञान के तीन स्तर निरूपित हुए हैं - इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान। प्रथम स्तर का ज्ञान अवरणीय है जबकि दूसरे स्तर का ज्ञान इस रूप में वरणीय है कि इसमें ज्ञान के विषय आन्तरिक होते हैं। तृतीय स्तर का ज्ञान आत्मबोध अथवा स्व-बोध है। इस स्तर पर ज्ञान, ज्ञाता तथा ज्ञेय की त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। जैनदृष्टि में यही केवल-दृष्टि है। १२ इसी प्रकार वैदिक ऋषियों के मूलमंत्र ‘आत्मान विद्धि' की चरमनिष्पत्ति शांकर वेदान्त में 'अयं आत्मा ब्रह्म' में होती है, जहाँ अर्हता एवं इदन्ता, विषयिता एवं विषयता और व्यष्टि एवं समष्टि एकाकार हो जाते हैं। अध्यात्मिक विकास अथवा योग के प्रयोजन सिद्धि हेतु केवल श्रद्धा एवं ज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, अपितु उसमें चरित्र की भी महती भूमिका है। एतदर्थ सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के पश्चात् सम्यक्चारित्र का निरूपण हुआ है। दर्शन तत्त्व के साक्षात्कार में ज्ञान होता है। तत्पश्चात् वही ज्ञान चारित्र रूप में परिणत हो जाता है। जैन विचारणानुसार श्रद्धा से तत्त्व को, ज्ञान के माध्यम से उसके स्वरूप को पहचानना चाहिए एवं आचरण के माध्यम से उसका साक्षात्कार करना चहिए।
चारित्र के दो रूप प्राप्त होते हैं - व्यवहार चारित्र तथा निश्चय चारित्र। विधिविधान व्यवहार चारित्र हैं और इसी की सामाजिक जीवन में महत्ता है जबकि इसके विपरीत आध्यात्मिक विकास में निश्चय चारित्र की प्रधानता होती है। साधक वासनाओं, कषायों (राग-द्वेष) से रहित जो विवेकपूर्ण आचरण करता है, वही निश्चय चारित्र कहलाता है। यह अप्रमत्त चेतना/आत्मरमण की अवस्था है। वस्तुत: यह मोक्ष का निकटतम सोपान है। व्यवहार चारित्र सामाजिक जीवन में फलित होता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के मन, वचन एवं कर्म की शुद्धि से है। अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप में प्रवृत्ति व्यवहार चारित्र है। जैन परम्परा में गृहस्थ साधकों के लिए देशव्रती चारित्र का तथा श्रमणों के लिए सर्वव्रती चारित्र का विधान है। गृहस्थाचार में अष्टमूलगुण, षट्कर्म, पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षावत, चार भावनाएँ, ग्यारह प्रतिमाएँ और सल्लेखना समाविष्ट हैं जबकि श्रमणाचार में पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, दशविध धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, बाइस परीषह, छः बाह्यतप, छ: आभ्यान्तरतप, ध्यान, गुणस्थान व मोक्ष का विधान समाविष्ट है।
सामान्यत: जैनागमों में उक्त त्रिविध मार्ग का प्रतिपादन हुआ है, तथापि प्राचीन आगामों (उत्तराध्ययन और दर्शन पाहुड) में एक चतुर्विध मार्ग का भी वर्णन प्राप्त होता है।१३ साधना के चौथे अंग को सम्यक् तप कहा गया है। जिस प्रकार अन्यान्य परम्पराओं में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग के साथ-साथ ध्यानयोग का भी निरूपण
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हुआ है। ठीक उसी प्रकार जैन परम्परा में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र के साथ-साथ सम्यक्तप का भी प्रतिपादन हुआ है। कालान्तर में ध्यान योग का अन्तर्भाव कर्मयोग में हो गया उसी प्रकार सम्यक् तप का अन्तर्भाव सम्यक् चारित्र में हुआ साथ ही प्राचीन युग में बौद्ध परम्परा में समाधि मार्ग का तथा गीता में ध्यानयोग का जो स्वतंत्र स्थान है, वही जैन परम्परा में सम्यक् तप को प्राप्त है। साधारणत: यह स्वीकृत है - जैन परम्परा में ध्यानमार्ग या समाधि मार्ग का विधान नहीं है, लेकिन यह भ्रान्त धारणा है, क्योंकि जिस प्रकार योग परम्परा में अष्टांग-योग और बौद्ध परम्परा में अष्टांग-मार्ग का विधान है, उसी प्रकार जैन परम्परा में इस योग मार्ग का विधान द्वादशांग योग के रूप में हुआ है। इसे ही सम्यक् तप का मार्ग कहा गया है। ध्यातव्य है कि चतुर्विध मार्ग (सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप) का पूर्व में विवेचन किया जा चुका है।
आचार्य हरिभद्र सूरि ने जैनयोग को पंचायामी बताया है - स्थान, उर्ण, अर्थ, आलम्बन और अनालम्बन। इसमें से प्रथम दो कर्मयोंग हैं तो अन्तिम तीन ज्ञानयोग हैं। आसनादि क्रियाओं का सम्पादन स्थान योग है - स्वर, सम्पदा एवं माया पर समुचित ध्यान देना, शास्त्र विहित सूत्रों का पाठ उर्णयोग है। सूत्रार्थ का ज्ञान कर्मयोग है। धार्मिक अनुष्ठान सम्पन्न करते समय मन को एकाग्र करना और बाह्य विषयों से मन को लौटाकर आत्मचिन्तन पर केन्द्रित करना / तन्मय हो जाना, अनालम्बन योग है। यहाँ 'स्थान' पर पातञ्जल योग के आसन के साथ, 'उर्ण और अर्थ' का स्वाध्याय के साथ, आलम्बन का ध्यान के साथ तथा अनालम्बन का समाधि के साथ साम्य है। हरिभद्र कृत पंचायामी योग का दूसरा रूप भी प्राप्त होता है, यथा - अध्यात्म (यथाशक्ति अणुव्रत या महाव्रतों को स्वीकार कर मैत्री आदि भावनाओं से युक्त होकर तत्त्वार्थ चिन्तन एवं मनन करना), भावना (अध्यात्म का एकाग्रतापूर्वक पुनरावर्तन), ध्यान (सूक्ष्म चिन्तन की वह अवस्था जो किसी शुभ विषय पर निश्चल दीप शिक्त के समान स्थिर हो), समता (इष्ट-अनिष्ट परिणामों के प्रति समान भाव रखना) और वृत्ति (परकीय शरीर और मन के सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाले वृत्तियों की अत्यन्त क्षीणता)।१४४
यदि योग अथवा तप नैतिक जीवन की अनिवार्य प्रक्रिया है तो उसे किसी लक्ष्य के निमित्त होना चाहिए। जैन-साधना का लक्ष्य शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि है। वह स्वीकार करता है - प्राणी कायिक, वाचिक एवं मानसिक क्रियाओं के माध्यम से कर्म वर्गणाओं के पुद्गलों को अपनी ओर आकर्षित करता है और ये आकर्षित कर्म - वर्गणाओं के पुद्गल राग - द्वेष या कषाय वृत्ति के कारण आत्मतत्त्व से एकीभूत होकर उसकी शुद्धसत्ता, शक्ति एवं ज्ञान-ज्योति को आवरित कर देते हैं। यह जड़ तत्त्व का संयोग ही विकृति है। अत: शुद्ध आत्म-तत्त्व की उपलब्धि के लिये आत्मा की स्वशक्ति को आवरित करने वाले कर्म-पुद्गलों का विलगाव आवश्यक है। पृथक्
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करने की क्रिया को निर्जरा कहते हैं जो दो रूपों में सम्पन्न होती है - सविपाक निर्जरा और अविपाक निर्जरा। यद्यपि सविपाक निर्जरा में कर्मपुद्गल अपनी निश्चित अवधि के पश्चात् अपना फल देकर स्वतः पृथक् हो जाते हैं, तथापि यह नैतिक साधना का कर्म' नहीं है। जैनविचारणानुसार नैतिक साधना तो सप्रयास पर अवलम्बित है। प्रयासपूर्वक कर्म - पुद्गलों के आत्मा से पृथक्करण की क्रिया को अविपाक निर्जरा कहते हैं और तप ही वह प्रक्रिया है जिसके द्वारा अविपाक् निर्जरा होती है। इस प्रकार जैनयोग का प्रयोजन है - प्रयासपूर्वक कर्म-पुद्गलों को आत्मा से पृथक कर उसकी स्वशक्ति को प्रकाशित करना और यही जैन विचाराणानुसार शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि / विशुद्धिकरण है। यही तप साधना है, योग साधना है। उत्तराध्ययन में कहा गया है - तप आत्मा के परिशोधन की प्रक्रिया है, आबद्ध कर्मों को क्षय करने की पद्धति है । १५
पुनश्च तप शब्द निषेधात्मक अर्थ में त्याग-भावना को अभिव्यक्त करता है। त्याग चाहे वैयक्तिक स्वार्थ एवं हितों का हो अथवा वैयक्तिक सुखोलब्धियों का, तप कहलाने का अधिकारी है। इस रूप में तप, संयम, इन्द्रिय - निग्रह और देह - दण्डन के रूप में परिलक्षित होता है। तप मात्र त्यागना ही नहीं, अपितु उपलब्ध करना भी है। तप का केवल विर्सजनात्मक मूल्य ही नहीं, प्रत्युत सृजनात्मक मूल्य भी स्वीकृत है। अपने सृजनात्मक पक्ष में तप आत्मोपलब्धि है। यहाँ पर स्व- आत्मन्ं इतना व्यापक रूप लिए होता है कि उसमें 'स्व' या 'पर' पर भेद ही स्थिर ही नहीं रहता और एतदर्थ एक तपस्वी का आत्म-कल्याण और लोक-कल्याण परस्पर विरोधी न होकर एक रूप होता है । तपस्वी के आत्म-कल्याण में लोक-कल्याण स्वतः समाविष्ट रहता है। वस्तुतः लोक-कल्याण ही आत्म-कल्याण है।
तप चाहे इन्द्रिय-संयम हो, चित्त निरोध हो अथवा लोक कल्याण या बहुजन हित हो, उसके महत्त्व को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उसका वैयक्तिक एवं सामाजिक जीवन दोनों के लिए महत्त्व है। विशेषत: जैन परम्परा में तप के साथसाथ आत्म निर्यातन का विचार भी संयुक्त है। यह ज्ञान समन्वित तपस्या है। जैनसाधना समत्व - साधना रहित, अथवा भेद-विज्ञान के ज्ञान से रहित आत्म-निर्यातन तप को स्वीकार नहीं करती है। तप का जीवन्त और जागृत शाश्वत स्वरूप सार्वजनीन और सार्वकालिक है। सभी साधना पद्धतियाँ इसे स्वीकार कर परमश्रेय की ओर गमन करती हैं। साथ ही देश-काल के अनुसार किसी एक द्वार से साधकों को तप के उस भव्य प्रासाद में लाने का प्रयास करती हैं, जहाँ साधक अपने परमात्मा स्वरूप का दर्शन करता है। एतदर्थ भारतीय ऋषियों ने तप को विराट अर्थ में देखा और श्रद्धा ज्ञान, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, आर्जव, मार्दव, क्षमा, संयम, समाधि, सत्य, स्वाध्याय, अध्ययन, सेवा, सत्कार प्रभूति समस्त गुणों को तप के रूप में स्वीकार किया । १६ चूंकि जैन विचारणा में तीर्थंकर अथवा ईश्वर का अस्तित्व अस्वीकृत है इसलिये वह परमश्रेय
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के रूप में परमात्मा स्वरूप साक्षात्कार का निषेध करता है और उसके स्थान पर स्वभाव दशा की उपलब्धि को स्वीकार करता है। जैन विचारणा में आत्म-स्वरूप, स्वभावदशा की उपलब्धि, मोक्ष,धर्म और समत्व-प्राप्ति सभी समानार्थक हैं। वस्तुत: जैनयोग का प्रयोजन ‘समत्व प्राप्ति' है और इसकी सम्प्राप्ति हेतु प्रयास ही इसका सार है। समत्व से संयुक्त होकर ही ज्ञान, कर्म, भक्ति और ध्यान अपने स्वभाविक स्वरूप का प्रकटन करते हैं। इसी अवस्था में ज्ञान यथार्थ ज्ञान में, भक्ति परम भक्ति में, कर्म अकर्म में परिणत होता है और ध्यान निर्विकल्पक समाधि का लाभ करता है। जैनागमों में समत्व- योग की प्रतिष्ठा में कहा गया है - व्यक्ति चाहे दिगम्बर हो या श्वेताम्बर, बौद्ध हो अथवा अन्य किसी मत का, जो भी समभाव में स्थित होगा वह नि:सन्देह मोक्ष को प्राप्त होगा।
उक्त तथ्यों के अवलोकन से स्पष्ट होता है कि जैनागमों में जिस चतुर्विध योग (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक् तप के अन्तर्गत द्वादशांक योग), श्रावकाचार तथा श्रमणाचार का निरूपण हुआ है, वे सभी समत्व-साधना के हेतु हैं। समत्व-साधना में राग-द्वेषजन्य चेतना की सभी विकृतियाँ दूर होती हैं और आत्मा अपनी स्वभाव दशा में अथवा अपने स्व-स्वरूप में प्रतिष्ठित होता है। इस अवस्था में साधक के अन्तर्मन में समभाव, अहिंसा, सत्य, विनय, शान्ति, संयम, प्रभृति सद्गुणों की सरस सरिता प्रवाहित होती है। समत्व द्रष्टा संसार के समस्त प्राणियों को स्वयं में तथा स्वयं को सब में देखता है। उसकी दृष्टि 'जीओ और जीने दो' की होती है और उसी का पालन करता है। वस्तुतः यही जैनयोग की सार्थकता है। सन्दर्भ: १. भरत सिंह उपाध्याय, बौद्ध दर्शन तथा अन्य भारतीय दर्शन, भाग १, पुनर्मुद्रण,
दिल्ली १९९६ ई०, पृ० ७१-७२. २. उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र १/२. ३. वही, पृ० ६१. ४. आचार्य हरिभद्र, योगविंशिका प्रकरण, १. ५. दशवैकालिक, ५/२. ६. उत्तराध्ययन सूत्र, २९/५.
७. वही, ३०/९. ८. वही, ३०/९.
९. तत्त्वार्थसूत्र, १/१. १०. अमृतचन्द्र, पुरुषार्थसिद्धयुपाय, २१६. ११. दशवैकालिक, ४/१०. १२. समयसार, १४४.
१३. उत्तराध्ययन सूत्र, २८/२,
___३, ३५, दर्शनपाहुड, ३२. १४. हरिभद्रसूरि, यो०वि० १.
१५. उत्तराध्ययनसूत्र, २९/२७. १६.सागरमल जैन, जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक
अध्ययन, भाग २, पृ० ५ (गीता, १७/१४-१९ से उद्धृत).
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जैन दर्शन के परिप्रेक्ष्य में वस्तु - स्वातन्त्र्य एवं द्रव्य की अवधारणा
कु० अल्पना जैन*
जैनदर्शन में वस्तु, द्रव्य, तत्त्व, पदार्थ, अर्थ, सामान्य, अन्वय, धर्मी सभी एकार्थवाचक हैं। एक ही वस्तु को विभिन्न नामों से अभिहित किया गया है। इसमें शब्दभेद होते हुए भी अर्थभेद किंचित् मात्र नहीं है। जैनदर्शन में वस्तु या द्रव्य के स्वभाव को “सत्रूप’” माना गया है। सत्रूप / सत्ता सहित वस्तु को जाना जा सकता है, विचार किया जा सकता है। जब तक वस्तुओं के सत् अस्तित्व को स्वीकार न कर लिया जाय, तब तक उनके सम्बन्ध में विचार सम्भव नहीं है, क्योंकि असत्रूप वस्तु तो आकाश कुसुम, बन्ध्यापुत्र व शशश्रृंगवत् असम्भव है। अतः उसका न तो ज्ञान, न ही विचार और न प्ररूपणा सम्भव है। इसलिए तत्त्वार्थसूत्र के प्रणेता आचार्य उमास्वाति ने कहा है कि "सत् द्रव्यलक्षणं "" अर्थात् द्रव्य का लक्षण सत्पना है। सत् अर्थात् सत्तावान/अस्तित्ववान, जिनका स्वतः सिद्ध अस्तित्व हो और जिनका निरन्वय नाश असम्भव हो। अतः विश्व के समस्त पदार्थ सत्तावान हैं। यह सत्ता लोक- अलोक सहित समस्त पदार्थों में व्याप्त है, सर्व पदार्थ स्थित है क्योंकि सत्ता के कारण सब पदार्थों में "सत्” ऐसे कथन की ओर "सत्" ऐसे ज्ञान की उपलब्धि होती है। उक्तंच
" अस्तित्व ही द्रव्य का स्वभाव है, वह (अस्तित्व) अन्य साधन से निरपेक्ष होने के कारण अनादि अनन्त होने से अहेतुक, एकवृत्ति रूप सदा प्रवर्तता होने से द्रव्य के साथ एकत्व को धारण करता हुआ द्रव्य का स्वभाव क्यों न हो? अवश्य हो । ” इस प्रकार सत्रूप वस्तु पर से निरपेक्ष, स्वसहाय, स्वतन्त्र, स्वतः सिद्ध, अनादि-निधन है। इसी तथ्य को पंचाध्यायीकार इस प्रकार व्यक्त करते हैं -
-
ܕ
"तत्त्व सत्लक्षण वाला है, सत्मात्र है क्योंकि वह स्वतः सिद्ध है इसलिए वह अनादिनिधन, स्वसहाय व निर्विकल्प है। "३
यदि सत् वस्तु को पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त न माना जाय तो अनेक दूषण उत्पन्न होंगे। स्वतःसिद्ध न मानने पर असत् पदार्थ की उत्पत्ति निरंकुश माननी होगी, क्योंकि बिना सत्ता के नवीन रूप की उत्पत्ति मानने पर वस्तु की कोई मर्यादा नहीं रह जाएगी और संसार में अनन्त द्रव्य होते चले जाएँगे व मृदा के अभाव में घट की उत्पत्ति
* रिसर्च फेलो, आई०सी०पी०आर०, डॉ० हरीसिंह गौर वि०वि०, सागर (म०प्र०)
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का प्रसंग आएगा। अत: वस्तु के स्वतःसिद्ध स्वभाव को मानना उचित है। अनादिनिधन स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु परतःसिद्ध माननी होगी, हर पदार्थ पर के सहयोग से उत्पन्न होगा, जिससे अनवस्था नामक महत् दूषण उत्पन्न होगा। स्वसहाय न मानने पर सत् का नाश मानना होगा, क्योंकि वस्तु के स्वतन्त्र, स्थिति, टिकाव व परिणमन के अभाव में समस्त द्रव्य परस्पर एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगेंगे जिससे किसी भी वस्तु का मूल स्वरूप न ठहर सकेगा। निर्विकल्प स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को युतसिद्ध माना होगा। इस प्रकार या तो वस्तु के स्वत:सिद्ध स्वभाव को स्वीकृत करना होगा या फिर दूषणयुक्त वस्तु को स्वीकृत करना होगा जिससे वस्तु-व्यवस्था सम्भव न हो सकेगी। अत: विश्व की दोषमुक्त व्यवस्था पूर्वोक्त लक्षणों को स्वीकार करने पर ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। इसी कारण जैनदर्शन पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त वस्तु को स्वीकृत कर वस्तु-व्यवस्था का प्रतिपादन करता है।
जैनदर्शन विश्व लोक में छः द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करता है, जो जाति की अपेक्षा छ: व संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं अर्थात् षद्रव्यों का समुदाय ही विश्व है। “यथा लोकयन्ते यस्मिन् षटद्रव्याणि इति लोकः” जिसमें छ: द्रव्य अवलोकित किये जाते हैं, उसका नाम लोक है, ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि सत्तावान वस्तु कैसी है? क्या वह सर्वथा कूटस्थ व नित्य है या फिर सर्वथा परिवर्तनशील व अनित्य है?
जैनदर्शन वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का प्रतिपादक होने से वह वस्तु को न तो सर्वथा कूटस्थ और न ही पूर्णत: परिवर्तनशील मानता है, बल्कि वह वस्तु को दोनों धर्मों से युक्त मानता है और एकान्त पक्ष का निषेध करता है। क्योंकि यदि वस्तुमात्र को सर्वथा नित्य स्वीकार कर लिया जाए तो उसमें क्रम से होने वाले पर्यायों का अभाव होने से जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वह नहीं बन सकता और यदि उसे सर्वथा क्षणिक स्वीकार कर लिया जाए तो उसमें यह वही वस्तु है, ऐसे प्रत्याभिज्ञान के अभाव में एक सन्तानपने का अभाव प्राप्त होता है। प्रत्येक वस्तु को अनेकान्त स्वरूप सिद्ध करते हुए वस्तु को सर्वथा नित्य स्वरूप या सर्वथा अनित्य स्वरूप स्वीकार करने पर जो दोष आता है उसका स्पष्टीकरण करते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कार्तिकेय स्वामी कहते हैं कि -
“परिणाम से रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है। ऐसी अवस्था में वह कैसे कार्य कर सकता है।"
"क्षण-क्षण में अन्य-अन्य होने वाला विनश्वर तत्त्व अन्वयी द्रव्य के बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकता।"५
___लोक में नित्य-अनित्य, एक-अनेक इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुएं ही कार्यशील दिखाई देती हैं। जैसे, स्वर्ण से कुण्डल, अंगूठी इत्यादि अनेक वस्तु बनती
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हैं। यदि स्वर्ण सर्वथा एकरूप तथा अनित्यरूप होवे तो उससे कुण्डलादि कार्य नहीं बन सकते। अतः वस्तु स्वभाव से ही अनेकान्त स्वरूप है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक, बल्कि एक ही समय में नित्य व अनित्य धर्मों को एक साथ अपने में समाहित किये हुए है। यही कारण है कि जैनदर्शन सत्ता को उत्पादव्ययध्रौव्य स्वभावात्मक स्वीकार करता है। तत्त्वार्थसूत्र ( ५:२९ ) में सत्ता / वस्तु को “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत्" के रूप में परिभाषित किया गया है अर्थात् सत् हमेशा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन त्रिलक्षणों से युक्त होता है, वस्तु का स्वरूप स्थायी रहते हुए भी बदलता रहता है। विज्ञान में भी ऐसा सिद्धान्त है किन्तु यह सिद्धान्त केवल पुद्गल द्रव्य से सम्बद्ध है, जबकि यह सभी द्रव्यों के सम्बन्ध में सच है।
प्रत्येक वस्तु स्वयं अपना अस्तित्व ध्रुव रूप बनाये रखते हुए भी अपनी पूर्व अवस्था को छोड़ती और नवीन अवस्था का उत्पाद करती हुई, अनादि अनन्त काल तक अपने अस्तित्व को कायम रखती है। ऐसा वस्तु का निजवैभव या स्वभाव है, जैसे - मिट्टी अपने पिण्ड रूप पर्याय का व्यय करती हुई घट रूप नवीन पर्याय का उत्पाद करती हुई, घट व पिण्ड दोनों अवस्थाओं में मिट्टी रूप ध्रुव अस्तित्व से एकमेक/ तद्रूप रहती हुई त्रिलक्षणयुक्त स्वभाव को सूचित करती है । इससे सिद्ध होता है कि सत्रूप वस्तु हमेशा एकरूप नहीं रहती है, वरन् यह अपनी एकरूपता कायम रखती हुई, अनेक प्रकार की नवीनता प्रतिसमय करती हुई अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। आशय यह है कि पदार्थ परिवर्तनशील है, जैसे दूध कुछ समय बाद दही रूप में परिणित हो जाता है और फिर दही से छाँछ बना लिया जाता है। यद्यपि दूध से दही व दही से छाँछ ये तीन भिन्न अवस्थायें हैं, पर ये तीनों एक ही गोरस से उत्पन्न हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अवस्था भेद होने पर भी उसका अन्वय पाया जाता है जो वस्तु के त्रिलक्षण अस्तित्व को सिद्ध करता है।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि द्रव्य एक ही समय में तीन रूप कैसे हो सकता है? कदाचित कालभेद से उसे उत्पाद व व्यय रूप मान लिया जाय, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में व्यय अवश्य होता है तथापि ऐसी अवस्था में द्रव्य ध्रौव्य नहीं हो सकता क्योंकि जिसका उत्पाद-व्यय होता है उसे धौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है।
इसका समाधान यह है कि “अवस्था भेद से तीनों धर्म माने गये हैं। जिस समय द्रव्य की पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है, फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय बना रहता है। "६ उक्तंच
" द्रव्य एक ही समय में उत्पत्ति, स्थिति और व्यय संज्ञा वाले पर्यायों से समवेत है अर्थात् तादात्म्य लिए हुए है, इसलिए द्रव्य नियम से तीनोमय है । "
ور
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पुन: यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है तो वह प्रत्येक समय में बदलकर अन्य-अन्य क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि प्रथम समय में जो द्रव्य है वह जब दूसरे समय में बदल गया है तो उसे प्रथम समय वाला मानना कैसे संगत हो सकता है? इसलिए या तो यह कहना चाहिए कि कोई पदार्थ परिवर्तनशील नहीं है या यह मानना चाहिए कि जो प्रथम समय जो द्रव्य है वह दूसरे समय में नहीं रहता, नवीन उत्पन्न हो जाता है।
यह शंका निराधार है, क्योंकि परिणमन प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है और यह परिणमनशीलता प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से सिद्ध है, अबाधित है। परिणमन रहित वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती, वह गधे के सींग के समान असत् है। जहाँजहाँ वस्तु दिखाई देती है वहाँ-वहाँ परिणाम दिखाई देता है। जैसे, गोरस अपने दूध, दही, छाँछ, घी इत्यादि परिणामों से ही युक्त दिखाई देता है। जहाँ परिणाम नहीं होता, वहाँ वस्तु नहीं होती। परन्तु वस्तु का परिणमन प्रति समय होने पर भी वह अन्य वस्तुरूप नहीं हो जाती, बल्कि उसकी अवस्था परिवर्तित हो जाती है। जैसे, हमारे शरीर की बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थायें होती हैं पर उसमें पुद्गल का सतरूप अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है, वह नाश को प्राप्त नहीं होता। यदि सत् को सर्वथा परिवर्तनशील माना जाय तो उपरोक्त वर्णित दोष उत्पन्न होंगे और यह आपत्ति अनिवार्य रूप से लागू होगी। जैनदर्शन सत् को केवल परिणामस्वभावी स्वीकार न कर उसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त मानता है। यथा - _ "द्रव्य की अन्य पर्यायें उत्पन्न होती हैं और अन्य पर्याय व्यय को प्राप्त होती हैं तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट हुआ और न उत्पन्न हुआ है।"
___ यद्यपि यह कथन थोड़ा विलक्षण प्रतीत होता है कि द्रव्य स्वयं उत्पन्न और विनष्ट न होकर भी अन्य पर्याय रूप कैसे उत्पन्न होता है और व्यय को कैसे प्राप्त होता है, किन्तु इसमें विलक्षणता की कोई बात नहीं है क्योंकि सत् अपने सामान्य स्वभाव की अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न व्यय को प्राप्त होता है। फिर भी उसमें उत्पाद-व्यय होता है, सो वह पर्याय (विशेष स्वभाव) की अपेक्षा से है। इसलिए यदि द्रव्य का ही विनाश, द्रव्य का ही उत्पाद और द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाये तो सब गड़बड़ हो जाये, क्योंकि इससे सत् का विनाश, असत् का उत्पाद एवं द्रव्य की कूटस्थता का प्रसंग आएगा। अत: उत्पाद-व्यय -ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं, इसलिए ये सब एक ही द्रव्य रूप हैं।
समस्त द्रव्यों की ध्रुवता व परिणमन का स्पष्टीकरण करने के पश्चात् यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु स्वयं में कैसी है? जैनदर्शन वस्तु को गुण-पर्याय युक्त मानता है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया है कि “गुणपर्यायवद्
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द्रव्यम्'९ अर्थात् द्रव्य अपने गुणों व पर्यायों से तन्मय होता है। जिस प्रकार वस्त्र ताने-बाने से मिलकर बनता है, ताने-बाने के बिना वस्त्र का कोई स्वरूप नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य गुण-पर्यायवान होता है। यहाँ उत्पाद-व्यय पर्याय में समाहित हो जाते हैं और ध्रौव्य में नित्य विद्यमान रहने वाले गुणों का समावेश हो जाता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का धारक द्रव्य होता है या गुण-पर्यायवान द्रव्य होता हैइन दोनों कथनों में कोई फर्क नहीं है।
___ इस प्रकार द्रव्य इन तीन लक्षणों से युक्त है - सत्, उत्पादव्ययध्रौव्य और गुण पर्यायें। ये तीनों लक्षण परस्पर अविनभावी हैं। जहाँ एक है वहाँ शेष दोनों नियम से होते हैं। जैसे, यदि द्रव्य सत् है तो वह उत्पाद-व्यय व गुण-पर्याय संयुक्त अवश्य होगा। ऐसा ही अन्य के सम्बन्ध में सत्य है, कहा भी है - "जो अपने अस्तित्व स्वभाव को नहीं छोड़ते हुए उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के साथ गुणवान और पर्यायवान होता है, उसे द्रव्य कहते हैं।' १० द्रव्य -
यह हम पहले कह चुके हैं कि जैनदर्शन में जाति अपेक्षा छह और संख्या अपेक्षा अनन्तानन्त द्रव्य स्वीकार किये गये हैं, ये छह द्रव्य हैं - १. जीवद्रव्य
अनन्त २. पुद्गलद्रव्य
अनन्तानन्त ३. धर्मद्रव्य ___ - एक ४. अधर्मद्रव्य
एक ५. आकाशद्रव्य
एक ६. काल द्रव्य
लोक प्रमाण असंख्यात ये सभी द्रव्य एक साथ आकाशद्रव्य में अपने-अपने चतुष्टय में रहते हुए स्वतन्त्र रूप से अपना-अपना कार्य करते हुए अवगाहना पा रहे हैं। यदि इन सभी द्रव्यों की स्वतन्त्रता न होती तो वे अनन्त न कहलाते और यदि इनकी अलग-अलग सत्ता है तो फिर इनका भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र परिणमन स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। गुण -
प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणमयी होता है, उसमें सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। गुणरहित द्रव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है, क्योंकि गुणों का समुदाय ही द्रव्य है। सामान्य गुण सभी द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और विशेष गुण प्रत्येक द्रव्य का पृथक् - पृथक् होता है, जो द्रव्य को वैशिष्टय या विशेषता प्रदान
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करता है। वास्तव में, गुण द्रव्य की विशेषताएँ हैं जिनसे द्रव्य की महिमा प्रकट होती है। इस प्रकार वस्तु में अनन्त सामान्य व अनन्त विशेष गुण पाये जाते हैं। उन अनन्त सामान्य गुणों में, इन मुख्य छह सामान्य गुणों की चर्चा आगमों में की गई है। वे इस प्रकार हैं -
१. अस्तित्व २. वस्तुत्व ३. द्रव्यत्व ४. प्रमेयत्व ५. प्रदेशत्व ६. अगुरुलघुत्व गुण।
प्रत्येक द्रव्य का अपना-अपना सामान्य गुण पृथक्-पृथक् होता है। ऐसा नहीं है कि जो अस्तित्व गुण जीव द्रव्य में है वही गुण पुद्गल द्रव्य में भी है, क्योंकि जीव का अस्तित्व चेतनामयी और पुद्गल का अस्तित्व स्पर्श-रस-गंध-वर्णमयी है, इसी प्रकार सभी गुण समझना चाहिए। अस्तित्व आदि गुणों को हम इस प्रकार भी परिभाषित कर सकते हैं कि द्रव्य की विशेषता जिसके कारण द्रव्य की सत्ता त्रिकाल कायम रहे और कभी नाश को प्राप्त न हो अर्थात् द्रव्य की सत्ता अस्तित्व गुण के कारण है न कि पर के कारण। प्रत्येक द्रव्य अपना प्रयोजनभूत/अर्थक्रियाभूत कार्य अपने वस्तुत्व गुण के कारण करता है, अन्य किसी की प्रेरणा या मदद के द्वारा नहीं। प्रत्येक द्रव्य की परिणमनशीलता अनादि अनन्त कायम रहती है उसकी द्रव्यत्व गुण की शक्ति से, न कि पर सहयोग की अपेक्षा। इसी प्रकार प्रेमपत्व गुण, द्रव्य की ज्ञेय बनने की सामर्थ्य यानि ज्ञेयत्वपना। प्रदेशत्व गुण, आकारादि होने की योग्यता और अगुरुलघुत्व गुण द्रव्य की अपनी सीमा से बने रहने की सामर्थ्य के प्रतिपादक हैं।
विशेष गुण के कारण द्रव्य पृथक् रूप से पहचाना जा सकता है, क्योंकि यह प्रत्येक द्रव्य का भिन्न-भिन्न होता है। जैसे -
१. जीवद्रव्य में - ज्ञान-दर्शन-चारित्र आदि अनन्त गुण पाये जाते हैं जो उसके अन्य द्रव्यों से भित्र अस्तित्व को प्रकट करते हैं।
२. पुद्गल द्रव्य में - स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण आदि अनन्त विशेष गुण। ३. धर्मद्रव्य में - गतिहेतुत्व अर्थात् जीव व पुद्गल की गमन में निमित्तता आदि। ४. अधर्मद्रव्य में - स्थिति हेतुत्व। ५. आकाशद्रव्य में - अवगाहन हेतुत्व। ६. कालद्रव्य में - जीव व पुद्गल के परिणमन में निमित्त होता है।
इस प्रकार सामान्य गुण वस्तु के द्रव्यपने की सूचक और विशेष गुण अनेक द्रव्यों में से एक द्रव्य को भिन्न बतलाने वाले कारक हैं। गुण द्रव्य से अलग नहीं है,
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किन्तु द्रव्य गुणमयी है। द्रव्य में गुणों की व्यवस्था इस प्रकार नहीं है जैसे बोरे में गेहूँ के दाने भरे हैं, किन्तु जैसे नमक में खारापना, सफेदी, ठोसपना है। वैसे ही द्रव्य में गुण तादात्म्य-तद्रूप हैं। इस प्रकार गुणों का द्रव्य से नित्यतादात्म्य सम्बन्ध है जो उससे पृथक् नहीं किया जा सकता। पर्याय -
द्रव्य अथवा गुणों के परिणाम को पर्याय कहते हैं अर्थात् प्रत्येक द्रव्य या गुण कोई-न-कोई अवस्था में जरूर होता है। अवस्था के बिना द्रव्य के अस्तित्व का कोई औचित्य ही नहीं होता है। जैसे स्वर्ण, बिस्कुट, कुण्डल, कंगन आदि कोई-न-कोई अवस्था में तो पाया ही जाएगा। हम कोई भी अवस्था के बिना स्वर्ण को पाना चाहें, तो यह सम्भव नहीं है। इस प्रकार पर्याय ही द्रव्य की प्रसिद्धि का हेतु है। प्रत्येक वस्तु के परिणमन का यह वैशिष्ट्य होता है कि वह त्रिकाल में भी परिणमन करते हुए अपने वस्तुत्वपने को नहीं खोता। अर्थात् उसका द्रव्यपना सदा कायम रहता है। इसी कारण वह अपने स्वभाव रूप से अन्य वस्तुओं से भिन्न स्वतन्त्र रहती है। जैनदर्शन में पर्यायों को अनन्त प्रकार का माना गया है और मुख्य रूप से पर्याय के दो भेद किये हैं - १. अर्थपर्याय
२. व्यंजनपर्याय द्रव्य-गुण-पर्याय की भिन्नता व अनन्यता
गण व पर्याय से द्रव्य कथंचित भिन्न व कथंचित अभिन्न है। संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि से कथंचित भिन्न है, परन्तु सर्वथा पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं है क्योंकि तीनों के प्रदेश अभेद हैं, अनन्य हैं। गुणपर्याय रहित द्रव्य व द्रव्यरहित गुणपर्याय का अस्तित्व नहीं देखा जा सकता, क्योंकि गुणपर्याय रहित द्रव्य सम्भव नहीं है, गुण-पर्यायों से उसकी पहचान होती है और गुणपर्याय बिना द्रव्य के सम्भक नहीं, क्योंकि बिना आधार के गुणपर्याय अपना अस्तित्व खो देंगे।
इस प्रकार द्रव्य के सत् अस्तित्व, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यता व गुणपर्याय युक्त स्वभाव के सम्पूर्ण विवेचन के उपरान्त यह तथ्य सहजरूप से उद्घटित होता है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने गुण सम्पदारूपी स्वभाव से परिपूर्ण है एवं बिना अन्य किसी के सहयोग से अपने गुणपर्यायों में उत्पाद-व्यय करते हुए स्वतन्त्र रूप से वे अपना त्रिकाल अस्तित्व बनाये रखते हैं। कोई द्रव्य या उसका कोई अंश यहां तक कि सर्वशक्तिमान ईश्वर भी किसी अन्य द्रव्य की सत्ता में किंचित् मात्र भी दखल नहीं दे सकता, हस्तक्षेप नहीं कर सकता, ऐसी स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्दोष एवं सुन्दर विश्व की व्यवस्था है। आचार्य अमृतचन्द इस तथ्य को बड़े सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं -
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"धर्म, अधर्म, आकाश, काल जीवद्रव्य स्वरूप लोक में सर्वत्र जो कुछ जितने पदार्थ हैं वे सब निश्चय से एकत्व-निश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकार से उसमें सर्वसंकर आदि दोष आ जावेंगे। ये सब पदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्तधर्मों के वक्र (समूह) का चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाह रूप रह रहे हैं तथापि सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते। पररूप परिणमन न करने से अनन्त व्यक्तिता नष्ट होती है, इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भाँति (शाश्वत) स्थिर रहते हैं और समस्त विरुद्ध तथा अविरुद्ध कार्य दोनों की हेतुता से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं - टिकाये रखते हैं।'' ११ ।
यह व्यवस्था किसी के रोकने से रुक नहीं सकती, बदल नहीं सकती, घटबढ़ नहीं सकती लेकिन अनवरत् रूप से चलती रहती है, यथा - "अनादि निधन वस्तुयें भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं, कोई किसी के आधीन नहीं है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होते, पर को परिणमित कराने का भाव मिथ्यादर्शन है।' १२ उपरोक्त स्वतन्त्र वस्तु व्यवस्था ही वस्तुस्वातन्त्र्य की नींव है, मूल आधार है। यह कहें कि स्वतन्त्र, स्वाधीन, स्वसहाय, वस्तु ही वस्तुस्वातन्त्र्य है।
___ यदि कोई पदार्थ अन्य पदार्थों के कार्यों में हस्तक्षेप करे, तो उसे अपना कार्य बन्द करना होगा अथवा एक ही समय में दो कार्य करने होंगे। पर ऐसा असम्भव है। समयसार में इस तथ्य को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है -
"जो जिस द्रव्य में या गुण में अनादिकाल से वर्त रहा है, उसे छोड़कर अन्य द्रव्य या अन्य गण में कभी भी संक्रमित नहीं होता तो वह उसे कैसे परिणमा सकता है, अर्थात् नहीं परिणमा सकता।''१३
__इस प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु अचलित वस्तुस्थिति की मर्यादा को तोड़ने में अशक्य होने से अपने द्रव्य व गुण में निजरस से वर्तती है, परन्तु द्रव्यान्तर या गुणान्तर रूप से संक्रमण को प्राप्त नहीं होती, तब वह अन्य वस्तु को परिणमित नहीं करा सकती। इसलिए परभाव किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता। अत: यह बात हाथ में रखे आँवले की भाँति सम्पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि वस्तु की ऐसी स्वतन्त्र व्यवस्था है, मर्यादा है जिसके बाहर वस्तु परिणमन नहीं करती। साथ ही, कई द्रव्य परस्पर एकक्षेत्रावगाह रूप से रहते हुए भी अपने स्वभाव रूप परिणमन करते हैं, विभाव रूप नहीं। यथा -
"वे छहों द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक-दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर (क्षीरनीरवत्) मिल जाते हैं, तथापि अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।"१४
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यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि आप कहते हैं कि कोई भी द्रव्य या उसकी पर्याय अन्य द्रव्य या उस अन्य द्रव्य की पर्याय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। लेकिन जगत् में हमको प्रत्यक्ष इसके विरुद्ध भासित होता है कि कोई भी कार्य बिना किसी दूसरे द्रव्य की सहायता के हो सकता है, ऐसा दिखता नहीं है। जैसे, किसी ने हमें गाली दी तो क्रोध आता है, प्रशंसा की तो मान कषाय उत्पन्न होती है। लेकिन कोई प्रसंग उत्पन्न हुए बिना कषाय उत्पन्न नहीं होती है और हम शरीर का कार्य प्रत्यक्ष करते देखे जाते हैं।
यद्यपि ऊपरी दृष्टिकोण से यह शंका सत्य प्रतीत होती है, परन्तु गम्भीरता से मंथन करने पर यह अनुभव में आता है कि कोई मुझे गाती देवे तो मैं क्रोध करूँ या न करूँ, ऐसी स्वतन्त्रता है या नहीं? इसी प्रकार किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा.प्रशंसा करने पर मानभाव करने या न करने की स्वतन्त्रता मुझे है। इस प्रकार अनुभव होता है कि बाह्य कारण एक सरीखे मिलने पर भी सभी व्यक्तियों के भाव समान नहीं होते। इसी प्रकार यदि हममें शरीर का अपने रूप परिणमन करने की सामर्थ्य होती है तो शरीर में रोग होने पर तुरन्त ठीक कर लेते, परन्तु ऐसा नहीं होता क्योंकि शरीर के परमाणु अपने गुणों में परिणमन करते हैं और आत्मा अन्य द्रव्य होने से वह अपने गुणों में इच्छा रूप विपरीत परिणमन कर सकता है लेकिन शरीर के परमाणुओं में फेरफार नहीं कर सकता।
जैनदर्शन दो द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्म सम्बन्ध को सर्वथा अस्वीकृत करता है एवं उनके बीच केवल निमित्तनिमेत्तिक सम्बन्ध को स्वीकार करता है। उसके अनुसार पर द्रव्य कार्योत्पत्ति में निमित्त मात्र तो होता है, पर वह कार्य का कर्ता नहीं होता, उसमें किंचित् मात्र भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जैसे, मिट्टी स्वयं घट रूप परिणमित होती है कुम्हार, चक्र, दण्ड आदि तो केवल निमित्त रूप से विद्यमान रहते हैं। यदि कुम्हार को घट का कर्ता माना जाए तो कंकड़ युक्त मिट्टी से घट बनना चाहिए, जोकि असम्भव है।
इस प्रकार जैनदर्शन मात्र ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित नहीं है, अपितु विश्व में व्याप्त समस्त द्रव्यों के परस्पर कर्तृव्य या उनके परिणमन में हस्तक्षेप का निषेधक एवं स्वकर्तृत्व का पोषक है। उपसंहार -
वस्तु-स्वातन्त्र्य, जैनदर्शन का पर्यायवाचक होने से जैनदर्शन में वर्णित समस्त सिद्धान्त इसमें समाहित हो जाते हैं, जैसे - अहिंसा, क्रमबद्धपर्याय, निमित्तोपादान, षट्कारक मीमांसा, अभाव मीमांसा आदि। व्यक्ति का जीवन-मरण किसी अन्य द्रव्य के अधीन न होकर स्वतन्त्र, स्वाधीन है। अत: पर को मारने व बचाने की कर्तृत्व रूपी मिथ्या भ्रान्ति वस्तु-स्वातन्त्र्य के पोषक अहिंसा के सिद्धान्त में स्वीकृत नहीं है। क्रमबद्धपर्याय, वस्तु की क्रम-क्रम से होने वाली पर्यायों को पूर्ण व्यवस्थित व नियमित
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घोषित कर पर्यायगत स्वतन्त्रता का उद्घोषणा करता है। निमित्तोपादान व्यवस्था में निमित्त कार्योत्पत्ति में विद्यमान होते हुए कर्त्ता नहीं होता, बल्कि उपादानगत योग्यता का धारक द्रव्य स्वयं कार्य रूप परिणमता है, निमित्त परद्रव्य रूप से विद्यमान रहता है। इस प्रकार यह सिद्धान्त द्रव्य की स्वयं शक्ति सामर्थ्य से परिणमन को स्वीकृत कर वस्तु-स्वातन्त्र्य को पोषित करता है।
इसी प्रकार का कर्तृकर्म व षटकारक मीमांसा भी परकर्तृत्व की निषेधक व वस्तु के स्वतन्त्र स्वभाव की पोषक है। उपर्युक्त भाव रूप सिद्धान्त ही वस्तु की स्वतन्त्रता का दिग्दर्शन नहीं कराते, बल्कि नास्ति पक्ष से युक्त अभाव सिद्धान्त भी द्रव्य की उसके गुणों व उत्पन्न पर्यायों से सम्पूर्ण स्वतन्त्रता को प्रगट करता है। इस प्रकार जिनागमप्रणीत समस्त सिद्धान्त वस्तु की स्वतन्त्र व्यवस्था का प्रकटीकरण करते हैं। यह समस्त सिद्धान्तों का सार है। यह जैनदर्शन के आध्यात्मिक स्वरूप का दिग्दर्शक है, इसे समझे बिना जिनागम का मर्म नहीं समझा जा सकता है। सन्दर्भ: १. आचार्य उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९, जयपुर १९९६, पृ० ३५१. २. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, गाथा ९६ की टीका, कुन्दकुन्द कहान सर्वोदय
ट्रस्ट, जयपुर १९९६, पृ० १८२. ३. आचार्य अमृतचन्द, पंचाध्यायी, दिगम्बर जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अलवर
१९९६ ईस्वी, गाथा ८, पृ० ३-४. ४. आचार्य कार्तिकेय स्वामी, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, जयपुर १९९६, गाथा २२७, पृ०
१०२. ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २२८, पृ० १०३. ६. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली १९९८,
पृ० २३०. ७. प्रवचनसार, गाथा १०२, पृ० २०५. ८. प्रवचनसार, गाथा १०३, पृ० २०७. ९. तत्त्वार्थसूत्र, ५/३७. १०. प्रवचनसार, गाथा १०३, पृ० २०७. ११. आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, जयपुर १९८३, गाथा ३ की टीका, पृ० ११. १२. मोक्ष मार्ग, प्रकाशक - पंडित टोडरमल....., जयपुर १९९५, पृ० ५२. १३. समयसार, गाथा १०३, पृ० १८६. १४. आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गाथा ७ की टीका, पृ० १९.
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भगवती आराधना में समाधिमरण के तत्त्व
डा० सुधीर कुमार राय*
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शिवार्य रचित भगवतीआराधना जैन साहित्य का एक विशिष्ट ग्रन्थ है उसी को केन्द्र बनाकर यह आलेख प्रस्तुत है। इस ग्रन्थ के रचनाकाल के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहा जा सकता है कि आचार्य जिनसेन के महापुराण (लगभग ९वीं शती ई०) से पूर्व ही इसकी रचना हुई, किन्तु कितना पूर्व यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा जा सकता। विद्वानों का अनुमान है कि आचार्य कुन्दकुन्द तथा मूलाचार के रचयिता वट्टकेर के समकालीन ही शिवार्य होने चाहिये। ध्यातव्य है कि भगवतीआराधना की अन्तिम उपलब्ध टीका आशाधर की है जो विक्रम की तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में रची गयी है और विक्रम की नवम् शताब्दी में रचित महापुराण में भगवतीआराधना तथा उसके रचयिता शिवार्य का स्मरण किया गया है। इसकी विजयोदयाटीका भी इसी काल अर्थात् नवीं शती ई० की रचना होनी चाहिये और विजयोदयाटीका की रचना के समय उसके रचयिता के सामने एक नहीं, अनेक व्याख्यायें थीं। कुन्दकुन्द एवं शिवार्य की रचनाओं में कुछ गाथागत समानता के आधार पर हम भगवतीआराधना को समकालीन मान सकते हैं। भगवतीआराधना का रचना काल विद्वानों ने विक्रम की तीसरी से पाँचवी शती ई० के मध्य माना है। भगवतीआराधना
और अपराजितसूरि द्वारा रचित इसकी टीका विजयोदया एक ऐसी परम्परा का ग्रन्थ है जिनमें श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही सम्प्रदायों के लक्षण विद्यमान हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय साधुओं के वस्त्र आदि का समर्थक ही नहीं, अपितु पोषक भी है, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में यह स्वीकृत नहीं है। दूसरी ओर आचारांग आदि आगम ग्रन्थ श्वेताम्बर सम्प्रदाय में ही मान्य हैं, किन्तु दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं। भगवतीआराधना और इसकी टीका से प्रकट होता है कि एक ओर इसके रचयिता अपरिग्रह सिद्धान्त के कारण वस्त्र आदि के विरोधी प्रतीत होते हैं और दूसरी ओर आगम ग्रन्थों को मान्य करते हैं। निश्चित ही इनका सम्बन्ध उस परम्परा से है जो श्वेताम्बर-दिगम्बर सम्प्रदाय से भिन्न है और जिसे यापनीय सम्प्रदाय के नाम से जाना जाता है। इसी यापनीय परम्परा के अन्तर्गत मूलाचार तथा भगवतीआराधना एवं इसकी विजयोदयाटीका की रचना हुई। किन्तु जहाँ तक समाधिमरण का प्रश्न है यह अवधारणा तो आचारांग जैसे प्राचीनतम अंग आगम में भी उपलब्ध है जिसका रचना काल विद्वानों ने ई०पू० पांचवीं* पोस्ट डाक्टोरल फेलो (आइ०सी० एच०आर०), पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी
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चौथी शताब्दी माना है। यह सत्य है कि मरणसमाधि एवं भगवतीआराधना ऐसे ग्रन्थ हैं जो सल्लेखना या समाधिमरण के अवधारणा की अतिविस्तार से चर्चा करते हैं, किन्तु यह अवधारणा तो अतिप्राचीन है। आचारांगसूत्र चाहे इतने विस्तार से तो नहीं फिर भी समाधिमरण की सम्पूर्ण प्रक्रिया का उचित विश्लेषण प्रस्तुत करता है।
जन्म और मृत्यु जीवन रूपी श्रृंखला के दो छोर हैं। जन्म जीवन का एक शरीर में प्रारम्भ है तो मृत्यु उस शरीर में उसकी समाप्ति। जन्म की अन्तिम परिणति मृत्यु में है। जन्म के साथ मृत्यु अनिवार्य रूप से जुड़ी है। जो जन्म लेता है उसकी मृत्यु अवश्य होती है। अगर जीने का अपना मूल्य है तो मरने का भी अपना अलग मूल्य है। जीवन में संयोग का सुख है, इस कारण जीना अच्छा लगता है, जबकि मृत्यु में वियोग का दुःख है, अत: वह अच्छी नहीं लगती है। फिर भी मृत्यु की अनिवार्यता या अपरिहार्यता से कोई इन्कार नहीं कर सकता है। मृत्यु अपरिहार्य है। इसे स्पष्ट करते हुए आचारांग में कहा गया है कि मृत्यु अनागम (नहीं आना) नहीं है। मृत्यु अवश्य ही आयेगी। यह अवश्यम्भावी योग है, अपरिहार्य स्थिति है, इससे बचा नहीं जा संकता। तात्पर्य यह है कि मृत्यु प्राणी की एक विवशता है। वह जन्मा है, इसलिए उसे मरना भी होगा। यही ध्रुव सत्य है। अत: मरना निश्चित ही है तो इस निश्चित मृत्यु से भय कैसा? यही कारण है कि भारतीय चिन्तकों ने जीवन की भांति मरण को भी अपने चिन्तन में पर्याप्त स्थान दिया है। जैन एवं जैनेतर विद्वानों का इस सम्बन्ध में मत है कि जीवन में जन्म सर्वोपरि है, परन्तु यही एक मात्र सत्य नहीं है। जन्म वर्तमान जीवन अथवा जीवन का निर्धारक है, जबकि मृत्यु भावी जन्म या जन्मों की निर्धारक है। जैन चिन्तक इस हेतु इस बात पर बल देते हैं कि मृत्यु की बेला में साधक को अधिक सजग रहना चाहिये। उसे मृत्यु का शोक न करके आनन्दपूर्वक उसका स्वागत करना चाहिये। जैन लोग मात्र इस प्रकार चिन्तन ही नहीं करते, वरन् मृत्यु महोत्सव का आयोजन व्यावहारिक रूप में भी करते हैं। यह जैन परम्परा का अपना वैशिष्ट्य है जो अन्यत्र दुर्लभ है। मृत्यु महोत्सव को वे आराधना या साधना का एक अंग मानते हैं।
जैन चिन्तन में मानव का अन्तिम लक्ष्य आत्मा के स्वरूप की प्राप्ति है। इस हेतु आराधना का आश्रय लेना पड़ता है। आराधना क्या है? इसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप के उद्योतन, उद्यवन, निर्वहन, साधन और निस्तरण को आराधना कहते हैं। आराधना के दो भेद हैं - प्रथम सम्यक्त्वाराधना और दूसरी चारित्राराधना। दर्शन की आराधना करने पर ज्ञान की आराधना नियम से होती है, किन्तु ज्ञान की आराधना करने पर दर्शन की आराधना भजनीय है, वह होती भी है और नहीं भी होती, क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान नियम से होता है, परन्तु ज्ञान के होने पर सम्यग्दर्शन के होने का नियम नहीं है।
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संयम की आराधना करने पर तप की आराधना नियम से होती है किन्तु तप की आराधना में चारित्र की आराधना भजनीय है; क्योंकि सम्यग्दृष्टि भी यदि अविरत है तो उसका तप हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ है। अतः सम्यक्त्व के साथ संयमपूर्वक ही तपश्चरण करना कार्यकारी होता है, इसलिये सम्यक् चारित्र की आराधना होती है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान पूर्वक ही सम्यक् चारित्र होता है इसलिये सम्यक् चारित्र की आराधना में सबकी आराधना गर्भित है। इसी से आगम में आराधना को चारित्र का फल कहा गया है और आराधना परमागम का सार है। बहुत समय तक भी ज्ञान दर्शन और चारित्र का निरतिचार पालन करके भी यदि मरते समय उनकी विराधना कर दी जाये तो उसका फल अनन्त संसार है। इसके विपरीत सम्यक् चारित्र की आराधना करके आराधक क्षणमात्र में मुक्त हो जाता है। अतः आराधना ही सारभूत है।०
ध्यातव्य है कि दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं तप का उल्लेख अन्य आगमों में भी है, किन्तु वहाँ उनके लिये “आराधना" शब्द का प्रयोग नहीं किया गया। भगवतीआराधना में सर्वप्रथम इस प्रसंग में आराधना का उल्लेख है। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से समाधिमरण का कथन है। मृत्यु के समय की आराधना ही यथार्थ आराधना है, उसी के लिए जीवनभर आराधना की जाती है। उस समय विराधना करने पर जीवन भर की आराधना निष्फल हो जाती है और उस समय की आराधना से जीवनभर की आराधना सफल हो जाती है। अत: जो मरते समय आराधक होता है यथार्थ में उसी के सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप की साधना को "आराधना' कहा जाता है। इस प्रकार आराधना करते हुए मनुष्य को समाधिमरण अंगीकार करना चाहिये।
___ 'समाधिमरण' सामान्य बोलचाल की भाषा में समाधिपूर्वक मरण करने का नाम है। यह समाधिमरण का एक अर्थ अवश्य है, परन्तु जैन परम्परा में समाधिमरण का अर्थ भिन्न है। समाधिमरण में देहत्याग अवश्य किया जाता है, लेकिन नितांत विलक्षण ढंग से। इस अवस्था में साधक दृढ़तापूर्वक शरीर के संरक्षण का भाव छोड़ देता है। आहारादि का त्याग कर निर्विकल्प भाव से एकान्त, पवित्र और शान्त स्थान में आत्मचिन्तन करते हुए आने वाली मृत्यु की प्रतीक्षा की जाती है।११ प्रतीक्षा के इस अनुक्रम में किसी प्रकार की शीघ्रता अथवा विलम्ब की कामना नहीं रहती है, रहती है तो बस एक मात्र भावना आनेवाली मृत्यु के स्वागत की। यही समाधिमरण है जिसे जैन परम्परा में कई नाम दिये गये हैं - सल्लेखना, १२ संथारा, १३ समाधिमरण,१४ पंडितमरण,५ ज्ञानीमरण,१६ सकाममरण,७ उद्युक्तमरण,१८ संन्यासमरण,१९ अंत:क्रिया,२० मृत्युमहोत्सव' आदि।
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विभिन्न जैन ग्रन्थ मृत्यु के स्वरूप की चर्चा करते हुए इसके विभिन्न प्रकारों पर भी प्रकाश डालते हैं। आगमों में मरण के सत्रह प्रकार बताये गये हैं२२१. अवीचिमरण, २. तद्भवमरण, ३. अवधिमरण, ४. आद्यन्तमरण, ५. बालमरण, ६. पंडितमरण, ७. आसमरण, ८. बालपंडितमरण, ९. सशल्लमरण, १०. बलायमरण, ११. वसट्टमरण, १२. विप्पाणसमरण, १३. गिद्धपुट्ठमरण, १४. भक्तप्रत्याख्यानमरण, १५. इंगिनीमरण, १६. प्रायोपगमनमरण और १७. केवलीमरण।
किन्तु भगवतीआराधना के रचनाकार ने संक्षेप में पांच प्रकार के मरणों का उल्लेख किया है - पण्डित-पण्डितमरण, पण्डितमरण, बालपण्डितमरण, बालमरण और बाल-बालमरण।२३ क्षीणकषाय और केवली का मरण पण्डित-पण्डितमरण है जबकि विरत मुनि का मरण पण्डितमरण है एवं विरताविरत श्रावक का मरण बालपण्डितमरण है। अविरत समयग्दृष्टि का मरण बालमरण है और मिथ्यादृष्टि का मरण बाल-बालमरण है। पण्डित-पण्डितमरण के तीन भेद हैं - भक्तप्रतिज्ञा, प्रायोपगमन और इंगिनी। यह मरण शास्त्रानुसार आचरण करने वाले साधु को होता है। ___ उत्तराध्ययन२४ में मरण के दो प्रकारों का विवरण मिलता है - १. अकाममरण और २. सकाममरण। अज्ञानतावश विषय-वासनाओं व भोगों में रत रहना, धर्म का उल्लंघन कर अधर्म को स्वीकार करना तथा मिथ्या जगत को सत्य समझकर हमेशा मृत्यु के भय से भयभीत रहना आदि गुण बाल जीव के हैं। इन जीवों के मरण को ही अकाममरण या बालमरण कहा जाता है। सकाममरण का सामान्य अर्थ होता है कामनासहित मरण। किन्तु यहाँ सकाम शब्द का यह अर्थ अभीष्ट नहीं है। यहाँ सकाम शब्द का अर्थ है - उद्देश्यपूर्वक या साधनापूर्वक मृत्यु का वरण। इसमें मृत्यु का वरण समभावपूर्वक किया जाता है। स्थानांग२५ में भी मरण के दो प्रकार बताये गये हैं - अप्रशस्तमरण एवं प्रशस्तमरण। अप्रशस्तमरण को अधम कोटि का माना गया है जो बारह प्रकार के हैं -
१. बलन्मरण - परीषहों से पीड़ित होने पर संयम त्याग करके मरना, २. वशार्त्तमरण - इन्द्रिय-विषयों के वशीभूत होकर मरना, ३. निदानमरण - भावी जीवन में धन, वैभव, भोग आदि की प्राप्ति की इच्छा रखते हुए मरना, ४. तद्भवमरण - मरकर उसी भव में पुनः उत्पन्न होना और मरना, ५. गिरिपतनमरणपर्वतसे गिरकर मरना, ६. तरुपतनमरण - वृक्ष से गिरकर मरना, ७. जलप्रवेशमरणनदी में बहकर या जल में डूबकर मरना, ८. अग्निप्रवेशमरण - आग में झुलसकर मरना, ९. विषभक्षणमरण - विषपान करके मरना, १०. शस्यावपाटनमरण - शस्त्र की सहायता से मरना, ११. बैहायसमरण - फांसी की रस्सी से झूलकर मरना और
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१२. गिद्धपट्ठ या गृद्धस्पृष्टमरण - विशालकाय मृत पशु के शरीर में प्रवेश करके मरना।
तीव्र कषाय के आदेश से रहित होकर तथा समभावपूर्वक मरण प्राप्त करना प्रशस्तमरण कहलाता है। इस प्रकार के मरण को ही उत्तम माना गया है। इसके दो भेद हैं -
१. भक्तप्रत्याख्यानमरण - आहार-जल का क्रम से त्याग करते हुए समाधिपूर्वक प्राणत्याग करने को भक्तप्रत्याख्यानमरण कहते हैं एवं २. प्रायोपगमनमरण - कटे हुए वृक्ष के समान निश्चेष्ट पड़े रहकर प्राण त्यागने को प्रायोपगमनमरण कहते हैं।
भगवतीआराधना में भक्तप्रत्याख्यान के दो भेद किये गये हैं२६- सविचार एवं अविचार। यदि मरण सहसा उपस्थित हो तो अविचारभक्तप्रत्याख्यान होता है अन्यथा सविचारभक्तप्रत्याख्यान होता है। भक्तप्रत्याख्यान का काल कम से कम अन्तर्मुहूर्त है, ज्यादा से ज्यादा बारह वर्ष और मध्यम अन्तर्मुहूर्त से ऊपर तथा बारह वर्ष से कम का है।२७ फिर भी इसका उत्कृष्ट काल बारह वर्ष कहा गया है। साधक चार वर्ष तक अनेक प्रकार के कायक्लेश एवं तप करता है। दूध आदि रसों को त्याग कर चार वर्ष तक शरीर को सुखाता है। फिर आचाम्ल और निर्विकृति द्वारा दो वर्ष बिताता है। आचाम्ल द्वारा एक वर्ष बिताता है। मध्यम तप के द्वारा शेष वर्ष के छह माह और उत्कृष्ट तप के द्वारा शेष छ: मास बिताता है।२८ इस प्रकार शरीर की सल्लेखना करते हुए वह परिणामों की विशुद्धि की ओर सावधान रहता है। एक क्षण के लिये भी उस ओर से उदासीन नहीं होता।
सल्लेखना के दो भेद हैं२९- बाह्य और आभ्यन्तर। शरीर को कृश करना बाह्य सल्लेखना है और कषायों अर्थात् क्रोध, मान, माया, लोभ को कृश करना आभ्यान्तर सल्लेखना है। बाह्य सल्लेखना के लिये छ: प्रकार के तप का विधान है - अनशन, अवमौदर्य, रसों का त्याग, वृत्तिपरिसंख्यान, कायक्लेश और विविक्त शय्या।' सल्लेखना के समय निम्न वस्तुओं के त्यागने की बात ग्रन्थकार ने कही है। दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और घृत का पूर, पत्राशक, सूप और लवण आदि सबका अथवा एकएक का त्याग रस परित्याग है अर्थात् सल्लेखना काल में दूध आदि का या उनमें से यथायोग्य दो-तीन-चार त्याग रस परित्याग है।३१ सल्लेखना करने वाले को यह 'रस परित्याग' नामक तप का विशेष रूप से पालन करना चाहिये।
क्षपक सल्लेखना के लिये मुनि क्रम से आहार को कम करते हुए शरीर को कृश करता है और एक-एक दिन ग्रहण किये तप से, एक दिन अनशन, एक दिन वृत्तिपरिसंख्यान इस प्रकार से वह सल्लेखना को अंगीकार करता है।३२ विविध प्रकार के रसरहित भोजन, अल्प भोजन, सूखा भोजन, आचाम्ल भोजन आदि से और नाना
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प्रकार के उग्र नियमों से दोनों प्रकार के संयमों को नष्ट न करता हुआ वह अपने बल के अनुसार देह को कृश करता है । ३
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इस प्रकार से सल्लेखना करने वाले या तो आचार्य होते हैं या सामान्य साधु होते हैं।३४ यदि आचार्य होते हैं तो वे शुभ मुहूर्त में संघ को बुलाकर योग्य शिष्य पर उसका भार सौंपकर सबसे क्षमा याचना करते हैं और नये आचार्य को शिक्षा देते हैं। उसके पश्चात् संघ को शिक्षा देते हैं । ३५ इस प्रकार आचार्य संघ को शिक्षा देकर अपनी आराधना के लिये अपना संघ त्यागकर अन्य संघ में जाते हैं । ३६ समाधि का इच्छुक आचार्य निर्यापक की खोज में पाँच सौ सात सौ योजन तक भी जाता है। ऐसा करने में उसे बारह वर्ष तक लग सकते हैं । ३७ इस काल में यदि उसका मरण भी हो जाता है तो वह आराधक ही माना जाता है । ३८ योग्य निर्यापक को खोजते हुए जब वह संघ में जाता है तब उसकी परीक्षा की जाती है। आचार्य परीक्षा के लिये क्षपक से तीन बार उसके दोषों को स्वीकार कराते हैं। यदि वह तीनों बार एक ही बात कहता है तो उसे सरल हृदय मानते हैं किन्तु यदि वह उलटफेर करता है तो उसे मायावी मानते हैं और उसकी शुद्धि नहीं करते। इस प्रकार क्षपक की विशुद्धि, श्रुत का पारगामी और प्रायश्चित्त कर्म का ज्ञाता आचार्य करता है । ३९ परीक्षा के उपरान्त निर्यापक आचार्य अपने संघ के समस्त सदस्यों से पूछते हैं कि यह क्षपक हमारे संघ में आना चाहता है और यहाँ हमारी सहायता से समाधिमरण लेना चाहता है। यदि सभी सदस्य इसके लिये अपनी सहमति प्रदान कर देते हैं तो आचार्य क्षपक को स्वीकार कर लेते हैं । ४०
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इस प्रकार क्षपक समाधिमरण के लिये अनेकों उपक्रम करते हुए निर्यापकाचार्य द्वारा शिक्षा ग्रहण करता है। निर्यापकाचार्य संस्तारक पर आरूढ़ क्षपक को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि अब तुम्हारा मरण समय निकट आ गया है, तुम शुद्धिपूर्वक समाधि करो। तत्त्वश्रद्धान से मिथ्यादर्शन को, सरलता से माया को और निस्पृहता से निदान को दूर करके निःशल्य बनो। व्याधि, उपसर्ग, परीषह, असंयम, मिथ्याज्ञान आदि विपदाओं का प्रतिकार करके वैयावृत्य करने वाले वसति, संस्तारक, पिच्छी आदि का शोधन करके सल्लेखना करो। इन उपक्रमों के पश्चात् आराधना के फलस्वरूप जो मोक्ष या मुक्ति की प्राप्ति होती है, उसे आराधना का फल कहते हैं। आराधना करते क्षपक केवलज्ञानी हो जाता है और वह सम्पूर्ण क्लेशों से मुक्त हो जाता है। उसकी जब मृत्यु होती है तो वह मुक्ति को प्राप्त कर लेता है । ४२
यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि समाधिमरण और आत्महत्या दोनों ही में स्वेच्छापूर्वक शरीर त्याग किया जाता है, फिर इन दोनों में अन्तर क्यों ? यह बता देना आवश्यक है कि जहाँ व्यक्ति मुख्य रूप से अपनी समस्याओं से ऊबकर मन की सांवेगिक अवस्था से ग्रसित होकर आत्महत्या करता है, वहीं समाधिमरण में व्यक्ति
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मन की सांवेगिक अवस्थाओं से पूरी तरह मुक्त होकर समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करता है। ध्यातव्य है कि समाधिमरण को सल्लेखना कहते हैं, सम्यक् रीति से शरीर और कषाय को कृश करने का नाम सल्लेखना है। शरीर बाह्य है तथा कषाय आभ्यन्तर। धीरे-धीरे आहार को घटाने से शरीर कृश होता है और कषाय के कारणों से बचने से कषाय घटती है। शरीर को सुखा डालना और क्रोध, मान, माया, लोभ नहीं घटे तो शरीर का कृश करना व्यर्थ है। आत्महत्या करने वाले की कषाय प्रबल होती है, क्योंकि जो राग-द्वेष या मोह के आवेश में आकर विष, शस्त्र, आग आदि द्वारा अपनी हत्या करता है वह आत्महत्या कहलाता है।
उपर्युक्त विवरण से यह भ्रान्ति हो सकती है कि यदि सल्लेखना ही सच्ची आराधना है अथवा मरते समय की आराधना ही सारभूत है तो मरने से पूर्व जीवन में चारित्र की आराधना क्यों करनी चाहिये? इसका उत्तर है, आराधना के लिए पूर्व में अभ्यास करना उचित है किन्तु सल्लेखना से मृत्यु आराधना की पराकाष्ठा है। सन्दर्भ:
भगवतीआराधना रचनाकार शिवार्य (आचार्य अपराजित सूरि रचित विजयोदया टीका सहित), सं० एवं अनु० - पं० कैलाशचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भाग १-२, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर १९७८ ई० (आगे से संक्षिप्त नाम भ० आ० के रूप में)। इसे मूलाराहणा (मूलाराधना) भी कहते हैं। इसमें २१६६ पद्य शौरसेनी प्राकृत में हैं। यह आठ परिच्छेदों में विभक्त है। इसमें सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इन चार आराधनाओं का निरूपण है। यह ग्रन्थ मुख्यतया मुनिधर्म का प्रतिपादन कर समाधिमरण का स्वरूप समझाता है। कुन्दकुन्द के समयसार की मंगलगाथा 'वंदित्तु सव्वसिद्धे' भगवती की मंगल गाथा 'सिद्धे जयप्पसिद्धे' में हमें शब्दश: और अर्थश: एक सी ही ध्वनि और भावना गूंजती हुई प्रतीत होती है। प्रो० सागरमल जैन भगवती आराधना का रचनाकाल पाँचवीं शती ई० से पूर्व मानते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि इस ग्रन्थ के रचयिता शिवार्य ने अपने तीन गुरुओं के लिये 'आर्य' विशेषण का प्रयोग किया है। साथ ही जिणनन्दी और सर्वगुप्त को गणि भी कहा है। मथुरा एवं विदिशा के अभिलेखों एवं कल्पसूत्र तथा नन्दीसूत्र की “स्थविरावलियों' से हमें यह ज्ञात होता है कि ईसा की पांचवीं शती तक मुनियों के नामों के आगे 'आर्य' तथा साध्वी के लिए 'आर्या' शब्द के प्रयोग का प्रचलन था तथा आचार्य को 'गणि' शब्द से अभिसूचित किया जाता था।
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3.
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(सागरमल जैन, जैन धर्म का यापनीय सम्प्रदाय, वाराणसी १९९६ ई०, पृष्ठ
१२०-१२१)। ३. णाऽणागमो मच्चुमुहस्स अत्थिा आचारांगसूत्रम् : सं० आचार्य श्री आत्माराम जी
जैन प्रकाशन समिति, जैनस्थानक, लुधियाना १९६३ ई०, १. ४. २. १३४। ४. उज्जोवणमुज्जवणं णिव्वहणं साहणं व णिच्छएणं।
दंसणणाणचरित्ततवाणमाराहणा भणिया।। भ.आ. २. ५. वही., ३.
वही., ४. ७. वही., ६.
जम्हा चरित्तसारो भणिया आराहणा पवयणम्मि। सव्वस्स पवयणस्स य सारो आराहणा तम्हा।। भ.आ. १४.
वही., १६. १०. दिट्ठा अणादिमिच्छादिट्ठी जम्हा खणेण सिद्धा या
आराहया चरित्तस्स तेण आराहणा सारो।। भ.आ. १७ ११. रज्जन कुमार, समाधिमरण, पार्श्वनाथ विद्यापीठ ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक १२४,
वाराणसी २००२ ई०, पृष्ठ ३. १२. सर्वाथसिद्धिः, सं० फूलचन्द्र सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९५५
ई०, ७.२२. १३. आचारांगसूत्र, गाथा २३५, २४१, पृष्ठ २९१-२९६. १४. उत्तराध्ययनसूत्रम् श्री आत्माराम जी महाराज, खजांचीराम जैन, जैन शास्त्रमाला ___ कार्यालय, लाहौर १९३६ ई०, ५.३. १५. समवायांगसूत्र; सं० मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर
(राजस्थान) १९८२ ई०, पृष्ठ ५४. १६. भ.आ., पृष्ठ ५४-५५. १७. उत्तराध्ययनसूत्र; ५.३, ४, ५. १८. रज्जन कुमार; समाधिमरण पृष्ठ १२. १९. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय; श्री अमृतचन्द्राचार्य, श्रीमद् राजचन्द्र आश्रम, अगास
१९६६ ई०, पृष्ठ ७५. २०. रलकरण्डकश्रावकाचार; सं० पत्रालाल “बसन्त", वीर सेवा मन्दिर ट्रस्ट
प्रकाशन, दिल्ली १९६२ ई०, १२३.
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२१. मृत्यु-महोत्सव, श्री अखिल विश्व जैन मिशन, अलीगंज (एटा) १९५८ ई० २२. एस० सट्टार; परसुइंग डेथ, कर्णाटक युनिवर्सिटी, धारवाड़ १९९० ई०,
पृष्ठ १३-२२. २३. पंडिदपंडिदमरणं पंडिदयं बालपंडिदं चेव।
बालमरणं चउत्थं पंचमयं बालबालं च।। भ.आ. २६. २४. उत्तराध्ययनसूत्रम्: ५.२. २५. स्थानांगसूत्र; श्री मधुकर मुनि, श्री आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान),
१९८९, २. ४. ४११. २६. दुविहं तु भत्तपच्चक्खाणं सविचारमघ अविचारं।।
सविचारमणागाढे मरणे सपरक्कमस्स हवे।। भ.आ.; ६४. २७. रज्जन कुमार, समाधिमरण, पृष्ठ : ९०-९१. २८. भ.आ., २५४-२५६. २९. सल्लेहणा य दुविहा अभंतरिया च बाहिरा चेव। __अब्भंतरा कसायेसु बाहिरा होदि हु सरीरे।। भ.आ.; २०८. ३०. वही., २१०. ३१. वही., २१७. ३२. वही., २४९. ३३. वही., २५०. ३४. वही., २७४. ३५. वही., २७५-२८०. ३६. वही., ३८५. ३७. वही., ४०३-४०४. ३८. वही., ४०६. ३९. वही., ५१७. ४०. वही., ५२०. ४१. वही., ७२०. ४२. इयमुक्कस्सियमाराधणमणुपलित्तु केवली भविया।
लोगग्गसिहरवासी हवंति सिद्धा धुयकिलेसा।। भ.आ.; १९२३.
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वज्जालग्गं का काव्यात्मक मूल्य
रजनीश शुक्ल*
भारतीय साहित्य मानव जीवन के किसी न किसी मूल्य से हमेशा जुड़ा रहा है। शायद इसीलिए, हजारों वर्ष पूर्व का साहित्य आज भी जीवन को आलोकित करने की क्षमता रखता है। संस्कृत साहित्य की क्षमता इस क्षेत्र में जितनी समर्थ है उतनी ही व्यापक उपयोगिता प्राकृत साहित्य की भी है। इस साहित्य के माध्यम से वह जनमानस उभरकर सामने आया है, जिसमें लोक की सहज अनुभूतियां हैं तथा अध्यात्म के अभिनव प्रयोग। प्राकृत भाषा अपनी विविधता व अनेकरूपता के लिए ही प्रसिद्ध नहीं है, अपितु उनका साहित्य भी नित नया रूप धारण करता रहा है। अत: इस साहित्य में जीवन मूल्य की खोज का अध्यात्म के बदलते स्वरूप की पकड़ है, क्योंकि जितने परिवर्तन आठवीं सदी की विचारधारा में मिलते हैं उतने सम्भवतः अन्य सदी में कम मिलते हैं।
इस युग के साहित्यकारों ने विषय शिल्प और भाषा समन्वयबोध को अधिक जाग्रत किया है। जो बात वे कहना चाहते थे उसी के अनुसार शब्द संरचना, रस, अलंकार, छन्द और अपने काव्य सौन्दर्य के माध्यम से ही उसका उपयोग अपने साहित्य में करते थे। इस युग के साहित्यकारों तथा कवियों ने मानव जीवन के विविध पहलुओं को गहराई से देखने-परखने की चेष्टा की है। अत: वे साहित्य को मात्र मनोरंजन का साधन न मानकर जीवन की सूक्ष्म संवेदनाओं, मनोविकारों और भावनाओं का विश्लेषण करने वाला माध्यम मानते हैं। इसी दृष्टिकोण के कारण प्राकृत काव्य साहित्य उद्देश्य परक साहित्य कहा जा सकता है। यह साहित्य इस बात का प्रतिफल है कि जिसके सर्जक सार्थकता के अन्वेषी थे अत: उनके द्वारा लिखा गया साहित्य निर्रथक एवं उद्देश्यहीनता जैसे दोषों से मुक्त रहा।
साहित्य एवं समाज का अविनाभाव सम्बन्ध होता है। साहित्य में समाज का प्रतिबिम्ब अवश्य पड़ता है। सर्जक सामाजिक प्राणी है, अत: उनकी कृति साहित्यिक सन्दर्भो से सर्वथा मुक्त नहीं रह सकती किन्तु उसका मूल्य जैसा है वैसे ही उसका वर्णन करता है। साहित्य सर्जक का सर्जन सृष्टि के सर्जनहार की दृष्टि से विलक्षण * जे० आर०एफ०, जैनविद्या एवं प्राकृत विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर
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होता है। अत: साहित्य में केवल सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक, मूल्यों का ही वर्णन प्राप्त नहीं होता बल्कि उसके कुछ अपने स्वत: के भी मूल्य होते हैं जो कि रस, छन्द, अलंकार तथा उसके सौन्दर्यों से परिपूर्ण होते हैं। उन्हें ही हम किसी साहित्य का साहित्यिक या काव्यात्मक मूल्य कह सकते हैं।
प्राकृत साहित्य में काव्य का एक विशिष्ट स्थान है। जैन विद्वानों ने प्राकृत काव्यों में प्रायः धार्मिक उपदेशों, आख्यानों और चरितों का ही समावेश किया है, जब कि अजैन विद्वानों के काव्यों में प्रेम और श्रृंगार को प्रमुख स्थान मिला है। प्राकृत साहित्य में अध्यात्मवादी चिन्तनधारा के स्थान पर इहलौकिक यथार्थवादी चिन्तनधारा की मुख्यता है, इसलिए यह साहित्य काफी लोकप्रिय रहा है। इसलिए हमने आठवीं शताब्दी के काव्य वज्जालग्गं को अपने आलेख का आधार बनाया है।
प्राकृत काव्य के कवि संस्कृत एवं प्राकृत दोनों ही भाषाओं पर समान अधिकार रखते थे, इसके बावजूद भी उन्होंने जनजीवन से जुड़ी हुई भाषा में ही अपने लेखन का कार्य किया है। जयवल्लभ द्वारा संगृहीत वज्जालग्गं प्राकृत मुक्तकों का दूसरा प्रसिद्ध कोष है। इसकी रचना गाथासप्तशती के ही आधार पर हुई है। सप्तशती की लगभग सौ गाथाएं भी इसमें ले गई हैं, तथा उसकी साठ व्रज्याओं में से पच्चीस वज्जालग्गं से मेल खाती हैं। गाथासप्तशती के समान यह भी अनेक कवियों की रचनाओं का संग्रह है। जिन कवियों की रचनाएं इसमें संगृहित हैं वे सभी समसामयिक न होकर विभिन्न समयों में प्रादुर्भूत हुए थे। इससे यह सिद्ध है कि गाथासप्तशती की ही बहुत सी गाथाएं, जिनकी रचना वज्जालग्गं से शताब्दियों पहले हुई थी, इसमें मिलती हैं। यह भी अनेकानेक विषयों पर आधारित मुक्तकों का कोष है। श्रृंगारिक पद्यों का बाहुल्य इसमें भी है। हां जीवन के अन्य पक्षों का भी अपेक्षाकृत अधिक चित्रण हुआ है। इस प्रकार तुलना करने पर दोनों के रूप विधान में बहुत अधिक साम्य मिलता है। वज्जालग्गं में क्रमव्यवस्था को ही महत्त्व दिया गया है, यह उसके नाम से ही स्पष्ट है। अर्थात् गाथासप्तशती का नामकरण पद्य संख्या के आधार पर हुआ तथा वज्जालग्गं में क्रम भिन्न प्रकार से अंकित हैं। जैसे विज्जालग्गं, बज्जालग्गं, पद्यालयं और पज्झाल। इसकी संस्कृतछाया में प्रज्ञालय और विद्यालय शीर्षक भी मिलते हैं।
वज्जालग्गं का अर्थ - वज्जालग्गं की व्युत्पति करते हुए पिशेल ने अपने प्राकृत व्याकरण में कहा है कि यह शब्द वज्जा, व्रज्या और लग्ग (देशीनाममाला ७/७, लग्गं = चिन्हम्) = लग्न से बना है। स्वयं ग्रन्थकार के शब्दों में वज्जालग्ग विभिन्न पद्यों के समूहों का ऐसा संग्रह है, जिसके प्रत्येक समूह का एक-एक पृथक् विषय (शीर्षक) होता है, वज्जा का अर्थ स्वयं कवि ने भी किया है -
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एकत्ये पत्थावे जत्थ पढिज्जति पउरगाहाओ। तं खलु वज्जालग्गं वज्ज त्ति य पद्धई भणिया।।४।।
अर्थात् जहाँ एक प्रस्ताव (प्रसंग) में बहुत सी गाथाएं पढ़ी या कही जाती हैं, वज्जालग्ग है। पद्धति को वज्जा कहा गया है। वज्जा शब्द संस्कृत व्रज्या का प्राकृत रूप है। प्राचीन संस्कृत में उसका अर्थ भले ही गमन या मार्ग रहा हो, कालान्तर में वह वर्ग (समूह) के अर्थ में प्रचलित हो गया था। वज्जा क्रम से रचित कोष काव्य अति मनोरम होता है। सजातीय पद्यों के एकत्र सनिवेश (संग्रह) का नाम व्रज्या है। इन उल्लेखों से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में कोष - रचना की दो प्रमुख परिपाटियाँ थीं। एक में अपने अन्य के सुन्दर पद्य इतस्तत: संगृहीत कर दिये जाते थे, उन्हें विषयों के अनुसार एक स्थान पर नहीं रखा जाता था। दूसरे वे जिनमें पद्यों का विषयानुसार वर्गीकरण किया जाता था। एक वर्ग के पद्य एक ही विषय का वर्णन करते थे अतएव वे सभी सजातीय कहलाते थे। प्रथम परिपाटी प्राचीन है और द्वितीय अर्वाचीन। प्राकृत में प्रथम का प्रतिनिधि ग्रन्थ गाहासत्तसई है और द्वितीय का वज्जालग्गं। सम्पूर्ण ग्रंथ ९५ वज्जाओं में (प्रकरणों में) विभक्त है, जिनमें केवल प्राकृत के प्रथित एवं लोकप्रिय छन्द गाहा' (गाथा) का प्रयोग किया गया है। इस छन्द के प्रथम चरण में बारह, द्वितीय में अठारह, तृतीय में बारह और चतुर्थ में पन्द्रह मात्रायें होती हैं।
जैनमुनि जयवल्लभ ने स्वयं अपना परिचय ग्रंथ के तृतीय पद्य में दिया है “रइयं वज्जालग्गं विहिणा जयवल्लहं णाम"। वे दुराग्रहहीन एवं साम्प्रदायिक संकीर्णता से मुक्त व्यक्ति प्रतीत होते हैं। जैन होने पर भी अपने संग्रह में जैनेतर साहित्य को प्रमुख स्थान देना उनके हृदय की उदारता का प्रमाण है। अधिकतर गाथाओं में ब्राह्मणीय परम्परा के पुराणों के ही सन्दर्भ उपलब्ध होते हैं। शिव, ब्रह्मा, विष्णु, लक्ष्मी, पार्वती, गरुड़, क्षीरसागर, कृष्ण, राधा प्रभृत नाम और सागरमंथन, रासलीला, बलिबंधन, अरिष्टासुरमर्दन आदि घटनाओं की इसमें चर्चा है। परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि सम्पूर्ण रंचना केवल मात्र जैनेतर साहित्य से ही लिया गया है। संग्रहकार ने सुभाषित शब्द का प्रयोग जिस व्यापक अर्थ में किया है, उसकी परिधि में रसपेशल काव्य आ जाते हैं। मेरी समझ से सच्चे अर्थों में जिन्हें सुभाषित कहा जाता है वे उपदेश और नीति से सम्बन्धित पद्य तो अधिकतर जैन साहित्य के विभिन्न ग्रंथों से लिए गये होंगे
और रस, अलंकार एवं मनोरम गाथाकोष का प्रणयन किया गया है, उनमें प्रबन्ध काव्य भी हो सकते हैं और मुक्तक काव्य भी। वज्जालग्गं विभिन्न कवियों की मनोरम रचनाओं का संग्रह है, जिसमें अधिकांश गाथाएं मूलत: मुक्तक हैं और कुछ प्रबन्ध, आख्यायिकाओं और चरितकाव्यों से संग्रहीत प्रतीत होती हैं। वज्जालग्गं की अनेक सरस गाथाएं ध्वन्यालोक, काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण, शब्दानुशासन, सरस्वती कण्ठाभरण प्रभृत ग्रंथों में उदाहृत हैं। परन्तु एक भी स्थान पर उनके नाम का उल्लेख
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नहीं है। संभव है कि काव्यशास्त्र के आचार्यों ने उक्त गाथाएं किसी अन्य स्रोत से प्राप्त की हों। इस संग्रहग्रंथ में संग्रहकार ने प्राकृत के अनेक ग्रन्थों से अपने संकलन को तैयार किया है उनमें से कतिपय ग्रंथों यथा चउपन्नमहापुरिसचरिय लीलवई कुवलयमाला कोसाम्बीविप्रकथा' आदि के उदाहरण धीरवज्जा, वसंतवज्जा, रयणयरवज्जा, दिव्यवज्जा जथा दरिद्दवज्जा आदि ग्रंथों में कुछ पाठ भेद के साथ प्राप्त होती हैं।
काव्यमूल्य एवं रसभाव योजना - जब कवि अपने मन, वचन और इन्द्रियों को एक स्थान पर स्थापित कर देता है तब काव्य प्रस्फुटित होता है। हदय की अन्तर्वेदना, भावुकता, सांसारिक अनुभूति इत्यादि को कवि सहजाभिव्यंजक शब्दों द्वारा अभिव्यक्त कर देता है। शास्त्राचार्यों के द्वारा निर्धारित सभी काव्य उपादानों की प्राप्ति वज्जालग्गं में होती है। शब्दालंकार, अर्थालंकार, रस, शब्दशक्तियां, प्रतीक, बिम्ब, छन्द-योजना एवं सौन्दर्य प्रभृति समस्त काव्य तत्व इस काव्य में समाहित हैं। आचार्य भामह ने शब्द, छन्द, अभिधान अर्थ, इतिहासाश्रित कथा, लोक, युक्ति और कला इन आठ तत्वों को काव्य के लिए आवश्यक माना है। इनकी दृष्टि में जिस कवि की कृति में उपर्युक्त आठो तत्व समाहित होते हैं वही कृति काव्य की उच्च पंक्ति में रखने योग्य है। उनका कथन है कि सत्कवित्व के बिना वाणी में वैदग्ध्य नहीं आ सकता और बिना वैदग्ध के कोई भी कृति चमत्कारपूर्ण नहीं हो सकती -
रहिता सत्कवित्वेदन कीदृशी वाग्विदग्धता ।।
भरतमुनि ने श्लेष, प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, पदों की सुकुमारता, अभिव्यंजकता, उदारता और कान्ति आदि दश गुणों को काव्य के लिए उपादेय माना है।१० पर भामह की तत्त्वग्राहिणी प्रतिभा ने प्रसाद माधुर्य और ओज़ इन तीन गुणों को ही अपनी स्वीकृति प्रदान की है।११ इन्होंने वक्रोक्ति को काव्य निष्पादक तत्त्व बतलाकर उसे काव्य के लिए अनिवार्य एवं व्यापक गुण बतलाया है।१२ आचार्य भामह के मत में गुण, अलंकार, अदोषता एवं वक्रोक्ति आदि काव्य के लिए आवश्यक तत्त्व हैं।१३ आचार्य दण्डी के अनुसार उत्तम काव्य में श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता, ओज, कान्ति और समाधि ये दश गुण वैदर्भी मार्ग के प्राण हैं। रीति और गुण का सम्बन्ध स्थापित होने पर ही वैदर्भ काव्य को सत्काव्य कहा जाता है।१४ छन्दकोशादि विविध शास्त्रों के अध्ययन एवं मनन (अनुशीलन) से काव्य प्रणयन में गंभीरता एवं रमणीयता का आधान होता है। अतएव ये दोनों तत्त्व अध्ययन और मनन, काव्य मूल्य के निर्मापक आधारों में से हैं।१५ आचार्य कुन्तक के अनुसार किसी के लिए षड्विध वक्रता का समावेश आवश्यक है। वर्ण चमत्कार, शब्द सौन्दर्य, विषय वस्तु की रमणीयता, अप्रस्तुतविधान एवं प्रबन्ध कल्पना ये
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षड्विध वक्रोक्ति के अन्तर्गत आते हैं।१६ रस, अलंकार, उक्ति वैचित्र, औचित्य एवं मार्गत्रयसुकुमार, विचित्र और मध्यम भी काव्य चमत्कार के सृजन के लिए आवश्यक हैं।१७ मम्मट ने वाच्यर्थ के अपेक्षा व्यंग्यार्थ को उत्तमकाव्य के लिए अत्यधिक उपयुक्त माना है।८
भक्त कवि जगद्धरभट्ट ने शिव की स्तुति करते समय उत्तम काव्य के प्रतिमानों का निर्देश किया है -
ओजस्वी मधुरः प्रसादविशद: संस्कारशुद्धोभिधा - भक्तिव्यक्तिविशिष्टरीतिरुचितैरर्थेभृतालंकृतिः। वृत्तस्थः परिपाकवानविरसः सद्वृत्तिरप्राकृतः शस्य कस्य न सत्कविर्भुवि यथा तस्यैव सूक्तिक्रमः ।।१९
अर्थात् ओज, प्रसाद एवं माधुर्य गुणों का सद्भाव, विशुद्धसंस्कार-युक्त भाषा, विशिष्ट-रीति-सम्पन्नता, सरसता, अलंकार युक्तता, अभिधाशक्ति के साथ लक्षणा और व्यंजना का सद्भाव, सुन्दर छन्दों का समावेश, कैशिकी आदि वृत्तियों का निवेश एवं उक्ति चमत्कार उत्कृष्ट काव्य के लिए आवश्यक प्रतिमान हैं।
उपर्युक्त मतों के समालोचना से उत्तम काव्य के लिए निम्नलिखित तत्त्व आवश्यक हैं -
१. माधुर्यादि गुणों का सत्रिवेश, २. शुद्ध संस्कार युक्तभाषा, ३. अलंकारों का प्रयोग, ४. चमत्कारजन्यता, ५. आह्लादकता, ६. सुकुमारता, ७. भावों की अभिव्यंजना, ८. वैदर्भादि रीतियों का प्रयोग, ९. समरस छन्दों का समावेश, १०. उक्ति वैचित्र्य, ११. चित्रात्मकता, १२. सरल एवं सहृदयाह्लादक शब्दों का उचित विन्यास, १३. अदोषता, १४. मार्गत्रय की योजना, १५. अभिधा के साथ लक्षणा व व्यंजना का सद्भाव, १६. कोमलता, १७. रसमयता, १८. मार्मिकता, १९. संक्षिप्तता, २०. स्वाभाविक अभिव्यक्ति, २१. भावातिरेकता, २२. छन्दोजन्य नाद माधुर्य, २३. भावानुकूल वातावरण, २४. सूक्ष्म संवेदना।
वज्जालग्गं में उत्तम काव्य के उत्थापक सभी तत्व एकत्र समाहित हैं। भावों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति एवं सहत सम्प्रेषणीयता, भाषा की सरलता, समरसता एवं संवेद्यता, छन्दालंकारों का समुचित प्रयोग, रीति, गुणादि की योजना, अन्तर्वेदना, कल्पना चारुता, सूक्ष्मसंवेदना आदि गुण सर्वत्र विद्यमान हैं।
वज्जालग्गं में काव्य सौन्दर्य एवं अलंकार योजना - व्यावहारिक जीवन में साज-सज्जा एवं भव्य रूप सौन्दर्य के द्वारा दूसरे की धारणा को प्रभावित करने की प्रवृत्ति जनसामान्य में पायी जाती है। अपार काव्य संसार में भी काव्य की सुमधुर उक्तियों
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को अत्यधिक चमत्कारपूर्ण, प्रभावोत्पादक बनाने के लिए व्यावहारिक उक्तियों का प्रयोग किया गया है। लोकोत्तर - चमत्कार-वर्णनानिपुण कवियों का कर्म काव्य ब्रह्मास्वादसहोदर तथा विलक्षण होता है। लोकव्यवहार की अनलंकृत उक्तियां अलंकृत होकर चमत्कारपूर्ण भंगीविशेष से कथित होने पर काव्य शब्द से अभिहित होने लगती कवि प्रतिभा से समुद्भूत उक्तियों के अलोकसिद्ध सौन्दर्य को कुछ आचार्यों ने व्यापक अर्थों में अलंकार माना है। २०
अलंकार शब्द का अर्थकरण व्युत्पत्ति है "अलङ्क्रियते अनेन इति अलंकार: ।" वह तत्त्व जो काव्य को अलंकृत अथवा सुन्दर बनाने का साधन हो, अलंकार कहलाता है। अनुप्रास उपमादि अलंकार कहे जाते हैं। भामह तथा उद्भट ने काव्य शोभा के साधक धर्म को अलंकार मानकर गुण, रस आदि को भी अलंकार की सीमा में समेट लिया है।
आचार्य मम्मट के अनुसार काव्य के वे धर्म, जो काव्य के शरीरभूत शब्द एवं अर्थ को अलंकृत कर उसके माध्यम से काव्यात्मभूत रस का भी उपकार करते हों, अलंकार कहलाते हैं। वे अनुप्रास, उपमादि शब्दालंकार एवं अर्थालंकार मनुष्य के हार आदि आभूषण की तरह काव्य के आभूषण होते हैं। स्पष्ट है कि मम्मट ने अलंकार को शब्दार्थभूत काव्य शरीर का भूषण माना है, जो प्रकारान्तर से ही यदा-कदा रस का उपकार करता है। २१
भामह, उद्भट आदि अलंकार को काव्य-सौन्दर्य के लिए अनिवार्य धर्म मानते हैं, पर इससे विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त उपमा आदि का माधुर्य आदि गुणों के साथ सापेक्ष महत्व स्पष्ट नहीं हो पाता। भामह ने काव्य के अलंकार को नारी के आभूषण की तरह स्वीकृत किया है। जैसे- सुन्दर स्त्री आभूषणाभाव में श्रीहीन लगती है उसी प्रकार अलंकार विहीन काव्य शोभारहित है । २२ भामह को कान्त सुख भी अनलंकृत होने पर मनोरम नहीं लगता, पर कालिदास जैसे सुन्दर रसज्ञ "किमिव हि मधुराणों मण्डनं नाकृतिनाम्।।२३ इत्यादि की उद्घोषणा करते हैं।
कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य सर्वस्व स्वीकार किया है। लोकोत्तर चमत्कारपूर्ण भंगीभणिति ही वक्रोक्ति है, जो शब्दार्थ साहित्य का उपकारण होता है, वक्रोक्ति अलंकार है २४ और काव्य का प्राणभूत तत्व है। आनन्दवर्द्धन के अनुसार रस को प्रकाशित करने वाले वाक्य विशेष ही रूपक आदि अलंकार हैं । २५ अलंकार वाच्योपकारक होने के कारण काव्य के शरीर हैं, कभी वे शरीरी भी बन जाते हैं।
इस प्रकार अलंकार शब्दार्थ साहित्य की उत्कृष्टता के उपकारक होते हैं, उसके स्वरूपाधायक नहीं। जैसे ग्राम्य बाला भूषणों से भूषित अत्यन्त रमणीय हो जाती है उसी प्रकार प्रतिभाशाली कवियों की वाणी अलंकारों से मण्डित होकर कमनीय
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एवं श्रवणीय हो जाती है। अतएव काव्य की उत्कृष्टता में अलंकारों का योगदान है। इन्हीं विशेषताओं के कारण इसकी गाथाएं विभिन्न ग्रंथों की शोभा बढ़ा रही हैं। यद्यपि रूपक, उत्प्रेक्षा, परिकर, काव्यलिंग, समासोक्ति, अपहृति, दीपक, तुल्योगिता, अतिशयोक्ति, विरोधाभास, व्यतिरेक, अर्थान्तरन्यास आदि अलंकार स्थान-स्थान पर अनायास ही मिल जाते हैं। तथापि अप्रस्तुत प्रशंसा (काव्यप्रकाशोक्त पंचम भेद, अन्योक्ति) उपमा एवं श्लेष विशेष उल्लेखनीय हैं। कितनी वज्जओं में तो उसी का अखंड साम्राज्य है। करभ, मालती, इन्दिन्दिर, हंस, सुरत, विशेष, कमल-निन्दा, हंसमानस, चन्दन, वट, ताल, पलाश, सुवर्ण, समुन्द्र निन्दा, गज, धवल, लेखक, यान्त्रिक, मुसल और कुपनख वज्जाएं उसी के श्रृंखलाबद्ध उदाहरण हैं। इनमें 'प्रस्तुत वर्णन कहीं अलंकार के रूप में हैं तो कहीं ध्वनि व्यंजक प्रतीक के रूप में। वज्जालग्गं में भावों का तारतम्य अलंकार के रसानुगुण विनिवेश के कारण और भी बढ़ गया है विविध वज्जाओं में यमक (गाथा १८८), रूपक (गाथा १९), उत्प्रेक्षा (गाथा ३१४, ३२२, ३१३), विभावना (गाथा ३९), विशेषोक्ति (गाथा १५२, ४६४), विरोधाभास (गाथा ३३, ५६१), काव्यलिंग (गाथा १७७, ३२१), अतिशयोक्ति (गाथा ५३४) आदि अलंकारों के उदाहरण वज्जालग्गं में प्राप्त होते हैं।
वज्जालग्गं में गीतितत्त्व, छन्द और भाषा - प्रबंधकाव्यों में अनेक भावों की प्रधानता रहती है, लेकिन मुक्तक के लघु कलेवर में केवल एक ही भाव की अभिव्यक्ति समाहित रहती है। क्षणिक भावावेश में किसी वृत्ति अथवा वस्तु के आश्रय ग्रहण के बिना केवल एक ही भावना की अभिव्यक्ति स्वाभाविक रूप से होती है। संस्कृत वाङ्मय में एक भावना प्रधान काव्यों का प्रणयन बहुश: हुआ है लेकिन पृथक् किसी विधा के रूप में नामकृत नहीं है। ऐसी रचनाओं में गेय तत्त्व की प्रधानता रहती है। इसमें आत्मवाद या आत्मनिष्ठता की मुख्यता रहती है। गेयता, रसपेशलता, रसात्मकता आदि गुण ऐसे काव्यों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं।
काव्यशास्त्रकारों ने गीतिकाव्य नामक अलग काव्यविधा को स्वीकृत नहीं किया है। परवर्ती भारतीय आचार्यों ने गीतिकाव्य का सांगोपाग निरूपण किया है। गीति काव्य हृदय की गंभीर भावना का परिणमन है जो सहजोद्रेक पूर्ण प्राकृतिक वेग से नि:सृत होती है। तीव्रभावापन्नता के कारण गीतिकाव्य में रसात्मकता, सबल भावनाओं का स्वतः प्रवर्तित प्रवाह अथवा कल्पना द्वारा रुचिर मनोवेगों का सर्जन होता है।२६ सापेक्षदृष्टि अथवा संकीर्णदृष्टि से कवि अपने व्यक्तित्व से अभिभूत होता है अत: स्वतंत्रचरितों का सर्जन नहीं कर पाता। उसके पात्र उसके व्यक्तित्व का ही भारवहन करते हैं।
उपर्युक्त कथन की समालोचना से स्पष्ट होता है कि गीतिकाव्य में आत्मनिष्ठता का समावेश आवश्यक है। कवि वैयक्तिक भावधारा तथा अनुभूति के अनुरूप लयात्मिका अभिव्यक्ति प्रदान करता है। वैयक्तिकता के साथ अवाधक कल्पना, असीम
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भावुकता तथा निष्कर्षोपलब्धि की मुक्त भावधारा का समावेश गीतिकाव्य में आवश्यक है। वस्तुत: भावातिरेक ही गीतिकाव्य की आत्मा है। कवि अपनी रागात्मिका अनुभूति और कल्पना के द्वारा विषय अथवा वस्तु को भावात्मक बनाता है।
अनुभूति के कारण ही विभिन्न प्रकार की मानसिक प्रतिक्रिया उत्पन्न होती हैं, क्योंकि गीतिकाव्य में कवि की अन्तर्वृत्ति वस्तु या विषय के साथ स्वानुरूपता स्थापित है।
पूर्वोक्त कथनों के अवलोकन से गीति काव्य के निम्नलिखित तत्त्व परिलक्षित होते हैं - १. अन्तर्वृति की प्रधानता
७. चित्रात्मकता २. संगीतात्मकता
८. समाहित प्रभाव ३. पूर्वापर सम्बन्ध विहीनता अथवा निरपेक्षता ९. मार्मिकता ४. रसात्मकता अथवा रंजकता
१०. संक्षिप्तता ५. भावातिरेकता
११. सरलता एवं सहजता ६. भाव सान्द्रता
गीतिकाव्य - ये सभी के तत्त्व वज्जालग्गं में विद्यमान हैं। उपरोक्त काव्य में गेय तत्त्व की प्रधानता भी होती है।
__ संगीतात्मकता - ध्वनि और संगीत का जीवन के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध है। संगीत से मन मोहित होता है और आत्मानन्द में विभोर हो जाता है। संगीत से पशुपक्षी जगत्, मनुष्य, यहां तक कि बालक भी आकृष्ट हो जाते हैं। बालक जब रोने लगता है या सोता नहीं है तो मां लोरी गाकर सुलाती है। वह बालक संगीत के मधुमय स्वर लहरियों में आत्मविस्मृत हो आनन्द विभोर हो जाता है। धर्म, अर्थ और काम आदि त्रिवर्ग संगीत प्रकृष्ट साधक हैं। संगीत से देवता, पार्वती पति शिव भी वशीभूत हो जाते हैं। ग्रामीण जीवन में संगीत का कितना महत्त्व है इसका अनेकशः वर्णन वज्जालग्गं की गाथाओं में प्राप्त होता है।
रसात्मकता - रसमय काव्य के अध्ययन से चित्त एकाग्रता तथा निश्चयता को प्राप्त करता है। चित्तस्थैर्य ही आनन्द का कारण है। आनन्द ही रसस्वरूप है। भारतीय मनीषियों ने रस को सर्वस्व माना है। "नहि रसोदते कश्चिदर्थः प्रवर्तते २७॥ अग्निपुराणकार ने काव्य जीवन के रूप में रस को स्वीकृत किया है। "वाग्वैदग्ध्यप्रधानेऽपि रस एवात्र जीवितम्।।२८ ।
अन्तर्वृत्ति की प्रधानता - गीतिकाव्य में अन्तर्वत्ति की प्रधानता होती है। वज्जालग्गं में यह भूरिश: परिलक्षित होता है।
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पूर्वापर सम्बन्धविहीनता अथवा निरपेक्षता - निरपेक्षता संस्कृत गीतिकाव्य की प्रमुख विशेषता है। गीतिकाव्य के प्रत्येक श्लोक स्वतन्त्र रूप से रसबोध कराने में समर्थ होते हैं।
भावातिरेकता - भावातिरेकता गीतिकाव्य का प्रमुख गुण है।
भावान्विति - गीतिकाव्य में रागात्मिक अनुभूति ही मूल भावना से अनुप्राणित रहती है। गीति का केन्द्र बिन्दु वही मूल भाव होता है, जिसका विश्लेषण - विस्तार कवि गीति के कलेवर में करता है। भावान्विति बुद्धि द्वारा नियन्त्रण का अभाव नहीं है। जब तक बुद्धि का समुचित नियन्त्रण नहीं प्राप्त होता तब तक भावावेश काव्य के रूप में स्थापित नहीं होता। जब बुद्धि भाव की अपेक्षा गौण होती है तब अभिव्यक्ति का माध्यम काव्य होता है, लेकिन जब बुद्धि की अपेक्षा भाव गौण हो जाता है तब वह काव्य नहीं गद्य कहलाता है। निस्संदेह गीतिकाव्य का संबंध कवि की रागात्मिक अनुभूति से होता है।
चित्रात्मकता - गीतिकाव्य की प्रमुख विशिष्टता है चित्रात्मकता। कवि या पाठक के सामने हृदयगत रागों का चित्र अंकित हो जाता है।
मार्मिकता - प्राकृत के मुक्तकों में मार्मिकता का समावेश सर्वत्र पाया जाता है। इसका एक उदाहरण है कि प्रोषितभर्तृका (जिसका पति परदेश गया है)। पुत्रवधु जब अपनी सास के पादवंदन के लिए गयी तो उसके हाथ के दोनों कंगन निकलकर गिर पड़े, यह देखकर उसके गुस्से वाली सास भी रो पड़ी। इससे उस सास के हृदय से मार्मिकता स्वत: ही अभिव्यक्त होने लगती है।२९
सरलता-सहजता एवं स्वाभाविक अभिव्यक्ति - गीतिकाव्य में सरलता, सहजता तथा स्वाभाविक अभिव्यक्ति की प्रधानता होती है।
वज्जालग्गं की छन्द-योजना - जैसे सज्जनों का व्यवहार उनके शील, गुण और सज्जनता की शोभा औचित्यपूर्ण व्यवहार से ही सम्भव है वैसे ही काव्य में गुण, सुन्दर छन्द एवं रसनियोजन तभी सौन्दर्योत्पादक होते हैं जब उनमें औचित्य का समावेश हो।३० वर्ण और शब्दयोजना के औचित्य के समान ही छन्दों का औचित्य भी काव्यगत सौन्दर्य के लिए अत्यावश्यक है। मार्मिक, सरस एवं रसमय अभिव्यक्ति के लिए गुणलंकारादि की तरह काव्य में छन्द-योजना की अनिवार्यता सार्वजनीन है।
अनादिकाल से यह परम्परा प्रचलित है कि अपने ज्ञान के संवर्द्धन एवं प्रचारप्रसार के लिए कवि एवं ऋषि छन्दों का आश्रय लेते थे। संपूर्ण ऋग्वेद छन्दमयी वाणी का प्रवाह ही है। जब कवि या कलाकार अपने संपूर्ण मनोवृत्तियों को एकत्रित कर स्थित हो जाता है, अपने लक्ष्य में अनन्य भाव से रम जाता है, तब उसी साधना के क्षणों में उसकी वाणी अनायास रूपवती नायिका की तरह प्रकट हो जाती है। वह उपमादि
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अलंकारों के साथ-साथ वसन्ततिलकादि सुन्दर लय-तालयुक्त छन्दों का जामा भी पहने रहती है। छन्दों द्वारा भावसंप्रेषण में सरलता आदि का समावेश हो जाता है। कठिन भावों को छन्दों के माध्यम से सहज संवेद्य रूप में अभिव्यक्त कर सकते हैं।
छन्द कवि हृदय से नि:सत एकत्रावस्थित मनोवृत्तियों का सन्दर प्रवाह है, जो एक नियत और निश्चित दिशा की ओर जाता है। कठिन से कठिन विषयों को वे छन्दों के माध्यम से सहज एवं ग्राह्य बना लेते हैं।
प्राकृत काव्यों का लोकप्रिय छन्द गाहा है। इसलिए वज्जालग्गं के कवि ने पूरी एक पद्धति में ही गाहा छन्दों के महिमा का गुणगान किया है। इसमें प्राप्त गाहा छन्द का रस, महिलाओं के विभ्रम और कवियों के उल्लास किसका हृदय नहीं हर लेते - कस्स ण हरंति हिययं (व. ३/५)। गाथा छन्दों के न जानने पर भी कवि ने कटाक्ष किया कि जो लोककथाओं के गीतों के प्रौढ़ महिलाओं और तंत्रीनादों के रस को नहीं जानते, उनके लिए अज्ञान ही सबसे बड़ा दण्ड है। (व. ३/९)। एक गाथा कवि ने स्वयं (गाहा) को ही चेतावनी देते हुए कहा है कि अरसिक गवार लोगों से तुम दूर-दूर ही रहना, जो तुम्हें भली-भांति गा नहीं सकते नहीं तो वे तुम्हें अपने दांतों से चबा-चबाकर तुम्हें पीड़ा पहुंचाते हुए उसी तरह तोड़कर लघु बना देंगे (तुम्हारी गुरुता नष्ट कर देंगे), जैसे गांव के लोग ईख के डण्डे को कठोर दांतों से काट-काटकर छोटा कर देते हैं। गाथा गायन एक विशिष्ट कला है। (व. ३/८)
वज्जाओं में निर्दिष्ट विषय ही गाथाओं के प्रतिपाद्य हैं। वज्जाओं में भी सर्वत्र विषय-भेद नहीं है। बहुत सी वज्जायें बिल्कुल समान भाव भूमि का ही स्पर्श करती हैं। विरह, प्रोषित, प्रियानुराग, हदयसंवरण, बाला संवरण और ओलग्गाविया की भावभूमि एक है। उनमें प्राय: विरह का वर्णन है, हंस और चन्दन में केवल प्रतीकभेद हैं, विषय-भेद नहीं। अप्रस्तुतप्रशंसा के स्थलों पर प्राय: भिन्न-भिन्न वज्जाओं में एक ही व्यंग्य की पृथक् प्रतीकों के माध्यम से प्रतीति कराई गई है। ऐसे स्थलों पर बाह्य-भेद होने पर भी आन्तरिक भेद नगण्य हैं। विभिन्न वज्जाओं में वैसे भी बिल्कुल समान पदावली प्राय: दृष्टिगत होती है इस दोष के मार्जन के लिये यही कहा जा सकता है कि संग्रहकार ने समान भाव, समान रचना-पद्धति और समान शब्द-योजना से सम्बन्धित गाथाओं को तुलनात्मक दृष्टि से एक साथ संगृहित कर दिया होगा परन्तु यह सब होने पर भी वज्जालग्गं सरसता और मौलिकता की दृष्टि से एक अनुपम काव्य है। उसमें भाव, कल्पना और शिल्प-तीनों का अद्भुत साहचर्य है। रसों का तारम्य जहाँ उसे भाव पक्ष के उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करता है, वहीं शैलीगत वैदग्ध्य और भणिति भंगिमा के कारण उसका कलापक्ष भी कमनीय बन गया है। इसी कारण से वज्जालग्गं की गाथाओं में जहां प्राचीन काव्य रूढ़ियों का अनुवर्तन है वहां भी एक नवीनता दिखाई देती है। करुणा, मैत्री, परोपकार, दान, प्रणय, नीति, सदाचार,
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उदारता, उत्साह आदि मानवीय गुणों की सत्प्रेरणा देने वाला अपने आप में एक अनुपम काव्य का महत्त्व प्रदर्शित करता है। यह काव्य समाज का यथार्थ एवं उभयपक्षी चित्र प्रस्तुत करने के कारण कोरे आदर्शवादी काव्यों के समान एकांगी नहीं है। समाज में शिव और अशिव, पीयूष और कालकूट, राम और रावण पर इस काव्य में संक्षिप्त विवेचन किया गया है। अत: यह काव्य सच्चे अर्थों में एक साहित्यिक कृति है।
इस ग्रंथ के प्रारम्भिक दो वज्जाओं में काव्य, काव्य श्रोता और काव्य समीक्षकों के सम्बन्ध में अनेकों मान्यताओं का निरूपण किया गया है। प्रारम्भ में श्रुतदेवी को प्रणाम कर सुभाषित संग्रह के प्रयोजन के साथ प्राकृतकाव्य का माधुर्य और श्रृंगारपेशलत्व प्रतिपादित किया गया है। इसके अनन्तर वज्जालग्गं का अर्थ और उसके पारायण से मिलने वाले फल का संक्षिप्त वर्णन है। प्रारंभ की दो वज्जाओं (गाहावज्जा और कव्ववज्जा) में काव्य से सम्बन्धित कुछ मान्यताओं के संकेत हैं।
कवि कहता है कि काव्य रचना कष्टसाध्य होती है, उसका पाठ करना भी सरल कार्य नहीं; परन्तु उसके मर्मज्ञ श्रोता सबसे दुर्लभ हैं। जब सहृदय श्रोता उपलब्ध हो जाते हैं, तब किसी भी भाषा का काव्य अपूर्व रस देने लगता है (६, ७) क्लिष्टत्व काव्य का प्रमुख दोष है, उसके रहने पर अलंकार, लक्षण और गेयत्व - सभी गणों से मंडित गाथा भी चित्त में खेद उत्पन्न करती है (९, १०) गाथाओं का मर्म (ध्वनितत्व) सहृदय संवेद्य है (११)। वही रचना कामिनी के समान आनन्द प्रदान करती है, जो सुन्दर छन्दों एवं सुललित शब्द योजना के साथ-साथ अलंकार और रस से युक्त हो (१२)। सत्काव्य दोषहीन, ललितपद विन्यासयुक्त, स्फुट (प्रसाद गुणयुक्त) और मधुर होता है (२४)। ।
प्राकृत काव्यों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे मधुर वर्गों और छन्दों से विभूषित, श्रृंगार बहुल तथा देशी शब्दों से युक्त होते हैं। स्फुटता (प्रसादत्व), विकटता गाम्भीर्य और प्रावृतार्थता (ध्वनिगर्भितता) उनके प्रमुख गुण हैं (१०) ऐसे श्रृंगार रस से लबालब भरे, युवतीजन-वल्लभ और मधुराक्षर प्राकृत काव्यों के रहते भला कोई संस्कृत कैसे पढ़ सकता है? अन्त में अपार निष्ठा के उद्गार प्रकट करते हुए प्राकृत काव्य, प्राकृत-कवि और प्राकृत-काव्य-मर्मज्ञ को प्रणाम किया गया है।
ध्वनि, अलंकार, गेयत्व और ललित पदविन्यास की सुषमा से मंडित इसकी प्रसन्न गम्भीर शैली प्रत्येक हृदय को मुग्ध कर देती है। इस काव्य में रसों का भी सजीव व मार्मिक चित्रण उपस्थित किया गया है। वीर रस के उदाहरण के लिए कवि ने रणभूमि का चित्रण किया है जहां पड़े सैनिकों के शव को गिद्ध ले जा रहे हैं, परन्तु वह उस पीड़ा को असह्य होने पर भी इसलिए सह रहा है कि पास में पड़े हुए स्वामी की मूर्छा पंखों की हवा से टूट न जाय। इसी प्रकार से हास्य रस का भी सुन्दर चित्रण
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कवि ने कुछ इस प्रकार किया है कि “कृपण अपना धन जमीन में इसलिए गाड़ देता है कि हमें एक दिन रसातल में जाना ही है तो पहले से ही प्रस्थान क्यों न रख दें"।३२ इसी क्रम में कवि ने शान्त रस का भी बड़ा ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है यथा मनुष्य की आयु सौ वर्ष है। उसमें आधी रातें निकल जाती हैं। उस शेष आधे भाग का भी आधा जरा और शैशव छीन लेते हैं। जीवन जल बिन्दु के समान है, यौन जरा के साथ उत्पन्न होता है, सब दिन समान नहीं होते तब भी लोग क्यों निष्क्रिय बने रहते हैं।३३ रौद्र और भयानक रसों का भी उदाहरण मिल जाता है। इस प्रकार वज्जालग्गं में रसों का अभाव नहीं है, परन्तु उसका प्रधान रस श्रृंगार ही है। सम्पूर्ण ग्रंथ प्रणय के मनोरम चित्रों से परिपूर्ण है। वज्लालग्गं में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का चारुचित्रण है। यद्यपि संभोग और विप्रलम्भ दोनों के उदात्त वर्णनों से वन्जायें भरी पड़ी हैं परन्तु प्राधान्य विप्रलम्भ का ही है। वाह और सुरय वज्जाओं को छोड़कर अन्य वज्जाओं में उसी का साम्राज्य है। जीवन में वियोग की व्याप्ति अधिक है संयोग के अवसर नितान्त सीमित हैं। विरह को वास्तविक अग्नि कहा गया है। वह काम रूपी वायु से प्रेरित और स्नेह रूपी ईंधन से उद्दीपित होने पर असह्य बन जाता है। सन्निपात के समान उसमें ज्वर, शीत और रोमांच के लक्षण प्रकट होते हैं।
विरहताप के वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। शीतोपचार की रूढ़ियों को स्वीकार किया गया है। चन्द्र और चन्दन भी विरहिणियों को दग्ध करते हैं। वे प्राय: अनंग
और चन्द्र को उपालंभ देती हैं। कहीं-कहीं नि:स्वार्थ प्रणय के ऐसे उदात्त वर्णन भी मिलते हैं, जहाँ प्रेमिका प्रेमी के सुधासिक्त अंगों के स्पर्श की भी इच्छा नहीं करती, उसे देख लेना ही पर्याप्त समझती है -
अच्छउ ता फंससुहं अमयरसाओ वि दूररमणिज्ज। दंसणमेत्तेण वि पिययमस्य भण किं ण पज्जत्तं।।४०७
(प्रियानुराग वज्जा) वज्जालग्गं का भणिति वैदग्ध्य अद्वितीय है। विविध भावों का परिपोष और रसों का अतिरेक, इसकी विशेषतायें हैं। काव्यशास्त्र में रसादि को असंलक्ष्य-क्रम ध्वनि कहा गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ में विभिन्न रसों का अभाव न रहने पर भी श्रृंगार की ही प्रमुखता है। अनेका वज्जाओं में करुण, वीभत्स, वीर, अद्भुत और शान्त रसों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। इसी प्रकार से ग्रंथ में ध्वनि, वक्रोक्ति और अलंकृति से परिपूर्ण है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वज्जालग्गं के काव्यात्मक मूल्य सभी वज्जाओं में प्राप्त होते हैं। सन्दर्भ: १. विविहकइविरइयाणं गाहाणं वरकुलाणि घेत्तुण। रइयं वज्जालग्गं विहिणा
जयवल्लहं नाम।। वज्जालग्गं, गाथा ३.
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२. पिशेल, प्राकृत व्याकरण, नियम १२. ३. पढमं बारह मत्ता बीए अट्ठारहेहि संजुत्ता।
जह पढमं तह तीयं दहपंच विहुसिआ गाहा।। प्राकृत पैंगलं १.५४ ४. ता तुंगो मेरुगिरी मयरहरो ताव होई दत्तारो।।
ता विसमा कज्जगई, जाव ण धीरा पवज्जति।। चउपत्रमहापुरिसचरितं २९/
३ मिलाइए गाथा १०३ धीरवज्जा। ५. गहिऊण चूय-मंजरि कीरो परिभमइ पत्त-लाहत्थो।
ओसरसु सिसिर-णरवइ पुहई लद्धा वसंतेण।। लीलावई ७४/१, मिलाइये गाथा
६३५ वसंतवज्जा। ६. कुवलयमालाकहा, पृ० ३, मिलाइये गाथा ७४५ वडवानलवज्जा।
कुवलयमालाकहा, पृ० १२, मिलाइए गाथा १२० दिव्ववज्जा। ७. कोसाम्बीविप्रकथा, पृ० ५३४, मिलाइए गाथा १४४ दरिद्दवज्जा। ८. काव्यालंकार, सूत्र १.९ ९. काव्यालंकार, सूत्र १.४ १०. नाट्यशास्त्र २७.९६ ११. काव्यालंकार, १.१ १२. काव्यालंकार ५.६६ १३. काव्यालंकार ३.५४ १४. काव्यादर्श १.४१ - ४४ १५. काव्यालंकार १.४ की टीका १६. काव्यालंकार १.१८ १७. वक्रोक्तिजीवितं १.६, २३, २४, ५३ १८. काव्यप्रकाश १.२.४ १९. स्तुतिकुसुमांजलि ५.३३ ।। २०. सौन्दर्यमलंकार: - वामन, २१. मम्मट, काव्यप्रकाश ८.६७
काव्यालंकार सूत्रवृत्ति १.२ २२. भामह, काव्यालंकार १.१३ २३. अभिज्ञानशाकुन्तलम् १.२० २४. कुन्तक, वक्रोक्तिजीवितं १.१० २५. आनन्दवर्धन, ध्वन्यालोक, २ २६. हिन्दी साहित्यकोष, पृ० २६२ २७. भरत, नाट्यशास्त्र, अ० ०६ २८. अग्निपुराण, ३३६/३३ २९. गाहासत्तसई ५/९३ ३०. क्षेमेन्द्र, औचित्यविचारचर्चा, कारिका १९ और उसकी टीका ३१. पक्खणिलेण पहुणो विरमउ मुच्छ त्ति पासपडिएण।
गिद्धंतकड्ढणं दूसहं पि साहिज्जइ भडेण।। १७७ सुहडवज्जा। ३२. निहणंति धणं धरणीयलम्मि इय जाणिऊण किविणजणा।
पायाले गंतव्वं तद्गच्छत्वग्रस्थानमपि।। ५८० किविणवजा। ३३. वरिससयं णरआऊ..........बालभावो य॥ ६६६ जरावज्जा।
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पूर्वमध्यकाल में स्त्रियों की दशा (त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित के संदर्भ में)
डॉ० उमेश चन्द्र श्रीवास्तव*
हेमचन्द्र विरचित त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित में स्त्रियों की दशा का वर्णन तत्कालीन समाज के अनुकूल किया गया है। इस ग्रन्थ में वर्णित नारी कर्तव्य पालन तथा त्याग की भावना से युक्त दिखायी देती है। उसके जीवन को ग्रन्थकार ने पुत्री, पत्नी तथा माता के रूप में चित्रित किया है।
कन्या - भारतीय समाज पितृसत्तात्मक होने के कारण पुत्र प्राप्ति की विशेष अपेक्षा रखता है। हेमचन्द्र ने भी इसी दृष्टिकोण को अपने ग्रन्थ में प्रस्तुत किया है लेकिन पुत्री की उपेक्षा भी नहीं की है। ग्रन्थ में पुत्री की कामना स्पष्ट रूप से दिखायी देती है। कन्या के जन्मोत्सव पर अत्यन्त प्रसन्नता दिखायी गयी है। वह परिवार के स्नेह की सम्पत्ति मानी गयी है। अनेक पुत्रों के बाद पुत्री का जन्म अधिक प्रसन्नता का विषय है। यद्यपि हेमचन्द्र ने पुत्र तथा पुत्री को समान दृष्टि से देखा है तथापि उनके ग्रन्थ से यह स्पष्ट परिलक्षित होता है कि कन्या बढ़े हुए ऋण, वैर तथा बीमारी आदि के समान है। ऐसी दशा में हेमचन्द्र ने एक स्थल पर नवजात पुत्री को त्याग देने का उदाहरण दिया है।
इसमें सन्देह नहीं कि समाज में स्त्री कन्या के रूप में प्रतिष्ठित थी। हेमचन्द्र ने कैकेयी, प्रीतिमती, कनकवती आदि कन्याओं को अत्यन्त विदुषी रूप में चित्रित किया है जिससे ज्ञात होता है कि स्त्रियों को उच्च शिक्षा भी दी जाती थी कन्यायें राजनीतिक विषयों से सम्बन्धित ज्ञान भी प्राप्त करती थीं। कैकेयी दशरथ के साथ युद्धस्थल में गयी थी। राजा नहुष की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी सिंहिका ने सेना का नेतृत्व किया था। स्त्रियों में घुड़सवारी का शौक भी दिखायी देता है। तत्कालीन नारी द्वारा स्वयंवर में उक्त कलाओं की प्रतियोगिता प्रदर्शित की जाती थी। इन कलाओं में हराने वाले पुरुष ही उसका वरण करता था। प्रीतिमती१०, गन्धर्वसेना, श्राविका तथा सुण्येष्ठा आदि नारियां ऐसी थीं जिन्होंने स्वयंवर में भाग लेकर अपने पति का वरण किया था। सुलसा तथा सुभद्रा ने वेद-वेदांगों की प्रतियोगिता में याज्ञवल्क्य के साथ भाग लिया था। इस प्रकार ज्ञात होता है कि उस समय कन्याओं को हर प्रकार की कलाओं में पारंगत किया जाता था। * प्राध्यापक, प्राचीन इतिहास, महिला महाविद्यालय, बस्ती, उत्तर प्रदेश
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पत्नी - हेमचन्द्र ने पत्नी रूप में नारी का उल्लेख विस्तार से किया है। उन्होंने पत्नी के लिए नारी, गृहिणी, भार्या, भामिनी, कामिनी, रमणी, सहधर्मिणी आदि१४ शब्दों का प्रयोग किया है। ये कुल के लिए वरदानस्वरूप थीं क्योंकि अपने कर्तव्यपालन एवं शुद्धाचरण से पितृकुल एवं पतिकुल दोनों वंशों को उज्जवल करती थीं।१५ हेमचन्द्र ने स्वच्छन्द न होना कुलीन स्त्रियों का स्वाभाविक धर्म बताया है।१६ हेमचन्द्र ने सौन्दर्य की प्रतिरूप नारी को उसके पतिव्रत धर्म के कारण अत्यन्त श्रेष्ठ माना है। तत्कालीन समाज में स्त्री का सतीत्व ही सर्वस्व माना जाता था।१७ उसके गृहस्थ जीवन का सुख उसके पतिव्रत धर्म में निहित था।१८ पतिव्रता स्त्री अपने सतीत्व के प्रभाव से असंभव को संभव बना देती थी। सतीत्व के आचरण से ही दमयन्ती ने राक्षसी से अपनी रक्षा की थी९ और जल प्राप्त कर अपनी प्यास बुझायी थी।२० पतिव्रत धर्म के आचरण से ही सीता रावण तथा मन्दोदरी द्वारा समझाये जाने पर भी विचलित नहीं हुई थी।२१ नेमि की भावी पत्नी राजीमती ने अपने देवर रथनेमि से सतीत्व की रक्षा हेतु श्राप का आश्रय लिया।२२ द्रौपदी ने भी अपने सतीत्व का प्रभाव दिखाया था।२३ इससे ज्ञात होता है कि तत्कालीन समाज में स्त्री के सतीत्व का महत्व तथा प्रभाव स्वीकार किया जाता था।
हेमचन्द्र ने दाम्पत्य जीवन का सन्दर चित्रण किया है। यहाँ पति-पत्नी का पारस्परिक व्यवहार अत्यन्त सौहार्दपूर्ण वर्णित है।२४ नल - दमयन्ती के माध्यम से पति-पत्नी का जो पारस्परिक अनुराग एवं प्रेम वर्णित है, वह किसी भी दम्पत्ति के स्वाभाविक मनोदशा का चित्रण हो सकता है।२५ पत्नी पति से केवल प्रेम ही नहीं करती अपितु उसकी आज्ञा का पालन भी करती है। इस दृष्टि से वह उसकी दासी ज्ञात होती है। आज्ञा-पालन के कर्तव्य का पालन करने के कारण हेमचन्द्र उसे कुलवधू का आभरण और मण्डन की संज्ञा देते हैं।२६ उनका कहना है कि स्त्री को सदैव अपने स्वामी के कष्टों एवं दुखों की चिन्ता करनी चाहिए।२७
हेमचन्द्र ने पति-पत्नी के पारस्परिक साहचर्य का उल्लेख किया है और यह बताया है कि पत्नी पति के मार्ग का कण्टक नहीं अपितु उसके उच्चादर्श की प्राप्ति में सहायक होती है। सीता राम के वनगमन के समय उसकी सहायिका के रूप में कार्य करने के लिए माता अपराजिता से आज्ञा मांगती है। अपराजिता भी सीता को यथार्थ उपदेश देकर उसे अपने मार्ग पर अग्रसारित होने की प्रेरणा देती है।२८ इससे पता चलता है कि पति का अनुगमन करने वाली स्त्री को कोई भी रोक नहीं सकता था। इस प्रकार ज्ञात होता है कि इस समय स्त्री पत्नी रूप में एक आदर्श गृहणी मानी जाती थी जो भारतीय परंपरा के अनुकूल था।
माता - हेमचन्द्र ने प्रेम की नैसर्गिक परिणति मातृत्व में की है। उस समय नारी माता के रूप में पूज्यनीय एवं सम्माननीय थी। आलोच्य ग्रन्थ में भी सन्तानोत्पत्ति
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के बाद ही नारी माता के रूप में प्रतिष्ठित मानी गयी है।२९ सन्तानरहित स्त्री को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता था। अनपत्य होने पर नारी अपना सम्पूर्ण जीवन निरर्थक मानती थी।३० अत: अनेक उपायों द्वारा सन्तानोत्पत्ति की कामना की जाती थी।३१ इस प्रकार माता बनने पर उसकी गरिमा समाज में अत्यधिक उन्नत हो जाती थी। हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में मातृत्व के जिस वात्सल्यभाव का वर्णन किया है वह अन्यत्र कहीं नहीं मिलता।३२ पुत्र के प्रति माता का वात्सल्य वर्णन महावीर, प्रद्युम्न, भामण्डल आदि के वर्णन प्रसंग में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गया है। प्रद्युम्न तथा भामण्डल के अपहरण की सूचना पाकर इनकी माताएं शोकाकुल मुद्रा में मूच्छित हो जाती हैं।३३ सागर के ६० हजार पुत्रों के मर जाने पर माताओं का दुःख करुणा की सीमा को लांघ जाता है।३४ इस प्रकार नारी माता के रूप में करुणा तथा वात्सल्य की साक्षात प्रतिरूप मानी गयी है। हेमचन्द्र का मानना है कि पति एवं पुत्र से युक्त नारी का होना ही उसका वास्तविक जीवन है। इसीलिए इनसे हीन नारी को वे “निर्वीस' शब्द से अभिहित करते हैं।३५ यह उसके दुर्भाग्य का द्योतक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि हेमचन्द्र अपने ग्रन्थ में माता के स्वरूप को विशेष महत्व देते हैं।
गणिका - स्त्री के इन तीनों रूपों के अतिरिक्त हेमचन्द्र ने नारी के गणिका स्वरूप का भी विस्तृत उल्लेख किया है। वास्तव में तत्कालीन सामाजिक परिवेश में नारी का यह स्वरूप गृहस्थ जीवन से मुक्त स्वतन्त्र अस्तित्व का द्योतक है। भारतीय परंपरा में नारी बाल्यकाल में पिता, यौवनकाल में पति तथा वृद्धावस्था में पुत्र द्वारा पोषित एवं रक्षित मानी गयी है.६ किन्तु इससे भिन्न अवस्था में वह अन्य रूपों में भी दिखायी देती है। एक अवस्था उनकी सार्वजनिक उपभोग की है जिन्हें गणिका, वैशिकी, स्वैरिणी, पतिता, वेश्या आदि नामों से अभिहित किया जाता है। हेमचन्द्र ने भी गणिकाओं का उल्लेख किया है जो सार्वजनिक उपभोग की वस्तु थीं जिन्हें वारस्त्री भी कहा जाता था लेकिन ऐसी स्त्रियों को समाज घृणा की दृष्टि से देखता था।३७ गणिकाओं को राजदरबार में उचित तथा महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त था।३८ ऐसी गणिकाओं में मदनमंजरी, अनन्तमालिका, गुणमंजरी, कामलता आदि प्रसिद्ध थीं।३९ गुणमंजरी, राजा पर्वतक के दरबार में राजगणिका पद पर प्रतिष्ठित थी। इसमें स्त्री के अनेक सुलभ गुण विद्यमान थे जिसके कारण राजा पर्वतक उसे प्राणों से अधिक प्रेम करते थे। कभी-कभी ये गणिकायें राजाओं में युद्ध का कारण बन जाती थीं। इसका निर्देश हेमचन्द्र ने विंध्यशक्ति के वर्णन प्रसंग में किया है।४१ दान आदि के प्रसंग में गणिकाओं को अलंकारादि दिये जाने के उल्लेख भी मिलते हैं। २ वैसे सामान्यत: इन्हें राजाओं द्वारा पारितोषिक आदि भी दिए जाते थे। इन गणिकाओं का कार्य राजा तथा दरबारियों का मनोविनोद करना था। इस प्रकार गणिकाएं विशेषत: राजदरबारियों से सम्बन्धित थीं।
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इस प्रकार इस महाकाव्य में स्त्रियों की दशा का वर्णन विस्तार से अनेक प्रसंगों में प्राप्त होता है। उनके मुख्य रूप कन्या, पत्नी तथा माता ही बताये गये हैं किन्तु उनके वाररूपों का वर्णन भी स्थान-स्थान पर प्राप्त होता है। इन वर्णन प्रसंगों में उनके गुणों तथा दुर्गुणों को भी कवि ने निर्देशित किया है।
सन्दर्भ :
१. त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित,
२२ . वही,
२३. वही, २४. वही, ३.८.२१
२५. वही, ८.३.७०३
५. वही, ४.१.४३४, ४९२
२६. वही, ४.५.३०
६. वही, ८.३.२५, ३०, ७.४.१५१२७. वही, ८.७.८२१
७. वही, ७.४.१५६ - १५७
२८. वही, ७.४.४५४ २९. वही, ८.१०.११२ ३०. वही, ८.१०.११९ ३९. वही, ५.१.२०३;
३.३.३२; १०.६.५८
२. वही, ३.३.१७
३. वही, ४.१.१९५ - १९६
४. वही, ८.३.१४ - १७
८. वही, ७.४.७० ७२
८.१.२९७
९. वही, १०. वही, ८.१.४२७
११. वही, ८.२.१६४ - १६५ १२ . वही, १०.६.२००
१३. वही, ८.२.२७५ - २८५ १४. वही, ५.१.८८-८९; ४.७.३६;
४.७.५; ३.१.३६६, ३.३.१७;
४.९.२३२, ३.७.२३; ४.७.३७ १५. वही, ४.४.२२.
१६. वही, १.१.६८३ - ८४ १७. वही, ८.३.६०२; ४.५.२३ १८. वही, ५.१.१२५; ४.१.२६
१९. वही, ८.३.७०९
२०. वही, ८.३.६२२ २९. वही, ७.६.१३० - १७०
८.१०.२८४
८.१०.१७
१०.६.६०; ३.३.३८-३९
३२. वही, ३.३.३२
३३. वही, ८.६.१४१; ७.४.२५ ३४. वही, २.६.१ ३५. वही, १०.११.१५३
३३
३६. मनुस्मृति, ९.३
३७. त्रिषष्टि, ७.५.२१-२२; ५.१.७७ ३८. वही, ४.२.१४५
३९. वही, ५.१.११५; ५.१.५३;
४.२.१४४ - ४५; ७.५.२१ ४०. वही, ४.२.१५७ - १५८ ४१. वही, ४.२.१६२ - १८५ ४२ . वही, ३. ७.१२२
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भारतीय कला को बुद्ध का अवदान
प्रो० अँगने लाल*
कला मानव की भावनाओं या कल्पनाओं का मूर्त स्वरूप है। भारतीय कला धर्म की चिर-संगिनी रही है और यही उसकी सर्वोत्कृष्ट विशेषता है। डा० भोलानाथ तिवारी का मत है कि कला की कृतित्व शक्ति का किसी भी मानसिक तथा शारीरिक, उपयोगी या आनन्ददायी या दोनों से युक्त वस्तु के निर्माण के लिए किया गया कौशल युक्त प्रयोग है।
भारतीय संस्कृति में कला जीवन यापन का सफल ढंग माना गया है और इसीलिए कुछ विद्वान् कला के लिए, कोई जीवन यापन के लिए, कोई प्रचार के लिए, कोई सेवा के लिए और कोई मनोविज्ञान के लिए इसका प्रयोजन मानते हैं । भृर्तहरि ने तो यहाँ तक कह दिया है कि साहित्य, संगीत और कला से विहीन पुरुष पूँछ और सींग रहित पशु ही है
।
-
साहित्य संगीत कला
विहीना। साक्षात् पशु पुंछ विषाण हीना ।।
स्पष्टतः वे साहित्य, संगीत और कला का महत्त्व एक समान स्वीकारते हैं। वास्तव में कला, जीवन यापन और आनन्दानुभूति से अलग अस्तित्व विहीन है। कला के वर्गीकरण के विषय में क्रोंचे, टी० डब्लू० प्रॉल, महादेवी वर्मा आदि विद्वान् कला को अविभाज्य मानते हैं, जबकि अरस्तू, हीगेल, ब्राउन आदि विद्वान् कलाओं के वर्गीकरण के पक्ष में हैं। सर मोनियर विलियम्स कला के दो वर्ग - बाह्य कला तथा आभ्यन्तर कला मानते हैं। हीगेल महोदय कला के विकास के तीन सोपान इस प्रकार मानते हैं
१. प्रतीकात्मक कला, २. शास्त्रीय कला, ३. भावात्मक कला
प्रतीकात्मक कला के अन्तर्गत वास्तुकला; शास्त्रीयकला के अन्तर्गत मूर्तिकला और भावात्मक कला में काव्य, चित्र आदि कलाएँ मानते हैं।
बौद्ध कला इन तीनों में समृद्ध है। जहाँ तक संगीत, नृत्य और वाद्य कला का प्रश्न है, बौद्ध भिक्षुओं के लिए वे पूर्णतः निषिद्ध थीं, लेकिन गृहस्थ बौद्ध अनुयायियों (उपासक उपासिकाओं) के लिए उसका निषेध नहीं था ।
* पूर्व कुलपति, डॉ० राममनोहर लोहिया अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद। वर्तमान पता - आर- २५, सिद्धार्थ लेन, संजयपुरम्, फैजाबाद रोड, लखनऊ- २२६०१६
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१. मूर्तिकला - मूर्तिकला के क्षेत्र में सिन्धु घाटी की मूर्तिकला के बाद तथागत गौतम बुद्ध केन्द्र बिन्दु रहे हैं। वे भारतीय प्रतिमा - विज्ञान के आधार हैं। बौद्ध साहित्य में मूर्ति के लिए 'रूपक' शब्द का प्रयोग किया गया है। पहले भगवान् बुद्ध ने मूर्ति न बनाने का निर्देश अपने शिष्यों को दिया था और इस सम्बन्ध में उन्होंने कहा था कि "मैं और मेरे द्वारा उपदेशित धर्म एक ही हैं। दोनों में कोई अन्तर नहीं है। इसलिए जो मेरे धर्म को कहता, सुनता और समझता है, वही मुझे देखता है और जो मुझे देखता है, वही मेरे धर्म को समझता है। "
यो मं धम्मं पस्सति सो मं पस्सति । यो मं पस्सति सो धम्मं पस्सति । ।
इसलिए उस समय बुद्ध की मूर्तियों की कोई आवश्यकता नहीं थी, केवल उनकी पूजा- अर्चना प्रतीकों के माध्यम से होती थी। ये प्रतीक ही बुद्ध रूप थे, जिनमें चैत्य, शारीरिक धातु, स्तूप और महाबोधि ( महाबोधि वृक्ष) मुख्य थे।
वन्दामि चेतियं सब्बं सब्बठानेसु पतिट्ठितं ।
सारीरिकधातु महाबोधिं बुद्धरूपं सकलं सदा ||
यह प्रतीकात्मक कला भरहुत और सांची के स्तूपों पर उत्कीर्ण मिलती है। सबसे पहले बुद्ध का प्रतीकों के साथ-साथ मानव रूप में अँकन अमरावती (आन्ध्र प्रदेश) स्तूप में हुआ था । तदन्तर गान्धार, मथुरा, सारनाथ और बोधगया के मूर्तिकला केन्द्रों से बुद्ध तथा बोधिसत्वों की अनेक मुद्राओं में प्रतिमायें निर्मित हुईं। जहाँ एक ओर संसार की सबसे विशाल बुद्ध की मूर्ति बनी ( बामियान, अफगानिस्तान की एक बुद्ध मूर्ति १७३ फीट ऊँची थी, जिसे तालिबान ने नष्ट कर दिया है), वहीं संसार की सर्वोत्कृष्ठ मूर्तियाँ भी बुद्ध की और भारत में ही निर्मित हुईं। उल्लेखनीय है कि संसार की तीन सर्वोत्कृष्ठ मूर्तियों में एक सारनाथ की धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा की मूर्ति है जो सारनाथ संग्रहालय में सुरक्षित है। दूसरी मथुरा संग्रहालय में खड़ी हुई बुद्ध मूर्ति है और तीसरी भारत के राष्ट्रपति भवन में शोभायमान है।
भगवान् बुद्ध की मूर्तियाँ जिन विभिन्न आकार प्रकारों में निर्मित हुई हैं, उन्हें मुद्राओं के नाम से अभिहित किया गया है। ये प्रमुख मुद्राएँ इस प्रकार हैं
ध्यान मुद्रा - इसमें बुद्ध पद्मासन में बैठे हुए हैं। यह मुद्रा बुद्ध की साधना अवस्था का प्रतीक है। इसे वज्रासन मुद्रा भी कहते हैं ।
भूमि स्पर्श मुद्रा इस मुद्रा में बैठे हुए बुद्ध का दाहिना हाथ नीचे भूमि को स्पर्श करता हुआ दिखलाया गया है। इस मुद्रा द्वारा दर्शाया गया है कि बुद्ध ने मार पर विजय प्राप्त कर बुद्धत्व प्राप्त कर लिया है जिसकी साक्षी पृथ्वी है। बोधगया के महाबोधि विहार (मन्दिर) की मूर्ति इसी भूमि स्पर्श मुद्रा में है।
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____ धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा - पद्मासन में बैठे हुए बुद्ध व्याख्यान देते हुए प्रदर्शित हैं। इसमें बुद्ध की उंगलियों को अविद्या के मण्डल को विच्छिन्न करते हुए दिखाया गया है। इसे व्याख्यान मुद्रा या ग्रन्थि विमोचन मुद्रा भी कहा गया है। सारनाथ की मूर्ति इसी मुद्रा में है।
अभय मुद्रा - इसमें बुद्ध प्राणियों को निर्भय रहने का संदेश दे रहे हैं (भयप्पत्ता च निब्भया)। इसमें दाहिना हाथ कन्धे तक उठा है और कर्तल सामने है। प्रो० सी०एस० उपासक का मत है कि विश्व की सबसे ऊँची खड़ी हुई अभय मुद्रा में बामियान की ५५ मीटर (१७३ फीट) ऊँची बुद्ध की प्रतिमा थी जो अब भग्न अवस्था में है।
वरद मुद्रा - इस मुद्रा में मूर्ति का दाहिना हाथ आशीर्वाद देने की मुद्रा में नीचे, परन्तु सामने की ओर करतल किये हुए होता है।
उपर्युक्त मुद्राओं के अलावा दो अन्य मुद्राओं में भी बुद्ध की मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं।
चारिका मुद्रा - इसमें तथागत की चलती फिरती मुद्रा में मूर्तियाँ होती हैं। ऐसी मूर्तियाँ अफगानिस्तान में अधिक प्राप्त हुई हैं।
___ महापरिनिर्वाण मुद्रा - इस मुद्रा में भगवान् बुद्ध की अन्तिम समय की मूर्ति प्राप्त होती है। इसमें भगवान् बुद्ध दाहिने करवट, दाहिने हाथ को सिर के नीचे मोड़कर रखे हुये लेटे हैं और दाहिने पैर पर बाँया पैर सीधा रखा हुआ है। कुशीनगर के महानिर्वाण विहार (मन्दिर) में इसी मुद्रा की मूर्ति स्थापित है।
कालान्तर में बौद्ध कला में बद्ध मूर्तियों के अलावा बोधिसत्वों यथा पद्मपाणि, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय तथा तारा आदि देवियों की मूर्तियाँ बनायी गईं जो पुरातात्विक उत्खनन में प्राप्त हैं।
२. चित्रकला • चित्रकला के क्षेत्र में बुद्ध और उनके धर्म का बहुत योगदान है। बौद्ध कला केन्द्र अजन्ता अपनी चित्रकला के लिए ही विश्व के आश्चर्यों में एक माना जाता है। इसके अलावा भारत के बाहर कूचा और तुर्कान के आगे चीन की सीमा पर रेशम मार्ग पर स्थित तुनह्वांग प्रदेश (नगर) से चौथी और पाँचवी ई० के कुण्डलीकृत चित्र प्राप्त हुए हैं जो अद्वितीय हैं। तुनह्वांग गुफाओं के भित्तचित्र भी अजन्ता की गुफाओं की तरह सुसज्जित हैं, लेकिन वे अधिक सुरक्षित नहीं हैं।
चित्रकला के सम्बन्ध में प्रारम्भ में भगवान् बुद्ध ने केवल पुष्प मालाओं के चित्रण (मालाकम्म), लताओं के चित्रण (लताकम्म), मकरदन्त की भाँति त्रिकोण आकृतियाँ (मकरदन्तक), चौखटों की आकृतियाँ (पंचपटिक) के चित्र बनाने की अनुमति भिक्षुओं को दी थी। ये चित्र कपड़ों, पत्थरों और दीवारों पर बनाये जाते थे, जिन्हें पटचित्र, फलकचित्र और भित्तिचित्र कहते थे।
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भित्ति चित्रकला पर चुल्लवग्ग से अतीव महत्त्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। इसमें बताया गया है कि दीवारों पर चित्र बनाने के लिए उन्हें एक विशेष प्रकार का लेप लगाकर चिकना किया जाता था। इस लेप में चिकनी मिट्टी (कुण्डमत्तिका), सरसों की भूसी (सासपकुट्ट), मोम (सित्थ) और खली (तिलक) मिलायी जाती थी। इस लेप को हाथ से सफाई से लगाया जाता था, जिसे 'हत्थभित्तिकम्म' कहते थे। तत्पश्चात् उस धरातल को चूने की मिट्टी (सुधामत्तिका) से पोतकर पृष्ठभूमि तैयार की जाती थी। तत्पश्चात् सफेद रंग, काले रंग तथा गेरुआ रंग (गेरुक) के प्रयोग से चित्राँकन किया जाता था। फिर उन रेखा चित्रों में रंग (वण्ण) भरा जाता था, जिसे 'भित्तिचित्तकम्म' कहते थे। चित्रों में रंग भरने का काम कुंचियों (तूलानि) से होता था। ये कूचियाँ चित्रों के अनुपात से छोटी बड़ी होती थीं, जिनका निर्माण वृक्ष और लताओं तथा घास-फूस से किया जाता था, जिन्हें क्रमश: रुक्खतूल, लतातूल और पोटकितूल कहते थे।
. रंग भरने में भाव का विशेष ध्यान रखा जाता था। डा० वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में "रेखा, वर्ण (रंग) और भाव सचमुच यही तीन अच्छे चित्र के प्राण होते हैं। वस्तुत: भाव का ही मूर्त रूप चित्र है। भाव जब मूर्त रूप में आता है, तभी उत्तम चित्र बन पाता है।"
३. वास्तुकला - स्थापत्य कला के क्षेत्र में बौद्ध धर्म की अनुपम देन रही है। बुद्ध ने भारतीय स्थापत्य में अनेक नये वातायन खोले हैं। बौद्ध स्थापत्य को दो वर्गों - अनिवासी स्थापत्य और निवासी स्थापत्य, में रखा जा सकता है।
अनिवासी स्थापत्य स्तूप - अनिवासी स्थापत्य में वे स्थापत्य हैं जो निवास के लिए नहीं बनाये जाते हैं यथा स्तूप। उल्लेखनीय है कि स्तूप बुद्ध अथवा उनके शिष्यों के शरीर धातुओं को सन्निहित कर बनाये गये थूहाकार तथा बुलबुलाकार स्मारक हैं। ये स्तूप पहले मिट्टी के और बाद में पक्के ईंटों के बनाये गये। लौरियानन्दनगढ़ के मिट्टी के बने स्तूप भारत के प्राचीनतम् स्तूप हैं। ईंटों के स्तूपों में पिपरहवाँ का स्तूप सबसे प्राचीन है। भरहुत, सांची और सारनाथ के स्तूप तो अद्वितीय हैं ही, जिसे कला मर्मज्ञ बौद्ध धर्म की सर्वश्रेष्ठ देन मानते हैं।
स्तूपों का निर्माण बुद्ध के जीवनकाल में ही होने लगा था। बुद्ध के केश, नख धातु के ऊपर मगधराज बिम्बिसार ने अपने अंत:पुर में एक स्तूप का निर्माण कराया था और जिसकी वह पूजा वन्दना करता था।
इसी प्रकार तपस्सु और भल्लिक ने बुद्ध के केश धातु के ऊपर अपने देश अफगानिस्तान में स्तूप का निर्माण कराया था।
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महापरिनिर्वाणसूत्र से ज्ञात होता है कि बुद्ध के महापरिनिर्वाण के पश्चात् दस स्तूप राजाओं ने बड़े-बड़े नगरों में बनवाये थे, जिनमें से आठ धातु स्तूप थे, नवाँ द्रोण ब्राह्मण द्वारा घड़े पर बनवाया गया था और दसवां मौर्यों ने चिता से प्राप्त राख कोयले को लेकर अपनी राजधानी पिप्पलीवन में बनवाया था। कालान्तर में सम्राट अशोक ने ८४,००० स्तूपों का निर्माण कराया था।
निवासी स्थापत्य चैत्य - "बौद्ध वास्तु की भाषा में स्तूप और चैत्य, दोनों में स्तूप समान है। चैत्य में भी स्तूप होता है। स्तूप ही जब छत के नीचे या किसी भवन में होता है, तब उसे चैत्य कहते हैं।'' पालि त्रिपिटक में अनेक चैत्यों का उल्लेख मिलता है, यथा आलवी में अग्गालव चैत्य, कुशीनगर में मुकुटब-धन चैत्य आदि। पुरातत्त्वपरक खोजों से कार्ले और भाजा आदि के विश्व प्रसिद्ध दर्शनीय चैत्य सामने आये हैं। ___आवास - भगवान् बुद्ध ने भिक्षुओं के रहने के लिए पाँच प्रकार के आवासों की अनुज्ञा दी थी। ये थे विहार, अड्डयोग, प्रासाद, हर्म्य और गुह्य। विहार पूर्णत: बौद्ध स्थापत्य है जिसे बुद्ध की देन माना जाता है। विहार के स्थल चयन, निर्माण, रख-रखाव आदि का पूर्ण विवरण विनयपिटक में प्राप्त होता है। यह पूर्णरूपेण बौद्धभिक्षुओं का आवास स्थल था। यह गाँव या नगर से न बहुत समीप और न बहुत दूर बनाये जाते थे। जिस तरह भिक्षुओं के आवास को विहार कहते थे, उसी प्रकार भिक्षुणियों के आवास को 'उपश्रय' (उपस्सय) कहते थे। भिक्षु संघ के लिए विहार का निर्माण करवाकर दान देना श्रेष्ठ दान माना जाता था।
अड्डयोग किस प्रकार का आवास था सुनिश्चित करना कठिन है। प्रासाद ऊँचे चबूतरे पर निर्मित कंगूरों युक्त भवन होता था। इसी प्रकार हर्म्य (हम्मिय) आवास एकमंजिला अथवा बहुमंजिला होता था, निश्चित नहीं है।
गुहा भी भिक्षुओं के लिए आवास हेतु अनुमन्य थी। इनमें कुछ प्राकृतिक गुफाएँ तथा कुछ मानव निर्मित गुफाएँ होती थीं। सम्राट अशोक और उसके वंशजों ने उदयगिरि पर्वत में गुफाओं का निर्माण कराकर उन्हें आजीवक भिक्षुओं को दान दिया था। बौद्ध साहित्य में चार प्रकार की गुहाओं का उल्लेख मिलता है -
इट्ठागुहा - ईंटों द्वारा निर्मित गुहा, सिलागुहा - पत्थर द्वारा निर्मित गुहा, दारुगुहा - लकड़ी की बनी हुई गुहा, पांसुगुहा - मिट्टी की बनी हुई गुहा।
कुछ गुफाएँ इतनी बड़ी होती थीं कि पाँच सौ लोग एक साथ बैठ सकते थे। राजगृह की सप्तपर्णी गुफा ऐसी ही विशाल गुफा थी।
विहार स्थापत्य और उसकी विशेषताएँ - स्थापत्य कला के क्षेत्र में विहार स्थापत्य कला बुद्ध की एक अद्वितीय देन है। विहार केवल भिक्षुओं के आवास स्थल
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ही नहीं थे, अपितु वे शिक्षा केन्द्र भी होते थे। उच्च शिक्षा केन्द्र को 'महाविहार' कहते थे, यथा नालन्दा महाविहार, विक्रमशिला महाविहार, ओदन्तपुरी महाविहार
आदि। विहार में एक आँगन था जिसे 'परिवेण' कहते थे, जिसमें बैठकर शिक्षार्थी शिक्षा ग्रहण करते थे। परिवण या आँगन में कीचड़ न हो, इसलिए उसमें मौरंग (मौरम्ब) बिछायी जाती थी। मिट्टी (पदरसिला) भी डाली जाती थी।
आँगन के पानी के निकास के लिए एक नाली बनायी जाती थी जिसे 'उदकनिद्धमन' कहते थे। . कोट्ठक (कोठा) - विहार के बाहरी फाटक के पास परकोटा होता था जहाँ आने जाने वाले लोग बैठते-उठते और अपना सामान रखते थे। यह बाहरी बरामदे के समान रहा होगा।
गम्भ (कोठरी) - विहार में भिक्षुओं के रहने के लिए कोठरियाँ (गब्भ) होती थीं। कुछ कोठरियाँ वर्गाकार होती थीं, जिन्हें सिविका गब्भ कहते थे और कुछ कोठरियाँ लंबी होती थीं, जिन्हें 'नालिका गम्भ' कहते थे। फाटक के ऊपर वाली कोठरी को 'हम्मिय गन्भ' कहा जाता था।
मण्ड (मण्डप) - यह विहार का सर्वाधिक महत्वपूर्ण अंग था जो बोधिमण्ड के रूप में स्थापित किया जाता था। इसी में बाद में भगवान् बुद्ध की मूर्ति स्थापित की जाने लगी।
भोजनशाला और जलशाला - विहार में भोजनालय भी होता था, जिसे 'उपट्ठानसाला' (उपस्थानशाला) कहते थे। पानी रखने के लिए 'जलशाला' होती थी, जहाँ पानी को बड़े-बड़े मटकों (उदकभाजन), नांदों (मत्तिका द्रोणिक) में ढककर रखा जाता था। पानी पीने के लिए गिलास (पानीय संख) तथा कुल्हड़ (सरावक) होते थे। कुओं में खर-पतवार न गिर सके, इसके लिए ढक्कन (अपिधान) लगाये जाते थे।
स्नानघर (जन्ताघर) - विहारों में स्नान करने के लिए स्नानघर होते थे जिन्हें पालि में जन्ताघर कहा गया है, जहाँ पानी गर्माने की पूर्ण व्यवस्था रहती थी (अग्गिट्टान ढहति)। जन्ताघर में कपड़े टाँगने के लिए खूटियाँ (कपिसीसक) होती थीं और रस्सी (रज्जु) बाँधी रहती थी।
विहार में आग की सदैव आवश्यकता होती थी इसलिए विहार में एक विशेष स्थान निर्मित किया जाता था, जिसे 'अग्गिसाला' (अग्निशाला) कहा जाता था।
शौचालय (वच्चकुटि) - भगवान बुद्ध ने बौद्ध विहारों के निर्माण में पर्यावरण और स्वच्छता का बहुत ध्यान रखा था, इसलिए उन्होंने विहार में शौचालय की व्यवस्था
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की थी। पालि साहित्य के अध्ययन से यह प्रतीत होता है कि आधुनिक शौचालय बौद्ध शौचालय स्थापत्य की अनुकृति मात्र हैं। बौद्ध साहित्य में शौचालय को 'वच्चकुटि' कहा गया है। शौच के लिए गड्ढा बनाया जाता था जिसे 'वच्चकूप' कहते थे। वच्चकूप के दोनों ओर पैर रखने के लिए दो ऊँचे पाँवदान (वच्चपादुक) बनाये जाते थे। शौचालय में पेशाब करने के लिए एक अलग पेशाब पात्र लगाया जाता था, जिसे 'पस्साव दोणिक' कहते थे। वच्चकूप पर ढक्कन (अपिधान) लगाया जाता था ताकि दुर्गन्ध न फैल सके। इसे दीवार (पाकार) से घेरकर किवाड़ लगाये जाते थे, कपड़े टाँगने के लिए खूटी लगायी जाती थीं। वृद्ध लोगों की सुविधा के लिए 'आलम्बक' (बाही) लगायी जाती थीं, जिसे पकड़कर वृद्धजन उठते-बैठते रहे होंगे।
पस्सावकुटी । इसी प्रकार पेशाब के लिए 'पस्सावकुटी' (पेशाबशाला) बनायी जाती थी। पेशाबघर में एक विशेष प्रकार का पात्र होता था जिसे 'पस्सावकुंभी' कहते थे। इस पर भी ढक्कन लगाया जाता था।
भवनों में दरवाजे लगाये जाते थे, जिसे 'पिट्ठसंघाट' कहा गया है। दरवाजे में चार काष्ठ भाग होने के कारण इसे चौफठ या चौकट कहते थे। सबसे नीचे के भाग देहरी को 'उदुक्खलिका' कहा जाता था। ऊपर के भाग को 'उत्तरपासक' कहते थे, जिसे इस समय उतरंग कहा जाता है। दोनों ओर की दो बाजुओं को पार्श्व कहा गया है। दरवाजे किवाड़ (कवाट) लगाये जाते थे। सुरक्षा के लिए कुंडी (वट्टक) और जंजीर (अग्गल) लगायी जाती थी। ताला चाबी (यंतक सूचिक) भी होती थी।
इस प्रकार बौद्ध वास्तुकला का भारतीय कला में विशिष्ट स्थान है। यह विचारणीय है कि हम आज जिन शब्दों को विदेशी या दूसरी भाषाओं का मान बैठे हैं, वे अपनी ही अक्षय निधि हैं। उदाहरण के लिए पालि साहित्य में उल्लेखित 'पस्सावसाला', पेशाबघर ही है। ‘पस्सावदोणी' यूरिनर है। मोरंग को पालि में 'मोरम्ब, मरुम्ब' कहा गया है। इसी तरह गिट्टी या कलेजी को 'पदरशिला' कहा जाता था। किवाड़ को 'कवाट', ताला को 'ताड़ा', ईंटा को 'इट्ठा या 'इट्टिका', जीने की रेलिंग को 'आलम्बन', छत को 'छदन' कहा गया है। स्थापत्य के कुछ ऐसे भी शब्द पालि साहित्य में मिलते हैं जो इस समय के प्रयोग से बिल्कुल भिन्न लगते हैं, जैसे स्नानघर के लिए 'जन्ताघर', शौचालय के लिए 'वच्चकुटी', दो छतों वाले खपरैल की तरह के भवन को 'अवयोग' कहा गया है। वास्तव में पालि साहित्य का वास्तुकला की दृष्टि से अध्ययन होने की अभी आवश्यकता है। जहाँ इसके अध्ययन से कला के विभिन्न पक्षों पर नवीन प्रकाश पड़ेगा, वहीं भारतीय कला का श्रेष्ठत्व और गौरव भी सामने आयेगा।
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एलोरा की महावीर मूर्तियाँ
डा० आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव *
एलोरा (औरंगाबाद - महाराष्ट्र) लयण - स्थापत्य एवम् मूर्तिशिल्प का विलक्षण कला केन्द्र रहा है जहाँ कल्चुरि- वाकाटक, चालुक्य, राष्ट्रकूट एवं देवगिरि के यादवों संरक्षण में छठी से ११वीं शती ई० के मध्य लगभग ३४ गुफाएँ उत्कीर्ण हुईं जो ब्राह्मण, बौद्ध एवं जैन धर्मों से संबंधित हैं। इनमें ब्राह्मण- बौद्ध एवं जैन धर्मों की कला - त्रिवेणी के विलक्षण मूर्तिस्वरूपों के दर्शन होते हैं। गुफा संख्या १ से १२ बौद्धधर्म और कला; गुफा संख्या १३ से २९ ब्राह्मणीय धर्म और कला तथा गुफा संख्या ३० से ३४ जैनधर्म और कला से संबंधित हैं।
एलोरा की जैन गुफाओं एवं लयण मूर्तियों का निर्माण तथा चित्रांकन मुख्यतः ९वीं से ११वीं शती ई० के मध्य हुआ है। ये कलावशेष दिगंबर परम्परा से संबद्ध हैं। जैन गुफाओं में छोटा कैलास ( गुफा संख्या ३०), इन्द्रसभा ( गुफा संख्या ३२ ) व जगन्नाथ सभा (गुफा संख्या ३३) स्थापत्य और मूर्तिशिल्प की दृष्टि से सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं | इन्द्रसभा के ऊपरी तल में इन्द्र तथा अम्बिका की भव्य प्रतिमाएं बरबस दर्शकों को आकृष्ट करती हैं। एलोरा की जैन गुफाओं का प्रतिमालक्षण की दृष्टि से वैशिष्ट्य तीर्थंकर पार्श्वनाथ ( सात सर्पफणों वाली ३० मूर्तियां) और ऋषभ पुत्र बाहुबली (१७ मूर्तियां) की साधनारत कायोत्सर्गमूर्तियों का सर्वाधिक संख्या में उत्कीर्णन है। एलोरा की जैन गुफाओं में भित्तिचित्रों के अवशेष भी मिले हैं, जो बहुत जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं । ४
एलोरा के जैन मन्दिर इन्द्रसभा में नवीं और दसवीं शती ई० में तीर्थंकर मूर्तियों को बनवाने वाले सोहिल ब्रह्मचारी और नागवर्म्मा के नाम भी उत्कीर्ण हैं। एलोरा की जैन गुफाओं में जैनों के सर्वोच्च आराध्यदेव तीर्थंकरों (जिनों) की पर्याप्त मूर्तियां हैं। २४ जिनों में से केवल आदिनाथ या ऋषभनाथ (प्रथम जिन) शांतिनाथ ( १६ वें जिन ), पार्श्वनाथ (२३वें जिन) एवं महावीर (२४वें जिन ) की ही मूर्तियां मिली हैं। साथ ही ऋषभनाथ के पुत्र बाहुबली गोम्मटेश्वर तथा यक्ष और यक्षियों की भी यथेष्ट मूर्तियां हैं। यहां उल्लेखनीय है कि दक्षिण भारत में गोम्मटेश्वर की मूर्तियां विशेष लोकप्रिय थीं और एलोरा में उनकी सर्वाधिक मूर्तियां बनीं। किसी भी पुरास्थल पर पायी जाने
कला - इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी
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वाली मूर्तियों की संख्या की दृष्टि से यह संख्या सर्वाधिक है। एलोरा में २४ तीर्थंकरों का सामूहिक अंकन भी हुआ है। एलोरा की जिन मूर्तियों में त्रिछत्र, सिंहासन, प्रभामण्डल चामरधारी सेवकों जैसे प्रातिहार्यों एवं लांछनों तथा शासन देवताओं के रूप में यक्ष-यक्षियों का सिंहासन छोरों पर अंकन हुआ है।
एलोरा की प्रमुख जैन गुफाएं (गुफा ३० छोटा कैलास, गुफा ३२ इन्द्रसभा, गुफा ३४) राष्ट्रकूटों के काल में विशेषत: अमोघवर्ष एवं कृष्ण 'द्वितीय' के काल में बनीं जबकि अन्य जैन गुफाओं और उनके मूर्तियों के निर्माण में देवगिरि के यादवों का भी योगदान था। इस प्रकार एलोरा की जैन मूर्तियां मुख्यत: ९वीं-दसवीं शती ई० में निर्मित हैं। ब्राह्मण मूर्तियों के समान ही कलात्मक दृष्टि से जैन गुफाओं की मूर्तियां भी महाकाय किन्तु आनुपातिक अंगरचना वाली और जीवंत हैं। कायोत्सर्ग एवं ध्यानस्थ, जिन मूर्तियों के अतिरिक्त अन्य उदाहरणों में आकृतियां पूरी तरह गतिशील दिखाई गई हैं।
जैन महापुराण की रचना राष्ट्रकूटशासक अमोघवर्ष 'प्रथम' (लगभग ८१९ से ८८१ ई०) एवं कृष्ण 'द्वितीय' (लगभग ८८०-९१४ ई०) के शासनकाल एवं क्षेत्र में हुई। अत: स्वाभाविक रूप से महापुराण की कलापरक सामग्री का समकालीन राष्ट्रकूट कलाकेन्द्र एलोरा की जैन गुफाओं की मूर्तियों पर प्रभाव देखा जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महापुराण एवं एलोरा की जैन गुफाएं समकालीन (९वी - १०वीं शती ई०) और दिगम्बर परम्परा से सम्बद्ध हैं। महापुराण, आदिपुराण और उत्तरपुराण इन खण्डों में विभक्त है। आदिपुराण की रचना जिनसेन ने लगभग नवीं शती ई० के मध्य और उत्तरपुराण की रचना उनके शिष्य गुणभद्र ने नवीं शती ई० के अंत या दसवीं शती ई० के प्रारम्भ में की थी। कला परक अध्ययन की दृष्टि से
आदिपुराण एवं उत्तरपुराण अर्थात महापुराण (दिगम्बर परम्परा) की सामग्री का विशेष महत्त्व है क्योंकि इनमें ऋषभदेव सहित २४ तीर्थंकरों एवं अन्य शलोकापुरुषों तथा समकालीन यानी राष्ट्रकूटकालीन समाज और कला का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। इस दृष्टि से डॉ० कुमुद गिरि द्वारा किया गया शोध कार्य जैन महापुराण का कला परक अध्ययन विशेष महत्त्वपूर्ण है।
एलोरा में पार्श्वनाथ के बाद महावीर की ही सर्वाधिक मूर्तियां हैं, जिनके कुल १२ उदाहरण मिले हैं। एलोरा की जैन गुफाओं की महावीर मूर्तियों में से ६ गुफा संख्या ३०; ४ गुफा संख्या ३२ और २ मूर्तियां गुफा संख्या ३३ में हैं।
प्रस्तुत लेख में एलोरा की महावीर मूर्तियों का अध्ययन हमारा अभीष्ट है। एलोरा की मूर्तियों पर प्रारम्भिक चालुक्य कला केन्द्र बादामी एवं ऐहोल की मूर्तियों का स्पष्ट प्रभाव दिखाई देता है। अधिकांश उदाहरण जैन गुफाओं के मुख्य मण्डप में प्रतिष्ठित
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हैं, जिनमें महावीर को ध्यानस्थ और सिंह लांछन सहित दिखाया गया है। उल्लेखनीय है कि एलोरा की पार्श्वनाथ और बाहुबली की मूर्तियों में उनकी गहन साधना और उपसर्गों को दर्शाने के लिए उन्हें सर्वदा कायोत्सर्ग मुद्रा में दिखाया गया है।
गुफा संख्या ३० के गर्भगृह में मूलनायक महावीर (९वीं शती ई०) की ध्यानस्थ मूर्ति है जिसमें सिंहासन के मध्य में सिंह लांछन और प्रातिहार्यों में त्रिछत्र, देवदुन्दुभि, सिंहासन, भामण्डल तथा चामरधरों का उत्कीर्णन हुआ है। इनमें आकाशगामी विद्याधर युगलों तथा नीचे पीठिका पर उपासकों की युगल आकृतियां भी हैं।
___गुफा संख्या ३० के गूढ़मण्डप की पश्चिमी भित्ति में भी ध्यानस्थ महावीर की मूर्ति है। सिंह लांछन के साथ ही दो अन्य ध्यानस्थ जिन आकृतियां भी उत्कीर्ण हैं।
गुफा संख्या ३० की पश्चिमीभित्ति पर प्रवेशद्वार के समीप महावीर की ध्यानस्थ एवं सिंह लांछन से युक्त मूर्ति द्रष्टव्य है। __ . गुफा संख्या ३१ के छोटे मन्दिरों के समूह में २४ तीर्थंकरों की मूर्तियां बनीं हैं, जिसमें महावीर का भी अंकन है।
गुफा संख्या ३२ के गर्भगृह में महावीर की मनोज्ञ ध्यानस्थ मूर्ति प्रतिष्ठित है, इसके सिंहासन के छोरों पर दो गज आकृतियां उत्कीर्ण हैं।
गुफा संख्या ३२ के पश्चिमी मण्डप में महावीर की एक ध्यानस्थ मूर्ति देखी जा सकती है, जिसमें पद्मपीठ पर ध्यानस्थ महावीर के सिंहासन के मध्य में सिंह लांछन की आकृति स्पष्ट है। महावीर के साथ अन्य प्रातिहार्यों में चामरधर, त्रिछत्र एवं अशोक की पत्तियां तथा देवदुन्दुभि का अंकन है। इस मूर्ति में महावीर के दक्षिण एवं वाम पार्थों में द्विभुज यक्ष के रूप में क्रमश: गजवाहन वाले कुबेर यक्ष और सिंह वाहन तथा गोद में शिशु आकृति से युक्त अंबिका यक्षी की आकृतियां भी हैं। यक्ष-यक्षी की आकृतियां मूल नायक के आध्यात्मिक स्वरूप के स्थान पर भौतिक जगत् के लालित्य तथा सौन्दर्य एवं अलंकरणों से युक्त हैं।
गुफा संख्या ३२ के ही दक्षिण के मण्डप के मध्य की ध्यानस्थ महावीर मूर्ति में भी सिंह लांछन तथा करण्ड मुकुट से शोभित और गजारूढ़ तथा हाथों में फल तथा धन के थैले से सुशोभित कुबेर यक्ष एवं आम्रलुम्बि एवं शिशु को धारण करने वाली द्विभुजा सिंहवाहना अंबिका की आकृतियां उत्कीर्ण हैं।
- इसी गुफा की दक्षिणी भित्ति की एक अन्य ध्यानस्थ मूर्ति में भी उपर्युक्त विशेषताओं तथा गजवाहन वाले कुबेर और सिंह वाहन वाली अंबिका की आकृतियां उत्कीर्ण हैं। समान लक्षणों वाली तथा कुबेर और अंबिका की आकृतियों से वेष्ठित महावीर की दो अन्य मूर्तियां भी इस गुफा में हैं। इस प्रकार महावीर मूर्तियों की दृष्टि
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से गुफा संख्या ३२ की महावीर मूर्तियां सर्वाधिक विकसित कोटि की हैं। इनमें सिंह लांछन तथा त्रिछत्र, चामरधर एवं प्रभामण्डल जैसे प्रमुख प्रातिहार्यो और यक्ष-यक्षी के रूप में पारम्परिक मातंग और सिद्धायिका के स्थान पर कुबेर और अंबिका को निरूपित किया गया है।
गुफा संख्या ३३ के मण्डप की दक्षिणी भित्ति की ध्यानस्थ महावीर की मूर्ति सिंह लांछन एवं द्विभुज कुबेर तथा द्विभुजा अंबिका (आम्रलुम्बि एवं शिशु के साथ) सहित प्रदर्शित है।११
___गुफी संख्या ३३ का ऊपरी तल तीर्थंकर मूर्तियों की दृष्टि से विशेष उल्लेखनीय है। इसकी भित्तियों पर सभी २४ तीर्थंकरों की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। इस गुफा में महावीर एवं पार्श्वनाथ की कई मूर्तियां हैं। गुफा ३३ के गर्भगृह में महावीर की विशाल प्रतिमा प्रतिष्ठित है। महावीर पूर्ववत् ध्यानमुद्रा में सिंहासन पर बैठे हैं। पादपीठ के मध्य में सिंह लांछन एवम् सिर के ऊपर त्रिछत्र शोभित है।
एलोरा की महावीर मूर्तियों के अध्ययन से स्पष्ट है कि उनके निरूपण में एकरूपता मिलती है और पार्श्वनाथ तथा गोम्मटेश्वर बाहुबली की तुलना में एलोरा में उनका महत्त्व अपेक्षाकृत कुछ कम था। सभी उदाहरणों में सिंहासन या पादपीठ के नीचे सिंह लांछन का अंकन हुआ है जबकि यक्ष-यक्षी मुख्य रूप से गुफा संख्या ३ के उदाहरणों में ही नियमित रूप से दिखाये गये हैं। एलोरा में महावीर के यक्ष और यक्षी के रूप में पारम्परिक मातंग और सिद्धायिका के स्थान पर २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष-यक्षी कुबेर या सर्वानुभूति और अंबिका को निरूपित किया गया है। यह पश्चिम भारत की श्वेताम्बर परंपरा की जिन मूर्तियों की एक विशेषता रही है, जिनमें सामान्यत: सभी तीर्थंकरों के साथ जैन परम्परा के प्राचीनतम यक्ष-यक्षी कुबेर और अंबिका को रूपायित किया गया है। एलोरा में अन्य स्थलों की भाँति गजवाहन वाले कुबेर के एक हाथ में धन का थैला और सिंहवाहना द्विभुजा अंबिको के साथ आम्रलुम्बि तथा बालक एवं शीर्ष में आम्रवृक्ष का अंकन हआ है।३ जो उनके शक्ति और मातृस्वरूप दोनों को संयुक्तरूप से व्यक्त करता है। इस प्रकार एलोरा की महावीर मूर्तियां एक दृष्टि से पश्चिमी भारत के श्वेताम्बर परंपरा से भी जुड़ी हैं। साथ ही ऐहोल की प्रारंभिक चालुक्य (लगभग ७वीं शती ई०) महावीर मूर्तियों का परवर्ती विकसित रूप एलोरा की महावीर मूर्तियों में देखा जा सकता है। एलोरा में पार्श्वनाथ के अंकन में कायोत्सर्ग में खड़े पार्श्वनाथ के साथ उनके उपसर्गों का अंकन किया गया है, जो उनकी साधना या तपश्चर्या के अंतिम चरण का सूचक है। इसी कारण उनमें त्रिछत्र या अष्टप्रातिहार्यों का अंकन नहीं मिलता, जबकि महावीर की मूर्तियां अधिकांशतः अष्ट प्रा तिहार्यों के साथ गर्भगृह या मण्डपों में प्रतिष्ठित हैं और उनमें ध्यानस्थ महावीर को यक्ष-यक्षी के साथ दिखाया गया है, जो इस बात को स्पष्ट करता है कि महावीर
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को कैवल्य प्राप्ति के पश्चात् एक तीर्थंकर के रूप में निरूपित किया गया है, जिनके साथ अष्टप्रातिहार्य भी है और महावीर से सम्बन्धित धर्मसंघ के रक्षक देवताओं के रूप में शासन देवता भी हैं। यह एलोरा की महावीर मूर्तियों का वैशिष्ट्य माना जा सकता है।
सन्दर्भ :
१. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, पार्श्वनाथ इमेजेज इन एलोरा', अर्हत् पार्श्व धरणेन्द्रनेक्सस, (संपा० एम०ए० ढांकी), दिल्ली १९७७ ई०, पृ० १०८.
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२. एलोरा में ईसापूर्व दूसरी सदी से पांचवी सदी ई० तक के दो हजार साल पुराने एक प्राचीन शहर के अवशेष भी हैं।
३. जेम्स फर्ग्युसन एण्ड जेम्स बर्जेस, दी केव टेम्पल्स ऑफ इण्डिया, लन्दन १८८० ई०; जेम्स बर्जेस, ए गाइड टू एलोरा केव टेम्पल्स, हैदराबाद १९२६ ई०; रिपोर्ट आन दी एलोरा केव टेम्पल्स एण्ड अदर ब्रह्मनिकल एण्ड जैन केव्स इन वेस्टर्न इण्डिया (आर्कियोलॉजिकल सर्वे ऑफ वेस्टर्न इण्डिया), बम्बई, खण्ड ५, पृ० ७-५८ (पुनर्मुद्रित ), वाराणसी १९७० ई०; ओ०सी० गांगुली, दी आर्ट आफ दी राष्ट्रकूटाज, न्यूयार्क १९५८ ई०; आर०एम० गुप्ते एण्ड बी०डी० महाजन, अजन्ता, एलोरा एण्ड औरंगाबाद केव्स, बम्बई १९६२ ई; जॉन बी० शीले, दी वन्डर्स ऑफ एलोरा, द्वितीय संस्करण, दिल्ली (पुनर्मुद्रित ) १९७५ ई; टी०वी० पति, एलोरा आर्ट एण्ड कल्चर, नयी दिल्ली १९८० ई०; (संपा० ) रतन परिमू, दीपक कनाल आदि, एलोरा केव्स स्कल्पचर्स एण्ड आर्किटेक्चर, नयी दिल्ली १९८८ ई०; आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मण देव प्रतिमाएँ, इलाहाबाद १९८८ ई०; एलोरा की शैव प्रतिमाएँ, नयी दिल्ली १९९३.
४. एलोरा गुफाओं के परिचय सूचनापट्ट से उद्धृत, विस्तार के लिए द्रष्टव्य आर०एस० गुप्ते एण्ड बी०डी० महाजन, अजंता एलोरा एण्ड औरंगाबाद केक्स, पृ० २१८ - २४.
७.
मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, 'इमेजेज ऑफ बाहुबली इन एलोरा', एलोरा केव्स स्कल्पचर्स एण्ड आर्किटेक्चर (संपा० रतन परिमू एवं अन्य), नई दिल्ली १९८८ ई०.
६. विस्तार के लिए द्रष्टव्य आर०एस० गुप्ते एण्ड बी०डी० महाजन, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० २१८ - २४; मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, वाराणसी १९८१ ई०, पृ० १३५, १४४, १६२, २३०, २४३.
आनन्द प्रकाश श्रीवास्तव, एलोरा की ब्राह्मण देव प्रतिमाएँ, पृ० ८.
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८. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, ‘इमेजेज ऑव बाहुबली इन एलोरा', एलोरा
केव्स स्कल्पचर्स एण्ड आर्किटेक्चर। ९. कुमुद गिरि, जैन महापुराण का कलापरक अध्ययन, पार्श्वनाथ विद्यापीठ
ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ७४, वाराणसी १९९५ ई०, पृ० २५४. १०. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, 'जैन महापुराण की कला परक सामग्री', संस्कृति
मन्थन, खण्ड ६, वाराणसी १९९३ ई०, पृ० ३८, ३९; आर०एस० गुप्ते
एण्ड बी०डी० महाजन, पूर्वोक्त, पृ० १२९-२२३. ११. लेखक को मूर्तियों के स्थलगत वैशिष्ट्य तथा उनकी संख्या की जानकारी
प्रो० मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी से प्राप्त हुई है जिसके लिये वह उनका हृदय
से आभारी है। १२. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, जैन प्रतिमा विज्ञान, पृ० १५९. १३. कुमुद गिरि, पूर्वोक्त, पृ० १०६-१०७
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खरतरगच्छ बेगड़शाखा का इतिहास
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शिवप्रसाद *
विश्व के प्रायः सभी धर्म और सम्प्रदाय समय-समय पर विभिन्न शाखाओंप्रशाखाओं में विभाजित होते रहे हैं। निर्ग्रन्थ परम्परा के श्वेताम्बर सम्प्रदाय में चन्द्रकुल से उद्भूत खरतरगच्छ में भी समय-समय पर अस्तित्त्व में आये विभिन्न शाखाओं में बेगडशाखा भी एक है। यह शाखा वि०सं० १४२० में अस्तित्त्व में आयी । आचार्य जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' के शिष्य आचार्य जिनेश्वरसूरि इस शाखा के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस शाखा के बेगड़ नाम पड़ने के सम्बन्ध में दो मान्यतायें प्रचलित हैं। प्रथम यह कि आचार्य जिनेश्वरसूरि बेगड़ - छाजहड़ गोत्रीय थे, अतः उनकी शिष्यसंतति बेगड़शाखा के नाम से जानी गयी। इसी प्रकार दूसरी मान्यता के अनुसार गुजरात के सुल्तान महमूद इसे प्रसन्न होकर इन्हें 'बेगड़' विरुद् प्रदान किया जो बाद में इनकी शिष्य सन्तति के साथ जुड़ गया । २ गुजरात के सुलतान महमूद बेगड़ा का शासनकाल ई० सन् १४५८ - १५११ सुनिश्चित है। अतः खरतरगच्छ की इस शाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि और महमूद बेगड़ा की समसामयिकता असंभव है। ऐसी स्थिति में इस शाखा बेगड़ नामकरण के सम्बन्ध में प्रचलित प्रथम मान्यता सही प्रतीत होती है।
अ
बेगड़शाखा के इतिहास के अध्ययन के लिये पर्याप्त संख्या में साहित्यिक (ग्रन्थ और पुस्तक प्रशस्तियां) और अभिलेखीय साक्ष्य उपलब्ध हैं। साम्प्रत निबन्ध में उपलब्ध सभी साक्ष्यों का पूर्ण उपयोग करते हुए इस शाखा के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
बेगड़शाखा के आदिपुरुष आचार्य जिनेश्वरसूरि द्वारा रचित यद्यपि कोई कृति नहीं मिलती, किन्तु इनकी परम्परा के परवर्ती रचनाकारों ने अपनी कृतियों की प्रशस्तियों में अपने पूर्वज के रूप में इनका सादर उल्लेख किया है । वि० सं० १४२५/ ई० सन् १३६९ के दो प्रतिमालेखों में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में जिनचन्द्रसूरि के शिष्य आचार्य जिनेश्वरसूरि का उल्लेख मिलता है। इनमें से एक प्रतिमा महावीर की है जो बीकानेर स्थित चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय में संरक्षित है। श्री अगरचंद भँवरलाल नाहटा ने इसकी वाचना दी है, जो इस प्रकार है:
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सं० १४२५ वर्षे वैशाख सुदि ११ शुक्रवार श्री महावीर बिबं पिता मं० झाझण माता धाधलदे पुण्यार्थं कारिता महं वेराके श्रीखरतरगच्छीय श्रीजिनचन्द्रसूरि शिष्यैः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः प्रतिष्ठितं ।।
प्रवक्ता, पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी.
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इसी तिथि और वार युक्त एक दूसरी प्रतिमा आदिनाथ की है जो नागौर स्थित चौसठियाजी के मंदिर में संरक्षित है। श्री विनयसागर ने इसकी वाचना प्रस्तुत की है, जो इस प्रकार है :
- सं० १४२५ वर्षे वैशाख सुदि १.... मं० श्रीधर पुत्र देवयाकेन भ्रातृ पवलणदे (?) श्रेयोर्थं श्रीआदिनाथबिबं कारितं प्रतिष्ठितं खरतरगच्छीय श्रीजिनचन्द्रसूरिशिष्यैः श्रीजिनेश्वरसूरिभिः।।
यद्यपि उक्त प्रतिमालेखों में बेगड़शाखा का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है, फिर भी समसामयिकता, नामसाम्य आदि के आधार पर शाखा प्रवर्तक आचार्य जिनेश्वरसूरि
और उक्त प्रतिमालेखों में प्रतिमाप्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित जिनचन्द्रसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि को एक ही व्यक्ति मानने में कोई बाधा दिखाई नहीं देती। ठीक यही बात चिन्तामणि पार्श्वनाथ जिनालय, बीकानेर में संरक्षित अभिनंदननाथ की प्रतिमा पर उत्कीर्ण वि०सं० १४३८/ई० सन् १३७२ के लेख में प्रतिमा प्रतिष्ठापक के रूप में उल्लिखित सोमदत्तसूरि के गुरु जिनेश्वरसरि के बारे में कही जा सकती है। लेख का मूलपाठ निम्नानुसार है :
सं० १४३८ ज्येष्ठ सुदि ४ शनो (शनौ) छाजहड़वंशे पितृवंशे महं लाखा मातृ लाखणदे पुण्यार्थं सुतललताकेन श्री अभिनन्दननाथ बिंबं कारितं प्र० श्रीजेिश्वरसूरिपट्टे श्रीसोमदत्तसूरिभिः॥
____ जिनेश्वरसूरि के पट्टधर जिनशेखरसूरि द्वारा रचित न तो कोई कृति ही मिलती है और न ही इनके द्वारा प्रतिष्ठापित कोई प्रतिमा ही प्राप्त हुई है, किन्तु इनके पट्टधर जिनधर्मसूरि द्वारा प्रतिष्ठापित ६ जिनप्रतिमायें प्राप्त हुई हैं, जो वि०सं० १४९१/ ई० सन् १४३५ से वि०सं० १५१३/ई० सन् १४५७ तक की हैं। इन प्रतिमालेखों में भी कहीं बेगड़शाखा का नामोल्लेख नहीं मिलता।
जिनधर्मसूरि के शिष्य विनयमेरुगणि ने वायडगच्छीय आचार्य जिनदत्तसूरि द्वारा रचित विवेकविलास की वि०सं० १४९७/ई० सन् १४४१ में प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपनी गुरु - परम्परा की एक तालिका दी है, जो इस प्रकार है:
जिनचन्द्रसूरि जिनेश्वरसूरि
जिनशेखरसूरि जिनधर्मसूरि विनयमेरुगणि (वि०सं० १४९७/ई० सन् १४४१ में विवेकविलास के प्रतिलिपिकार)
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जिनधर्मसूरि के द्वितीय शिष्य जयानन्द हुए जिन्होंने वि०सं० १५१०/ई० सन् १४५४ में धन्यचरितमहाकाव्य की रचना की। इनके शिष्य क्षमामूर्ति ने वि०सं० १५२६/ई० सन् १४७० में कालकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की।
जिनधर्मसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' हुए, जिनके द्वारा प्रतिष्ठापित ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत की एक सलेख प्रतिमा प्राप्त हुई है जो वि०सं० १५३६ की है और वर्तमान में आदिनाथ जिनालय, जैसलमेर में संरक्षित है। श्री पूरनचन्द नाहर ने इस लेख की वाचना दी है जो इस प्रकार है :
१. ॥ संव० १५३६ वर्षे फागुण सुदि ५ भौमवासरे श्रीउपके २. शवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रि फलधरान्वये मं० जूठिल पुत्र मं० का३. लू भा० कर्मादे पु० नयणा भा० नामलदे तयोः पुत्र मं ४. सीहा भार्यया चोपड़ा सा० सवा पुत्र सं० जिनदत्त भा० लषाई ५. पुत्र्या श्राविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संडू सहि ६. तया स्वपुण्यार्थं श्रीआदिदेव प्रथम पुत्ररत्न प्रथम चक्रवर्ति ७. श्री भरतेश्वरस्य कायोत्सर्गस्थितस्य प्रतिमा कारिता प्रतिष्ठि ८. ता श्रीखरतरगच्छमंडन श्रीजिनदत्तसूरि श्रीजिनकुशलसू ९. रिसंतानीय श्रीजिनचन्द्रसूरि पं० श्रीजिनेश्वरसूरिशाखायां । श्री ।। १०. जिनशेखरसूरिपट्टे श्रीजिनधर्मसूरिपट्टालंकार श्रीपूज्य ११. (श्री जिनचन्द्रसूरिभिः ॥ श्रीः । श्राविका सूरमदे कारापिता)
वि०सं० १५५५/ई० सन् १४९९ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' के नायकत्त्वकाल में उपाध्याय देवचन्द्र के प्रशिष्य एवं क्षमासंदर के शिष्य पं० नरसमुद्र ने आवश्यकनियुक्ति की प्रतिलिपि की। वि०सं० १५२८/ई० सन् १४६२ में इनके शिष्य देवभद्रगणि ने स्याधंतप्रक्रिया की प्रतिलिपि की१२।
खरतरगच्छ की लघुशाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनसिंहसूरि के शिष्य शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि द्वारा रचित विधिमार्गप्रप्रा की वि०सं० १५५९/ ई० सन् १५०३ में लिपिबद्ध की गयी प्रति की दाताप्रशस्ति में भी बेगड़शाखा के मुनिजनों की एक छोटी गुर्वावलि१३ प्राप्त होती है, जो इस प्रकार है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनमेरुसरि (इनके वाचनार्थ वि० सं० १५५९/ई० सन्
१५०३ में विधिमार्गप्रपा की प्रतिलिपि की गर्दी)
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ठीक यही बात वि०सं० १५७१/ई० सन् १५१५ में लिखी गयी जीवभिगमसूत्र की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में भी कही गयी है।
वि०सं० १५२६/ई० सन् १४७० में लिखी गयी कालापकव्याकरणवृत्तिसह की प्रशस्ति१५ में प्रतिलिपिकार देवभद्रगणि ने स्वयं को जिनचन्द्रसूरि का शिष्य बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा की तालिका दी है, जो इस प्रकार है : जिनदत्तसूरिसंतानीय जिनचन्द्रसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि
जिनशेखरसूरि जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि
देवभद्रगणि (वि०सं० १५२३/ई० सन्
१४७० में कालापकव्याकरणवृत्तिसह के प्रतिलिपिकार) देवभद्रगणि ने वि०सं० १५३५/ई० सन् १४७९ में नलदवयन्तीचरित्र की भी प्रतिलिपि की, जिसकी प्रशस्ति'६ में उन्होंने अपनी परम्परा की गुर्वावलि का प्रारम्भ इस प्रकार किया है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय → जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि देवभद्रगणि (वि० सं० १५३५/ई० सन् १४७९
में नलदयवन्तीचरित्र के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १५३६/ई० सन् १४८० में देवभद्रगणि के पठनार्थ एक श्रावक द्वारा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की प्रतिलिपि करायी गयी। इसकी दाताप्रशस्ति में भी ठीक उसी प्रकार की गुर्वावली दी गयी है जैसा कि कालापकव्याकरणवृत्तिसह की दाताप्रशस्ति में हम ऊपर देख चुके हैं।
देवभद्रगणि के पठनार्थ ही वि० सं० १५३८/ई० सन् १४७२ में कर्पूरमंजरीनाटिका की प्रतिलिपि की गयी। यद्यपि इसकी प्रशस्ति में प्राप्त गुर्वावली उपरोक्त प्रशस्तिगत गुर्वावलियों के समान ही है, किन्तु इस प्रशस्ति में सर्वप्रथम खरतरबेगड़शाखा का नामोल्लेख प्राप्त होता है, अत: यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। मुनि पुण्यविजय ने इस प्रशस्ति९ का मूलपाठ दिया है, जो इस प्रकार है :
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कर्पूरमंजरीनाम नाटिका राजशेखरी। तद्वयाख्या प्रेमराजेन कर्पूरकुसुमे कृता ॥ १ ॥
इति श्रीमत्सूर्यवंशोत्भव सहिगिलकुलावतंसश्रीमत्प्रयागदासाङ्गज श्रीप्रेमराजविरचिते कर्पूरकुसुमनाम्नि कर्पूरमंजरीभाष्ये चतुर्थं यवनिकान्तरं समाप्तमिति ।। छ ।। श्रीरस्तु शुभमस्तु श्रीदेवगुरुप्रसत्तेः ।। छ ।। संवत् १५३८ वर्षे श्रावण शुल्क सप्तम्यां सोमवासरे श्रीजेसलमेरुमहादुर्गे राउल श्रीदेवीदासविजयराज्ये श्रीखरतरवेगड़गच्छे श्रीजिनेश्वरसूरिसंतानीयश्रीजिनचन्द्रसूरिवराणामादेशेन पं० देवभद्रगणिवरेण वाचनार्थं श्रीकर्पूरमंजरीभाष्यमलेखि नन्दतादाचन्द्रार्कं वाच्यमानं लेखक-पाठकयो: कल्याणं भूयात् श्रीजिनधर्मप्रसादतः ।। छ ।।
वि० सं० १५४१/ई० सन् १४८५ में इन्होंने अपने गुरु जिनचन्द्रसूरि के आदेश से वज्जालग्गं की प्रतिलिपि की। जैसा कि इसी निबन्ध में प्रारम्भ में हम देख चुके हैं, इन्होंने अपने गुरु के आदेश से वि०सं० १५२८/ई० सन् १४७२ में स्यादतप्रक्रिया की प्रतिलिपि की थी। वि०सं० १५४१/ई० सन् १४८५ में ही इन्होंने अपने शिष्य महिमामुनि के पठनार्थ अभिधानचिन्तामणि की भी प्रतिलिपि की।२२
आचार्य जिनचन्द्रसरि के पट्टधर जिनमेरुसरि का वि०सं० १५७१/ई० सन् १५१५ में देहान्त हुआ, तत्पश्चात् इनके शिष्य जयसिंहसूरि ने बेगड़शाखा का नायकत्त्व ग्रहण किया। यह बात वि०सं० १५७८/ई० सन् १५२२ में लिखी गयी शीलोपदेशमाला प्रकरणबालावबोध की प्रतिलिपि की प्रशस्ति२२ से ज्ञात होती है जहां हम जयसिंहसूरि को बेगड़शाखा के आचार्य पद पर प्रतिष्ठित पाते हैं। इनका नायकत्वकाल अल्प ही रहा। प्राप्तसूचनानुसार वि०सं० १५८२/ई० सन् १५२९ में इनके गुरुभ्राता जिनगुणप्रभसूरि खरतरगच्छ की इस शाखा के नायक बने।
वि०सं० १५९५/ई० सन् १५३९ में पं० ज्ञानमंदिरगणि ने आत्मपण्यार्थ अपने गुरु जिनगुणप्रभसूरि की वाचना हेतु वृत्तिसहभवभवनाप्रकरण की प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति२३ में इन्होंने अपनी गुर्वावली दी है, जो इस प्रकार है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनमेरुसूरि जिनगुणप्रभसूरि ज्ञानमंदिरगणि (वि० सं० १५९५/ई० सन् १५३९ में वृत्तिसह
भवभवनाप्रकरण के प्रतिलिपिकार)
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वि०सं० १६१७/ई० सन् १५६१ में जिनगुणप्रभसूरि के नायकत्त्व काल में पं० भक्तमंदिर ने मलयगिरि द्वारा रचित राजप्रश्नीयसूत्रवृत्ति२३ की प्रतिलिपि की। वि०सं० १६२३/ई० सन् १५६७ में पं० भक्तमंदिर ने ही जिनगुणप्रभसूरि के शिष्यों के पठनार्थ बृहत्कल्पसूत्र की प्रतिलिपि की।२४ ।।
जिनगुणप्रभसूरि द्वारा रचित चित्तसंभूतसंधि, सत्तरभेदीपूजास्तव, नवकारगीत, आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। वि०सं० १६५५/ई० सन् १५९९ में इनका निधन हुआ। इन्होंने खरतरगच्छ की मूल परम्परा के आचार्य जिनमाणिक्यसूरि के पट्ट पर सुमतिधीर को बैठा कर जिनचन्द्रसूरि नाम प्रदान किया। यही आगे चलकर युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि के नाम से विख्यात हुए।
जिनगुणप्रभसूरि के शिष्य एवं पं० भक्तमंदिर के गरुभ्राता मतिसागर ने वि०सं० १६५९ में कालकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की२६। जैसलमेर स्थित स्मशान में उत्कीर्ण वि०सं० १६६३/ई० सन् १६०७ के शिलालेख के रचयिता भी यही थे। अपने गुरु के समय में ही इन्होंने वि०सं० १६४२ में सभाष्यतत्त्वार्थसूत्र की भी प्रतिलिपि की।२८
संवत् १६४२ वर्षे मगशिर (मार्गशीर्ष) सुदि ५ तिथौ श्रीजैसलमेरौ राउलश्रीभीमजीविजयराज्ये श्रीखरतरबेगडगच्छे भट्टारकश्रीजिनगुणप्रभसूरिविजयराज्ये पं० मतिसागरेण लिपिकृता।।
जिनगुणप्रभसूरि के एक शिष्य गुणसागर ने वि०सं० १५८२ में कालकाचार्यकथाबालावबोध की प्रतिलिपि की। इसकी प्रशस्ति में इन्होंने अपने एक गुरुभ्राता कमलसुन्दर का भी उल्लेख किया है।२८ए इस प्रकार जिनगुणप्रभसूरि के कुल ६ शिष्यों का उल्लेख प्राप्त हो जाता है:
जिनगुणप्रभसूरि
गुणसागर कमलसुन्दर मतिसागर पं०भक्तमंदिर ज्ञानमंदिर जिनेश्वरसूरि ‘द्वितीय'
(पट्टधर) जिनगुणप्रभसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' हुए। इनके द्वारा रचित जिनगुणप्रभसूरिप्रबन्ध नामक एक कृति प्राप्त होती है जो वि०सं० १६५५ के बाद की रचना है। जैसलमेर स्थित बेगडगच्छीय उपाश्रय के बाहर बांये दीवाल पर वि०सं० १६७३ का एक शिलालेख उत्कीर्ण है जो इस समय बीच से दो खंडों में विभक्त हो गया है। इस अभिलेख में आचार्य जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के समय उक्त उपाश्रय के द्वार के निर्माण का उल्लेख है। श्री पूरनचन्द नाहर२९ ने लेख की छाया प्रतिलिपि और मूलपाठ दिया है, जो इस प्रकार है :
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जैसलमेर - श्री बेगड़गच्छ उपासरा प्रशस्ति पार्श्वनारय मा सैव विविसावा 114सवारमतनदाश्रीजेएतामरुनगरेगाउलश्रीक्षा ल्यापजीविजयराज्यश्रीस्वरतापगडशनलपत्रागिनेश्वरमति विजयराज्यानानगावमकलभरावयामवावगडाजवला
सानपत्रमारवदनाजमाएदनानावणबजलमा विकमा रमसा नाम सामना जिनमवामपतीदा सजाया जाताणामण्यापसी मजदयातनामा वाकरसीमैटौला रमल्लारपसावकाणी उदय मा राजा मामलगमनसेनपान सहित ओरिसावकारिता दिजिबावामधयों)
AAधारणेवाकेन ना पंचा
SHRI BEGARH GACHHA UPASARA PRASHASTI - JAISALMER
(१) ॥ श्रीपार्श्वनाथाय नमः ।। संवत् १६ चैत्रादि ७३ वर्षे जेठ सुदि (२) १५ सोमवारे मूलनक्षत्रे । श्रीजेसलमेरुनगरे राउल श्रीक - (३) ल्याणजी विजयराज्ये । श्रीखरतरवेगड़गच्छे । भ० श्रीजिनेश्वरसूरि (४) विजयराज्ये । छाजहड़गोत्रे । मं० कुलधरान्वये । मंत्री वेगड़ । पुत्र मं० (५) सूरा । तत्पुत्र मं० देवदत्त । पुत्र मंत्री गुणदत्त । तत्पुत्र मं० सुरजन । मं० (६) वकमा । धरमसी । रत्ना । लषमसी । मंत्री सुरजन पुत्र । मं० जीआदे (७) सू । जीया पुत्र मंत्री पंचाइण । पुत्र मं० चांपसी । मं० उदयसिंह मं० (८) वांकुरसी । मं० टोडरमल्ल । चांपसी पुत्र देवकर्ण । उदयसिंह पुत्र (९) महिराज । प्र ..राझा मंत्री टोडरमल्लेण पुत्र सोनपाल सहिते (१०) न उपासरा द्वारं सुघट कारितं ।। चिरं जयतु । श्रीसंघस्य ।। (११) ।। सूत्रधार पांचाकेन कृतं ।। अंबाणी ।।
जैसलमेर के श्मशान से प्राप्त वि०सं० १६६३ के एक शिलालेख में उक्त जिनेश्वरसूरि द्वारा अपने गुरु जिनगुणप्रभसूरि के स्तूप पर चरणपादुका की प्रतिष्ठा का उल्लेख है२९ए। जिनेश्वरसूरि के उल्लेख वाला तीसरा शिलालेख भी श्मशान से ही प्राप्त हुआ है, जो वि०सं० १६८५ का है२९बी। चूँकि यह अभिलेख खंडित हो चुका है, अत: इससे विशेष बातें स्पष्ट नहीं हो पाती।
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जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' हुए, यह बात गुणरत्न द्वारा रचित रघुवंशमहाकाव्यटीका की वि०सं० १६८३ में जोधपुर में मतिसागर द्वारा लिखी गयी प्रतिलिपि की प्रशस्ति से ज्ञात होती है। इस प्रशस्ति में लिपिकार ने जिनचन्द्रसूरि ‘द्वितीय' के गुरु-परम्परा की एक पट्टावली भी दी है जो इस प्रकार है: जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम'
जिनमेरुसूरि जिनगुणप्रभसूरि जिनेश्वरसूरि 'द्वितीय' जिनचन्द्रसरि 'द्वितीय' (इनके समय वि०सं० १६८३ में मतिसागर
ने रघुवंशमहाकाव्यटीका की प्रतिलिपि की) जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' द्वारा वि० सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में रचित पंचपाण्डवरास अपरनाम द्रौपदीरास नामक कृति प्राप्त होती है३१। इसकी वि० सं० १७०९/ई० सन् १६५३ में लिपिबद्ध की गयी एक प्रति जैसलमेर के ग्रन्थभंडार में संरक्षित है, जिसे इनके शिष्य पं० रत्लसोम ने लिखा था।३२ ।।
वि०सं० १७११/ई० सन् १६५५ में इन्ही रत्नसोम ने उत्तराध्ययनसूत्र की प्रतिलिपि की३३। जिनचन्द्रसरि 'द्वितीय' के एक शिष्य महिमानिधान ने वि०सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में ऋषिदत्ताचौपाई की रचना प्रारम्भ की, परन्तु वे उसे अपने जीवनकाल में पूर्ण न कर सके, जिसे इनकी परम्परा में ही आगे चलकर हुए जिनसुन्दर के शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६/ई सन् १७१० में पूर्ण किया।३२ए
जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय के एक अन्य शिष्य जिनलब्धि हुए, जिन्होंने वि०सं० १७२४/ई० सन् १६६८ में विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर की रचना की। इसी प्रकार . इनके एक शिष्य पद्मचन्द्र हुए जिनके द्वारा रचित भरतसंधि नामक कृति मिलती है। पद्मचन्द्र के शिष्य धर्मचन्द्र द्वारा वि०सं० १७६७/ई० सन् १७११ में रचित ज्ञानसुखडी नामक कृति प्राप्त होती है। इन्होंने वि०सं० १७७९/ई० सन् १७२३ में समाधितंत्रबालावबोध की प्रतिलिपि की।२७
जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय' के पट्टधर जिनसमुद्रसूरि हुए, जिनके द्वारा वि० सं० १६९८/ई० सन् १६४२ से वि०सं०- १७५१/ई० सन् १६९५ के मध्य रची गयी विभिन्न कृतियां प्राप्त होती हैं जिनमें ऋषिदत्ताचौपाई, नेमिनाथफाग, पार्श्वनाथरास, हरिबलरास, प्रवचनरचनाबेलि, रत्नसेनपद्मावतीकथा, ईलाचीकुमारचौपाई
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आदि प्रमुख हैं। वि०सं० १७२५/ई० सन् १६६९ में इनके नायकत्त्वकाल में पं० रत्नसोम ने सुरत बन्दरगाह स्थित अजितनाथ जिनालय में श्रीपालचरितबालावबोध की रचना की। यह वही रत्नसोम हैं जिन्होंने द्रौपदीरास और उत्तराध्ययनसूत्र की प्रतिलिपि की थी।३९
वि० सं० १७२८/ई० सन् १६६२ में जिनसमुद्रसूरि के शिष्य सौभाग्यसमुद्र ने कर्णकौतूहल की प्रतिलिपि की। इनके एक अन्य शिष्य पं० समुद्र ने वि० सं० १७२६/ई० सन् १६६० में ऋषिमंडलप्रकरण की प्रतिलिपि की ।
जिनसमुद्रसूरि के पट्टधर जिनसुन्दरसूरि हुए, जिनके द्वारा रचित मानतुंगमानवती चौपाई आदि कई कृतियां मिलती है १९। इसी प्रकार इनके शिष्य जिनउदयसूरि द्वारा वि०सं० १७५३/ई० सन् १६९७ में रचित गुणसुन्दरीचौपाई, वि० सं० १७७३/ ई० सन् १७१७ में रचित गुणावलीचौपाई, उदयविलास, सूत्रकृतांगबालावबोध आदि कृतियां प्राप्त होती हैं। वि०सं० १७८१/ई० सन् १७२५ और वि०सं० १८०६/ई० सन् १७५० के शिलालेखों में भी जिनउदयसूरि का उल्लेख प्राप्त होता है।४२ए
जिनसुन्दरसूरि के द्वितीय शिष्य क्षमासुन्दर ने वि०सं० १७६६/ई० सन् १७१० में ऋषिदत्ताचौपाई को पूर्ण किया जिसका प्रारम्भ वि०सं० १६९८/ई० सन् १६४२ में महिमासमुद्र ने किया था, परन्तु अपने जीवनकाल मे वे उसे पूर्ण न कर सके थे।४३ श्री अगरचन्द नाहटा ने इनके एक शिष्य क्षमासमुद्र का भी उल्लेख किया है जिनके द्वारा रचित ऋषिदत्ताचौपाई (वि० सं० १८वीं शती) नामक एक कृति प्राप्त होती है।
जिनउदयसूरि के एक शिष्य पं० कनककीर्ति की प्रार्थनापर क्षुल्लकभावलिकाप्रकरणेसावचूरि की वि० सं० १७८५/ई० सन् १७२९ में प्रतिलिपि की गयी।५ जिनउदयसूरि के पट्टधर उनके द्वितीय शिष्य जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय' हुए जिनके द्वारा वि०सं० १८१२/ई० सन् १७५६ में अपने गुरु के सम्मान में प्रतिष्ठापित एक चरणपादुका प्राप्त हुई है। ६ जिनचन्द्रसूरि के पट्टधर जिनेश्वरसूरि 'तृतीय हुए। वि०सं० १८४३/ई० सन् १७८७ और वि०सं० १८४६/ई० सन् १७९० के चरणपादुका के लेखों में इनका उल्लेख है। श्री नाहटा के अनुसार इनके पट्टधर का नाम नहीं मिलता। इनके पश्चात् जिनक्षेमचन्द्रसूरि हुए जो वि०सं० १९०२/ई० सन् १८४६ में स्वर्गस्थ हुए। इनके शिष्य एवं पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' वि०सं० १९३०/ ई० सन् १८७४ तक विद्यमान थे। महोपाध्याय विनयसागर जी के अनुसार जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' के पश्चात् यह शाखा समाप्त हो गयी।
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खरतरगच्छ-बेगड़शाखा के मुनिजनों का विद्यावंशवृक्ष
जिनचन्द्रसूरि
जिनेश्वरसूरि 'प्रथम' (वि०सं० १४२५ में बेगड शाखा के प्रवर्तक, प्रतिमा लेख वि० सं० १४२५) सोमदत्त
जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि (प्रतिमालेख) वि० सं० १५१०, १५१३ जयानन्द (वि० सं० १५१० में धन्यचरितमहाकाव्य के कर्ता; जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' (प्रतिमालेख - वि० सं० १५३६) विनयमेरुगणि
। वि०सं० १५२६ में कालकाचार्यकथा के लिपिकार) क्षमामूर्ति
जिनमेरुसूरि (वि० सं० १६वीं शती में इनके पठनार्थ विधिमार्गप्रपा की प्रतिलिपि की गयी) देवभद्रगणि जयसिंहसूरि जिनगुणप्रभसूरि
मुनि महिमामंदिर कमलसुन्दर गुणसागर मतिसागर पं० भक्तमंदिर ज्ञानमंदिर जिनेश्वरसूरि (वि०सं० १५८२ में
(वि० सं० १५९५ में (वि० सं० १७वीं शती में कालकाचार्यकथा के
भवभावना के प्रवज्याविधानकुलकप्रतिलिपिकार)
प्रतिलिपिकार) बालावबोध के रचनाकार)
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जिनचन्द्रसूरि 'द्वितीय'
जिनलब्धिसूरि महिमासमुद्र (वि०सं० १७२४ में विचारषट्त्रिंशिकाप्रश्नोत्तर के रचनाकार)
जिनसमुद्रसूरि (वि० सं० १६९८ से १७५१ के मध्य विभिन्न कृतियों के रचयिता)
पद्मचन्द्र (१८वीं में भरतसंधि
के कर्ता)
पं० रलसोम। (वि० सं० १७७९ में पंचपाण्डवरास के प्रतिलिपिकार)
धर्मचन्द्र (वि० सं० १७६७ में ज्ञानसुखडी के कर्ता)
सौभाग्यसमुद्र
जिनसुन्दरसूरि
पं० समुद्र
– जिनउदयसूरि
क्षमासुन्दर
क्षमासमुद्र ऋषिदताचौपाई (१८वीं शती) के रचयिता
वि०सं० १७५३ में गुणसुन्दरीचौपाई . वि०सं० १७७३ में गुणावलीचौपाई वि० सं० १८वीं शती में उदयविलास वि० सं० १८वीं शती में सूत्रकृतांगबालावबोध आदि के कर्ता
जिनचन्द्रसूरि 'तृतीय'
पं० कनककीर्ति
जिनेश्वरसूरि 'तृतीय' (वि० सं० १८वीं शती में जंबूस्वामीचौपाई के रचनाकार) जिनक्षेमचन्द्रसूरि (वि० सं० १९०२ में स्वर्गस्थ)
जिनचन्द्रसूरि 'चतुर्थ' (वि० सं० १९३० तक विद्यमान)
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१२२
सन्दर्भ :
२.
वही, पृष्ठ १०.
२अ. रमेशचन्द्र मजुमदार और ए०डी० पुसालकर, दिल्ली सल्तनत, प्रथम संस्करण, मुम्बई १९६० ई०, पृ० १६२.
अगरचन्द नाहटा, भँवरलाल नाहटा, संपा० बीकानेरजैनलेखसंग्रह, श्री अभय जैन ग्रन्थमाला, पुष्प १५, कलकत्ता वीर सम्वत् २४८२, लेखांक ४७३. विनयसागर, संपा० प्रतिष्ठालेखसंग्रह, जिनमणिमाला - ग्रन्थांक ४, सुमति सदन, कोटा १९५३ ई०, लेखांक १५५.
३.
४.
५.
६.
७.
८.
पं० बेचरदास दोशी, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि काव्यांजलि, सम्पादक - प्रो० सागरमल जैन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम लघु प्रकाशन, ग्रन्थांक ३, वाराणसी - १९८० ई०, प्रस्तावना, पृष्ठ १०.
९.
बीकानेरजैनलेखसंग्रह, लेखांक ५३४.
वही, लेखांक ८८१ तथा १९५८ एवं पूरनचन्द नाहर, संपा० जैनलेखसंग्रह भाग ३, लेखांक २७३९, २७४०, २७४१, २८२४ आदि ।
Muni Punya Vijaya, Ed., New Catalogue of Mss in the Jain Bhandars at Jesalmer, L.D. Series, No. - 36, Ahmedabad- 1972 A.D., P-278-79, No.- 1231.
धन्नाशालिभद्रचौपाई, संपा० रमणलाल सी० शाह, मुम्बई १९८३ ई०,
प्रस्तावना, पृष्ठ २३.
Muni Punya Vijaya, Ed., New Catalogue of Mss. P- 227, No. 467.
१०. पूरनचन्द नाहर, संपा०- जैनलेखसंग्रह, भाग ३,
लेखांक २४०१.
११. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २०१-२०२, क्रमांक १८९.
-
१३. वही, पृष्ठ २४०, क्रमांक ६६१. वही, पृष्ठ २०७, क्रमांक २४९.
१५.
१७.
वही, पृष्ठ २०४,
क्रमांक २२८.
वही, पृष्ठ २१७, क्रमांक ३८६.
वही, पृष्ठ २०५, क्रमांक २३७.
वही, पृष्ठ २०५, क्रमांक २३९.
२२ .
१२ . वही, पृष्ठ २६४, क्रमांक ९९३. १४. वही, पृष्ठ १६४, क्रमांक २२८. १६. वही, पृष्ठ २०७, क्रमांक २५२. १८ - १९. वही, पृष्ठ २०६, क्रमांक २४७.२०. २१. वही, पृष्ठ २६४, क्रमांक ९९३. २२ए. वही, पृष्ठ २१६, क्रमांक ३७४. २३ए. वही, पृष्ठ २२३, क्रमांक ४२३. २५. शीतिकंठ मिश्र, हिन्दी जैन साहित्य का बृहद् इतिहास ( मरु - गूर्जर ), भाग २, पार्श्वनाथ विद्याश्रम ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक ६६, वाराणसी १९९४ ई० सन्, पृष्ठ १२२.
२३.
२४.
वही, पृष्ठ २०९, क्रमांक २७२.
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२६. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २५४, क्रमांक ८५०. २७. नाहर, पूर्वोक्त, भाग ३, लेखांक २५०५. २८. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २३२, क्रमांक ५४७. २८ए. वही, २२६-२७, क्रमांक ४५८. २९. नाहर, पूर्वोक्त, भाग ३, लेखांक २४४७. २९ए. वही, भाग ३, लेखांक २५०५. २९बी. वही, भाग ३ लेखांक २५०७. ३०. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २१६, क्रमांक ३७० ३१. अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहटा, संपा०, मणिधारी जिनचन्द्रसूरि अष्टम
शताब्दीस्मृतिग्रन्थ, भाग २, "खरतरगच्छीय साहित्य सूची", पृष्ठ ४९. ३२. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २४१, क्रमांक ६७३. ३३. वही, पृष्ठ २१६, क्रमांक ३७१. ३३ए. वही, पृष्ठ २१८-१९, क्रमांक ४००. ३४. वही, पृष्ठ ३०३, क्रमांक १४४१. ३५. खरतरगच्छीय साहित्य सूची, पृष्ठ ५३. ३६. वही, पृष्ठ ४८. ३७. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ २५५, क्रमांक ८६३. ३८. वही, पृष्ठ २१४, क्रमांक ३३८. ३९. वही, पृष्ठ २४१, क्रमांक ६७३ एवं पृष्ठ २१६, क्रमांक ३७१. ४०. वही, पृष्ठ २७३, क्रमांक ११३६. ४१. वही, पृष्ठ २६५, क्रमांक १०१५. ४१ए. खतरगच्छीय साहित्य सूची, पृष्ठ ५४. ४२. वही, पृष्ठ ६, ३८, ४५.
४३. द्रष्टव्य, संदर्भ क्रमांक ३३ए. ४४. खरतरगच्छीय साहित्य सूची, पृष्ठ ४२. ४५. मुनि पुण्यविजय, पूर्वोक्त, पृष्ठ ३१६, क्रमांक १६१३. ४६. नाहर, पूर्वोक्त, भाग ३, लेखांक २५०९. ४७. वही, भाग ३, लेखांक २५१०, २५११. ४८. अगरचन्द नाहटा एवं भंवरलाल नाहटा, संपा०, ऐतिहासिकजैनकाव्यसंग्रह
पृष्ठ ७५. ४९. मणिधारी जिनचन्द्रसूरि काव्यांजलि, प्रस्तावना, पृष्ठ ११. ५०. वही, पृष्ठ ११.
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MYTH OF LORD MAHAVIR'S EMBRYO-TRANSFER IN JAIN-SCRIPTURES
MANGILAL BHUTODIA
Apropos my article on "The unique example of embryo transfer" performed practically about 2600 yrs ago published in the Journal of The Asiatic Society (vol. XLII nos. 3-4, 2000), it was my pleasure researching the issues raised by learned readers and thinkers.
The most revered 12th Century's Jain Acharya Hem Chandra Suri in his well known treatise “Trishasti-Salaka-Purus-Carita" (त्रिषष्ठि शलाकापुरुषचरित, पर्व - 10, सं. 2 पद 16-19) has while narrating Lord Mahavir's life, described the episode of the Embryo transfer almost in a similar manner mentioned in the Jain Agamic Scriptures Kalpa Sutra (कल्पसूत्र), Bhagwati Sutra ( भगवती सूत्र ) and Acharanga Sutra (आचारांग सूत्र ). It seems he followed the tradition of medieval saints.
It was astonishing to find a similar episode in Balram, Krishna's elder brother whose embryo-transfer is mentioned in Srimad BhagwatPurana (श्रीमद्भागवत पुराण, स्कंध - 10, अध्याय - 2, श्लोक - 6-15) as having surpassed all limits of time and imagination.
भगवानपि विश्वात्मा विदित्वाकंसजं भयम् । यदूनां निजनाथानां योगमायां समादिशत् ॥६॥ गच्छ देवि व्रजं भद्रे गोपगोभिरलङ्कतम् । रोहिणी वसुदेवस्य भार्याऽऽस्ते नन्दगोकुले | अन्याश्रु कंससंविग्ना विवरेषु वसन्ति हि ॥ ७॥ देवक्या जठरे गर्भ शेषाख्यं धाम मामकम् । तत् संनिकृष्य रोहिण्या उदरे संनिवेशय ॥ ८ ॥ अथाहमंशभागेन देवक्या: पुत्रतां शुभे । प्राप्स्यामि त्वं यशोदायां नन्दपत्न्यां भविष्यसि ॥ ९ ॥ अर्चिष्यन्ति मनुष्यास्त्वां सर्वकामवरेश्वरीम् । धूपोपहारबलिभिः सर्वकामवरप्रदाम् ॥१०॥
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नामधेयानि कुर्वन्ति स्थानानि च नरा भ्रवि। दुर्गेति भद्रकालीति विजया वैष्णवीति च ॥११॥ कुमुदा चण्डिका कृष्णा माधवी कन्यकेति च। माया नारायणीशानी शारदेत्यम्बिकेति च ।।१२।। गर्भसंकर्षणात् तं वे प्राहुः संकर्षणं ध्रुवि । रामेति लोकरमणाद् बलं बलवदुच्छ्यात् ।।१३।। सन्दिष्टैवं भगवता तथेत्योमिति तद्वचः । प्रतिगृह्य परिक्रम्य गां गतातत् तथाकरोत् ।।१४॥ गर्भे प्रणीते देवक्या रोहिणी योगनिद्रया । अहो विस्त्रंसितो गर्भ इति पौरा विचुक्रुशुः ।।१५।।
(At the prayer of Deva (a), Vishnu decided to incarnate in part (अंश) on the Earth in Devaki's womb. Visualising the possibility of Kans's (कंश) misdeeds killing six of her sons He called his Shakti (शक्ति) Yogmaya (योगमाया) and ordered her to transfer his incarnate-embryo from Devaki's womb to the womb of Rohini (रोहिणी), the second wife of Vasudev (arca), who was outside prison, so that Balram may be born from Rohini's womb. He also ordered Yogmaya herself to incarnate on Earth taking birth as Yashoda's daughter. Vishnu at the same time decided to incarnate fully (अवतार) as Devaki's 8th child. The strategy being that the 7th child of Devaki, Balram would be saved by embryo-transfer and the 8th child Krishna would be replaced by Vasudev with Yashoda's daughter Yogmaya and when Kans tries to kill her she being an angelic-incarnation, would vanish. Yogmaya did exactly as instructed by Vishnu, she hypnotised Devaki and Rohini into deep sleep and then transferred Balram's embryo in the 7th month of pregnancy to Rohini's womb. Thus Kans's purpose was defeated.)
The noteworthy aspects of the above operation are - i) The operation takes place when the embryo is 7 months old. ii) The process of hypnotising the incumbents into deep sleep
before the operation takes place. Dr. Parameswar Solanki has without questioning the possibility of such an embryo-transfer remarked (see Jain Bharati, Vol. 39.3 March 1991, pages 147-148) that the Jain Acharyas may have been guided in
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mentioning such an episode by the Bhagwat-Purana's example perhaps on the assumption that the Bhagwat-Purana is a prior treatise. But it could be vice-versa, the origin of Agamic literature is no less older than the Bhagwat-Purana's. The flight of imagination however in the BhagwatPurana's episode of embryo-transfer in the 7th month of pregnancy is in fact more amazing and less credible than the Agamic-transfer of embryo on its 83rd day of pregnancy. The process of hypnotising the incumbents in deep sleep is also void of the minute details which are the hallmark of Agamic literature.
I had in my article published in Tulsi-Pragna (Vol. 104, Issued 4, March, 1998 at pages 155-161) while highlighting the excellency of such an experiment 2600 years ago, also expressed my doubt about the factual trustworthiness of the whole episode. Giving it a sociological twist I was inclined to interpret the myth differently. Those were the days of feudal Kingship. The King Supreme owned many a Queen and in the palace there were concubines from every strata including Brahmins with whom the king frequently had sexual relations. The son born to a Brahminconcubine could find favour with the king linking the son's parentage to the Royal household for the outside world or could be adopted by the king to avoid embarrassment although he already, had a son (af Gaza) from his Queen Trishala in this particular case.
This view of the whole episode, may annoy many a blind follower and fanatic but needs to be explored for solving many myths created by vested interests and to bring out historical facts as authentically as possible. The modern mind with its scientific aptitude can not accept such unimaginable happenings as historic truths unless they could be rationally perceived and or explained. Even the myth of Five-hoodedserpent-head as canopy over the 23rd Tirthankar (alfat) Parasvanath has been challenged by modern scholars. These serpent-heads are said to be the creation of medieval Jain-Acharyas. The sculptures and literature depicting the canopy only go to explain Parsva's association with Nagraj (APR ) Dharnendra (ETCUTES). Sri U .P. Shah, a Jainologist of repute, in his essay on the subject while explaining the depiction of a serpentcanopy (1 187) over Parsva interprets it to be a totemic symbol of his
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link with his ancestral Naga-tribe (ar digi) and Nag-worship (am 4571). The eminent scholar Dr. M.A Dhaky in his essay ‘Arhat Parsva and Dharnendra Nexus' (published 1997) supporting Shah's views suggests that in the total absence of this serpent-canopy in any of the sculptures found in the Kankali tila (otit CTCT) of the Mathuraexcavations dating back to 1st century B.C., the so called depiction is obviously a Nirgrantha (Fifa) adaptation of the Brahmanical myth of Sesh-Nag (1971) supporting Globe of Earth on his head or followed from the myth of Krishna-Govardhan episode of Hindu-scriptures. Likewise the embryo-transfer-myth could be interpreted rationally to be a creation of the later Jain-Acharyas to avoid the Brahmanical parental linkage of Lord Mahavir. The medieval period between 5th to 10th century AD. saw a phenomenal upsurge of hatred against Boudhas (allas) and Jains generated by the followers of Adi-Guru Shankaracharya when not only a vast number of Jain shrines were demolished or destroyed but also a disheartening number of Jain and Boudh Acharyas and Muni's (f) were slain in Southern India. The possibility of one-up-manship creating such myth can not be ruled out.
The most revered Jain scholar of the 20th century Pundit Sukhlal Sanghvi has in his critical analysis of such mythical representations in Lord Mahavir's life challenged the Embryo-transfer episode (Eir atefotot), and suggested that it could be 'an addition to the Agamic literature by later Acharyas. What gave strength to his argument was the fact that the Jain scriptures of the Digambar sect have completely ignored this transfer episode. Mahavir according to them was born of Trishala and there is no mention of Devananda as Mahavir's mother of conception at all.
The Archaeological findings of the Kankali tila (archaisit CT) in Mathura and the inscriptions found there support the above view. The famous Western Archaeologist and Historian Vincent Smith has in his treatise “Jaina Stupa & other Antiquities of Mathura" dated the inscriptions and sculptures to be of 1st century B.C. These sculptures faithfully depict most of the important events of Lord Mahavir's life but the total absence of the Embryo transfer-episode in those depictions clearly is a pointer to its concoction later on.
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Some passages in the Kalpa Sutra (0264 ) depicting hatred towards Brahmins also seem to be later-age creations giving credence to the Addition-theory. Stanza (गाथा) 17 of the Kalpa Sutra is explicit in this regard:
(तए णं तस्स सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो अयमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्थन एयं भूयं, न एयं भव्वं, न एयं भविस्सं, जं नं अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा अंतकुलेसु वा पंतकुलेसु वा तुच्छकुलेसु वा दरिद्दकुलेसु वा किविणकुलेसु वा भिक्खायकुलेसु वा माहणकुलेसु वा आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संति वा एवं खलु अरहंता वा चक्कवट्टी वा बलदेवा वा वासुदेवा वा उग्गकुलेसु वा भोगकुलेसु वा राइण्णकुलेसु वा खतियकुलेसु वा हरिवंसकुलेसु वा अनतरेसु वा तहप्पगारेसु विसुद्धजातिकुलवंसेसु आयाइंसु वा आयाइंति वा आयाइस्संतिवा।
(Lord Indra (5-5) oversees from his heavenly abode by Awadhigyan (अवधिज्ञान) that Lord Mahavir has incarnated on Earth into the womb of Devananda (देवानन्दा)Brahmani (ब्राह्मणी). He contemplates over it and thinks that Tirthankars (aitefat), I the enlightened ones can not take birth in low castes (अन्त्य कुल, अधम कुल, नीच कुल, तुच्छ कुल, दरिद्र कुल, कृपण कुल, भिक्षुक कुल अथवा ब्राह्मण कुल) such as the most down trodden shudras, criminals, poverty stricken, misers, beggars and the Brahmins. Therefore Indra thinks it to be his duty to transfer the embryo of Mahavir to the womb of a lady of Khsatriya Kul (क्षत्रिय कुल), a race of pure blood (विशुद्ध जाति). Then Indra proceeds to instruct his man to execute the plan).
This kind of bias against Brahmins showing them at par with the low castes is not depicted any where else in the Agamic literature of ancient times. On the contrary 'Uttar Purana' (उत्तर पुराण) contains references of some Tirthankars (eg. Shantinath, Kunthunath and Arhnath) whose spouses belonged to the Mlechha (1083) community of extremely low and out castes.
Muni Punya Vijay(मुनि पुण्यविजय)alearned commentator on ancient Agamic literature has in his introduction to a modern edition of the Kalpa Sutra expressed his doubt about the authenticity of a number of Stanzas (गाथा) in it. Trisala's (त्रिशला) dreams in elaborate poetic form are thought to be such doubtful additions to the original text of the Kalpa Sutra. The
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Embryo-transfer episode could well be one of such additions by later Acharyas. This appears to be more so because the author of the Kalpa Sutra Acharya Bhadrabahu was a born Brahmin. He was the 8th successor to Lord Mahavir. Brahmins in those times were ardent followers of Jins ( ). Admittedly the Agamic literature was for the first time reduced to writing in 453 AD. As discovered by scholars, the second and third part of the Kalpa Sutra namely Sthaviravali (f) and Sadhu Samachari (4) contain passages definitely written by later Acharyas.
=
Some historians go so far as to suggest that Jamali (HI) was the son of Nandivardhan (नन्दिवर्धन), Trishala's (त्रिशला) own son and elder brother of Lord Mahavir. According to them Mahavir's daughter Priyadarshana (f) was given in marriage to Nandivardhan's
son Jamali. If that be so, Mahavir could not have been the son of Trisala. He might have been adopted after having born to Devananda, the Brahmin lady.
Dr. Hermann Jacobi, the learned Western authority and erudite commentator on ancient Jain Agamic Literature had visualised the possibility of Devananda being the second wife of Siddhartha. In his introduction to the Jain Sutra (The Sacred Books of the East 1884 Ed. Vol. 22) Dr. Jacobi interprets the episode as follows:
I assume that Siddhartha had two wives, the Brahmini Devananda, the real mother of Mahavira and the Khsatriyani Trishala. Because the name of the alleged husband of the former viz., Rishabhdatha can not be very old because its Prakrit form would in that case probably be Usabhadinna in stead of 'Usabhdatta'. Besides, the name is such as could only be given to a Jain not to a Brahmin. I therefore have no doubt that 'Rishabhdatha' has been invented by the Jains in order to provide Devananda with another husband. Siddhartha was connected with persons of high rank and great influence through his marriage with Trisala. It was therefore probably thought more profitable to give out that Mahavira was the son and not merely the step son of Trisala so that he could be entitled to the patronage of her relations. This story could all the more easily have gained credence as Mahavira's parents had died many years before he
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came forward as a prophet. But as the real state of things could not totally have been erased from the memory of the people the story of the transfer of the embryo was invented.
The most authentic proof of Devananda being the real mother of Mahavir and Mahavir having horn of her comes from the most revered Jain scripture Bhagvati Sutra itself. Lord Mahavir is said to have attained enlightenment in 557 B.C. and two years later he visited his birth place Bhahman Kunda (ब्राह्मण कुण्ड) when Jamali and Priyadarshana (his son in law and daughter respectively) are said to have taken Sanyas and joined Mahavir's Religious order (धर्म संघ). There Devananda came to pay her respects to the Lord. This incident is vividly described in stanza (गाथा)4 and 5 of part (उद्देशक) 33 of Chapter (शतक)9 of the Bhagvati Sutra as follows:
(तएणं सा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया, पप्फुयलोयणा संवरियवलयबाहा, कंचुयप रिक्खित्तिया धारा हयकलंबगं पिव समूसवियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी देहमाणी चिट्टइ। .
(Looking at the Lord her (Devananda's) whole body shivered with ecstasy and excitement. Tears burst out of her eyes and milk oozed out of her breasts. The sensation pulsating in her limbs inflated the wet breast covering).
(प्रश्न - भंते ! ति भगवं गोयमें समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदिताणमंसित्ता एवं वयासी - किणं भंते ! एसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हया, तं चेव जाव रोमकूवा दवाणुप्पियं अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठइं।
("Oh Lord !” addressing thus, Muni Goutam (Titara Fant) saluted and asked Mahavir - "How is it that this lady's (देवानन्दा ब्राह्मणी) body is shivering with excitement and milk is oozing out of her breasts and she is standing staring continuously at you”).
गोयमाइ ! समणे भगवं महावीरं भगवं गोयमं एवं वयासी - एवं खलु गोयमा! देवाणंदा माहणी ममं अम्मगा, अहणं देवाणंदाए माहाणीए अत्तए, तएणं सा देवाणंदा माहणी तेण पुव्व पुत्त सिणेहरागेणं आगयपण्हया, जाव समूस वियरोम कूवा मम अणिमिसाए दिट्ठीए पेहमाणी पेहमाणी चिट्ठइ। तएण समणे भगवं महावीर उसभदत्तस्स माहाणस्स देवाणदाए माहणीए तीसे च महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया।
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(Lord Mahavir answered - "Gou tam. she is my own mother. I was born of her. That is why because of love and excitement from seeing her son after a long long time her body is shivering and milk is oozing out of her breasts." The Lord then addressed the gathering including Rishabhdutta and Devananda and after hearing His sermon the gathering dispersed.)
The abovementioned narration, in my view, conclusively shows that Devananda herself had given birth to Mahavir. Such an ecstatic excitement at seeing her son after a long time and in such an enlightened state could only emerge in a lady who had experienced the pangs of giving birth to him. Devananda was not an enlightened one and she or anybody else could not have knowledge of the so called transfer of embryo from her womb on the 83rd day of her pregnancy. Lord Mahavir while answering Goutam’s query does not speak either about the so called transfer. The Lord on the contrary asserts in clearest terms that he was born of her. It would be a travesty of facts if we in our zeal to upgrade the parentage from the so called low caste of Brahmin to the so called upper caste of Khsatriyas and stick to a myth created with a bias against Brahmins and most probably to show oneup-manship over the Brahminical myths. The husk should be sorted, out of the rice. The ancient scriptures thus need to be interpreted rationally and honestly with a visionary's perception to straighten the historical records.
References 1. Tulsi Prajna (Quarterly Magazine vol. 104, Issue-4, March, 1998
Pages 155-161) Ed. Dr. Parameswar Solanki, Published by Jain Viswa
Bharati. Ladnun. 2. Acharya Hemchandra Suri, Trishasti-Salaka-Purus-Carita (98 10.
246 16-19). 3. Kalpa Sutra, Acharya Bhadrabahu (97791-17) Editor : Muni Punya
Vijay. 4. Bhagvati Sutra (P16 - 9, JE 977 - 33, 7799 - 4,5). 5. Acharanga Sutra (Third Chulika-Bhawna. Chapter 24, Stanza
991-993).
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6. Shrimad-Bhagwat Purana (FOSET - 10, 3782/84 - 2, Pilah: 6-15). 7. Jain Bharati (Monthly Magazine, vol. 39, issue-3, March, 1999)
Published by Jain Viswa Bharati, Ladnun. 8. Dr. M.A. Dhaky ‘Arhat Parsva & Dharnendra Nexus ', Delhi - 1997. 9. Sri U.P. Shah 10. Vo Tamid 90, ar neto! 11. Vincent Smith 'Jaina Stupa & other Antiquities of Mathura'. 12. Uttar Purana. 13. Hermann Jacobi, The Sacred Books of the East, 1884 Ed. Vol. 22.
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Religious Aspect of Non-Violence
Dr. B.N. Sinha*
Religious aspect of non-violence is of the subject an important dimension because religion and non-violence are related with each other very closely. In the Mahābhārata it has been mentioned that non-violence itself is a complete religion and violence is a non-religion (Adharma); non-violence is the greatest one among all religions because all beings are saved by it.' According to Bhaktaparijñā there is no religion like nonviolence.? In the words of Ācārya Tulasī, non-violence is the substance (Sattva), essence (Sära) and cream (Makkhana) of all religions. But it is necessary, before discussing this aspect, to know religion in itself as well as non-violence in itself. Religion
In Hindi there is a word 'Dharma' which comes for the English term 'Religion'. The English word ‘Religion' has been derived from the Latin word ‘Religio'which means saintliness, holiness, religious faith etc. James Martin has defined it in the following words -
“Whenever we have devoutedness, devotedness, devotion we have the primary features of religion."4
Some thinkers are of the opinion that there is a vast difference between the Indian term 'Dharma' and the Western term 'Religion'. As they have assigned, the word 'Religion' stands for some communal organization while the word 'dharma' connotes some deep secracy, some mysteriousness. It cannot be translated in to other languages. But neither in the Western tradition there is any word except religion for 'Dharma' nor in the Indian tradition there is any term except 'Dharma' for Religion.
The term 'Dharma' is generally used for nature (prakriti), duty (kartavya), kindness or favour (upkāra), virtue (punya) etc. It has
*Former Reader, Deptt. of Philosophy, M.G. Kashi Vidyapith, Varanasi-2
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been originated from the Sanskrit root 'Dhr' which means to provide base. So Dharma has been defined as that on which the world (loka) is based. It is also that which is based upon world is human life. In short, Dharma and world or human life are based on each other. Therefore in the Jātaka it has been said -
“An individual is lost when his Dharma is lost."
Manu has identefied ten characteristics of Dharma.“ They are Patience (Dhairya), Forgiveness (Kșamā), Mind-Aversion (Manonigraha), Non-stealing (Acaurya), Cleanliness (Šauca), Sense-Aversion (Indrinigraha), Reason (Viveka), Knowledge (Jñāna), Truth (Satya), NonAnger (Akrodha). Mahātmā Vidura while focussing light on the importance of religion has said, “It is Dharma due to which Rșis have crossed the ocean like world. The whole world is based on Dharma. Dharma causes the improvement of deities. Even economy is established in Dharma." A well known Western thinker, G. Galloway, has defined religion as - 'Religion is man's faith in a power beyond himself whereby he seeks to satisfy emotional needs and gain stability of life and which he expresses in acts of worship and services.
Ācārya Tulasi has defined Dharma in the following way -
Dharma is a unity between knowledge (Jñāna), faith (Darśana), happiness (Ananda) and power (Śakti).'
Again he says that universal tolerance, harmony, humble tendency towards truth are the basic elements of religion. On the whole, religion is that which brings harmony, happiness, holiness and stability in human life. This definition may be analysed in the following way -
Harmony - Harmony consists of these co-operative elements1) Harmony between individual and individual. 2) Harmony between individual and society. 3) Harmony between society and society 4) Harmony between society and nation. 5) Harmony between nation and nation.
The failure of harmony in one concern may disturb the harmony of all concerns.
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Happiness, holiness and stability should prevail in all individual life, social life, national life and universal life.
So far as the function of religion is concerned, Ācārya Tulasi has said it changes the mind, life and heart of a man."
Non-Violence The term 'Non-Violence' is a combination of two words 'Non and 'Violence'. Thus it means absence of violence or negation of violence. It is the negative form of Non-Violence. Now the question arises - what is the violence which is negated in the negative form of non-violence. In Jainism, violence has been defined as that activity in which movement of the living power (Prāņa) is destroyed due to distraction, killing, torturing, disturbing etc. These are categories of violence. In other words, immoral irreligious and unsocial activities are considered as violence. But nonviolence cannot be known in its negative form only. It has also its positive form which is constituted by help, charity, benevolence, gratitude, forgiveness etc. In this form affirmation may be seen. The affirmation
religious, moral and social activities is classed as non-violence.
Violence or non-violence may be seen in idea which is abstract as well as in substance or matter. The abstract idea of violence or non-violence is the internal form while the material form of violence or non-violence is the external form. Thinking to kill or to save from killing is the internal form and to kill some body or to save some body when he is in a position to be killed is the external form. But violence or non-violence is mainly mental or psychological. There are very famous examples of a farmer and a fisherman. A farmer is never considered a killer or violence doer (Himisaka), though so many insects are killed by his ploughing activity because his aim is not to kill some insect but to get sufficient corn for his family and society for the cause of their pleasant life. On the other hand, a fisherman is treated as a violence-doer though, by chance during the whole day he may not catch a single fish and return to his residence empty, This is because his aim is to catch as many fishes as he can. He is suffering from mental violence,
According to Jainism, violence and non-violence may be done through three karanas and three yogas.
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Three Karanas and Three Yogas in the field of Violence. Karnas -
Yogas -
1) Doing violence on your own, himself i.e. to kill some being through own activity (Karanãā)
Yogas -
2) Getting violence done by others i.e. to order some body to injure some being. (Karavānā)
3) Neither doing violence on your own nor endorsing some person to do violence but simply to support the activity of violence by witnessing that. (Anumodana karaṇā)
To make up your mind to kill or to injure some being. To utter harsh words in order to humiliate somebody. 3) To attack somebody in order to kill him or to injure him. In other words, these are injury in mind (Manasā) injury in words (Vācā) and injury in action (Karmanā).
Three Karanas and Three Yogas in the field of Non-Violence.
Karanas 1) Doing non-violence yourself i.e. to save somebody from being injured (Karana)
1)
2)
2) Ordering some person to save somebody (Karavānā)
3) Neither saving nor ordering somebody to save some being but only supporting the activity of saving by witnessing that (Anumodana Karanā)
1)
To make up your own mind not to injure anybody.
2)
Not to utter any harsh words to humiliate some body. 3) To save somebody if he is in a position to be injured.
These are non-injury in mind (Manasā), non-injury in words (Vācā) and, non-injury in action (Karmanā)
In the Acārāngasūtra non-violence and religion have been declared as one and the same.
"All animates (Prānī), all elements (bhūta), all beings (jiva) and all existants (sattā) should neither be killed, nor be ordered to be killed, nor be oppressed, nor be tortured, nor be disturbed with a view to killing. This religion (dharma) in the form of non-violence is pure' 12
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The Negative form of Non-Violences in Religion
The negative form of non-violence is the prohibition of violences. So, here it is needed to know the violences occurring in the religious field. In all religions there are two classes - (i) the class of those persons who are followed by common people and (ii) the class of those persons who follow their religious guides. The former class consists of saints, seers, ascetics, monks, nuns etc. under whose guidance householders lead their religious life. The later class consists of house holders both male and female who with respect, regard and faith follow their prophets. In this way, saints and prophets are known as the main organisers of religions and their conduct lights the path of ordinary people. It is the religious duty of house holders to follow their prophets honestly and interestedly, co that religion may be proved as the peace giver to society. The proper religious life of any society depends on the conduct of both monks and house holders. The violation of the code of conduct either by monks or by house holders may cause violence in society and violence pushes a society to decay not development. Though religious prophets and their followers are found very careful in conducting their careers, several faults are seen in their behaviour which result into the violation of ethical code. Some examples of violation of moral law, i.e. violence, may be cited up here to show the present condition of religion in our society.
1) Misinterpretation of others' scriptures:
Generally due to envy religious teachers misinterpret the scriptures of other religions so that wrong ideas may be created in society against other religions. The followers of almost all religions treat their own religion as the oldest and the greatest one. Due to this narrow mindedness they think that whatever right may be in this world, have been introduced in their scriptures and the scriptures of other religions are full of useless things. But actually, no religion should be considered as the most superior or superior to any other religion because all religions pave the path to the same ultimate reality.
2) Nastika and Kāphira :
The Vedic tradition believes in the God and the Vedas. All its philosophical, religious and social theories have originated from the
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Vedas. The Vedas have been accepted as the words of God. God is known as the creator, sustainer and destroyer of this world. Contrary to this tradition, Jaina and Buddhist traditions have refused the Vedas and the existence of God. They have believed in human power. According to Jainism and Buddhism, a man, by practising penance, can achieve Godly superiority. Therefore he should not depend on God, a transcendental element. But the followers of Vedic tradition have named Jainas and Buddhists as Nāstikas. According to them, Nāstika means a man of irreligious and immoral character. If a man is neither religious nor moral, how can he be a social man. So the nāstika-man is neither religious nor ethical nor social. But, in the real sense the word Nāstika represents the jealousy of Vedic tradition against Jaina and Buddhist traditions which symbolise violence.
Islam is a religion based on the five religious pillars (Pancastambhas). The Pancastambhas consist of one Imāna (faith) and four Ibādata (religious activities). The followers of Islam have faith in Allāha, Kurāna Sarif, Deen (Islam religion), Akhirata, Muhammad Sahib, Nabi, Rasûla. They practise four Ibādata i.e. Namāza (Prayer to Khudā), Rojā (Fasting), Jakāta (Charity) and Haja (Travel to Makkā-Madinā the central place of Islam). A Muslim is he who follows the five stambhas and a religious man is he who has faith in Islam. According to Islamic theory, those who do not follow Islam are Kāphira. A Kāphira just like Nāstiak of Hinduism, stands for those who are neither religious, nor moral, nor social.
The feeling of Nāstika or Kāphira hampers the universality of religion. According to time and place, there are different, religions in the world. How can only one religion be accepted as a religion? If a man declares all religions, except his own religion, as non-religions, he commits a sort of violence. All religions should be respected equally. Superiority of own religion
In the Srimadbhagavadgită a key not of the whole Vedic philosophy and religon Sri Krsna has propounded -
"Śreyānsvadharmo vigunah paradharmātsvanusthitãt | Svadharme nidhanam śreyahpara dharmo bhyāvahah” |1351|3
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That, own religion, even if it lacks some religious qualities, is better than others religion well conducted. If needed, to sacrifice even life for the cause of own religion is auspicious because others religions are fearful. Inferiority of Others' Religions
Religious teachers and prophets are found very interested not only in praising and popularising their own religions but also in defaming others' religions. They deform the technical terms having right forms of other religions, so that people may have their wrong meanings and unsocial senses. In the Hindi speaking areas there are two very popular words - Luccă and Buddhu - which are always used in a bad sense. The word Luccă means that man who is a wrong-doer and whose words are not worthy to be believed. This word is the deformation of the Jaina word Luncä. In the Jaina religion monks and nuns pluck threir hairs without using any razor or scissor or blade. That plucking activity is known as “Luncana'. The person who does 'Luncana' is named as ‘Luncā”. Particularly this word is used for the Jaina-saints. The religious teachers and prophets of the Vedic tradition do not accept the philosophical and religious theories propounded by the Jaina philosophers and prophets. According to them, the Jaina philosophical theories and religious practices are meaningless and useless. So, due to jealousy against Jainism the Vedic prophets have declared that the words of a ‘Luncā' are not worthy to be believed. In the flux of time the word "Luncă' has been changed as 'Luccā' which is very commonly used for a wrong-doer and unbelievable person.
The word 'Buddhu' is the deformation of the word 'Buddha' of Buddhist tradition. The envious intension of the Vedic religious teachers have caused this deformity. The word ‘Buddhu' means foolish while the word 'Buddha' means wiseman. In Buddhism, Buddha is he who has attained true knowledge after renouncing all worldly attachments and practising penance. But the Vedic religious teachers have attached a wrong meaning with this word. According to them, Buddha is Buddhu or foolish. Actually Buddha has refuted the Vedic philosophy and religious teachings. Therefore they have declared Buddhists as Buddhus. But now the word ‘Buddhu' is used for any wrong doer and foolishman.
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‘Srāvagi’ - Once Upādhyāya Amara Munijee was passing through South-Bihar, now Jhārakhand. He came to hear a sentence uttered by a shopkeeper to a street-dog moving near about his shop.
“Dūra hata śrāvagi'. Having heard this sentence he wondered how a Jaina word ‘śrāvagī', the changed form of the word 'Śrāyaka', was being used for a dog. The origin and meaning of 'Srāvagi' were not known to the shopkeeper. He was uttering that word simply because that was in use from the long past. But it may be inferred that the wrong meaning might have been given to 'Grāvagī' by the Vedic religious teachers in order to humiliate the Jainas. Saying of Brāhamaņa
Haribhadra, a Brāhmana scholar has said that the entrance in a Jaina temple is much more dangerous than being killed by a mad elephant. So
ne should never go to any Jaina temple. This is nothing but jealousy of the Vedic scholar against Jainism. Envy is the mother of violence. One can very easily assign that under evaluation of one religion by another religion is a sort of violence. Violation of Ascetic Code of Conduct
Violation of the ascetic code of conduct by monks and nuns directly or indirectly causes violence in the religious field which can be identified in the following forms - Attachment
Although, while accepting monkhood a person renounces all his worldly relations, now a days monks and nuns are found suffering from different types of attachment, such as -
a) Attachment with former family members - Even after being an ascetic, monks and nuns are found attached with their former family members. If possible they help them in various family affairs by providing them money or material. They help them in their business, service, marriage, academic achievements etc. They keep themselves always in contact with them through letters and telephones. They keep soft corners for them in their hearts.
b) Attachment to Dwelling place - Ascetics are seen very much attached to their Matha, Āśrama, Sthānaka etc. as an ordinary man is attached
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to his native place. They are found so related with the people living around their Matha or Aśrama that they (common people) consider them their own monks and nuns. Though monks and nuns should be of no place and of no person. Without considering the proper necessity of some religious or academic institution they try to establish them near about their own places with a view to achieving fame of their own names and places.
c) Parently Attachment - Monks and nuns are also found attached to their disciples as ordinary parents are seen attached to their sons and daughters. They feel pleasure or pain for their disciples as in worldly life parents enjoy pleasure and suffer pain different on issues. This sort of feeling creates jealousy among different monks and their disciples. Attraction towards worldly life -
· Saintliness is nothing but renunciation of worldly life. That is why after accepting monkhood man leaves aside all names, dynasties, dresses, dishes, degrees, decorums of worldly life. He remains neither son nor father, nor husband nor brother of anybody. He is recognized simply as a religious man. People respect him without considering his age and qualification. The householders bow their heads to him only because he is a saint or monk and not because he is B.A. or M.A. But these days young monks and nuns are fascinated towards academic degrees which are of no use for them. Instead of remembering Rāma, Krişna, Khudā, Mahāvira, Buddha, Christ and the like they remember the names of ordinary authors and their books expected to be asked in the examinations they are preparing to appear at. Saints should study only scriptures so that they may attain true knowledge presented theirin by former saints and seers, otherwise saintliness is pulled down by the efforts done for degrees and diplomas. When saintliness is relegated, it goes towards various forms of violence. Influence of cinema on religion
These days religion is being influenced by cinema. The followers of different religions sing parodies as prayers. The parodies consist of religious terms and cinema tunes. Even monks and nuns are composing parodies used as prayers. It is well understood that till a man is not well versed in cinema-songs he cannot compose a parody in cinema-tune. The cinema scene with which the particular song is concerned may come in
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the rememberance of the person who composes the parody as well as the person who presents it as prayer, if they have seen the particular movie. The remembrance of cinema-seen may cause deviation of the internal leaning from spiritual world to material world, from saintly life to householder's life. Deformation of Gocari
Gocari is a method for getting food in the ascetic life. A cow collects its food from different places by moving here and there. In the same way a monk should collect his food from different houses without pre-fixing any place. He should go only upto the outer-gate of the house and should stay their for a few minutes. If he does not get any food there, he should move to other doors. He should pleasantly accept the items of food prepared for the family members, not with a view to offering to some saint. But these days, places and persons are seen predetermined, from where and from whom food is to be collected. The ascetic goes directly to the kitchen of the householder from whom he has to have his meal. He chooses and takes delicious items prepared according to his choice knowingly by the householder. The householder thinks that he achieves religious values as much different delicious dishes he offers to the ascetic at his doors. Sometimes the householder goes to the dwelling place of the saint to inform that food is prepared and his family members are quite ready to welcome him. This way of Gocari makes the ascetic unable to control his taste which is against the saintly life. The unrestricted way of taking food may cause different types of violence in ascetic life as well as in common social life. Concealment of Crimes
Often many religious activities are preformed for the concealment of crimes and illegal deeds. A robber collects money by robbing others and constructs a temple to show that he is a good social man and is interested in religion. A smuggler earns a lot of money by smuggling and to conceal his unsocial activities he establishes an inn or a home for homeless so that people may respect him as a great social worker and a true well wisher of humanity. Some wealthy persons organize charitable trust in order to help the poor and the needy, by the power of his wealth
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collected by exploiting labours and weak persons. But these activities should not be considered as religious behaviour because these are based upon irreligious and illegal means and methods. They are externally religious, but internally irreligious i.e. violence. Sacrifice
Sacrifice (Baliprathā) of the Vedic tradition is known as a religious practice, in which some animal is killed as offering to Gods or Goddesses to please them. Therefore in the Vedic tradition it has been asserted -
“Vaidiki hiṁsā hissã na bhavati" That violence prescribed in the Vedas is not a violence. The theory of sacrifice has been established in the Vedas and has been classified as a religious activity and not as irreligious deed or violence. But Hemacandrācārya, a great Jaina thinker, in his work, Anyayogavyvacchedavātrinsikā, has vehemently criticised this theory." Though the theory of sacrifice has been mentioned in the Vedas it cannot be the cause of religion. Even after being introduced in the Vedas, violence cannot be treated as religion. A saying cannot be proved as exception to some reference different from it. Approval of sacrifice in the Vedas is just like a theory which accepts sitting on the throne after killing one's own son. According to the Vedic view, the person who performs sacrifice gets pleasure and prosperity and the animal which is killed as offering to God goes to heaven as a result of that religious performance. But the Jainacārya has raised here two questions.
i) Does the animal killed before Gods or Goddesses want to go to heaven at the cost of its own life? It is but natural that nobody wants to be killed. Even for the sake of enjoying heavenly pleasure nobody wants to finish the present life. So it is irreligious to kill an animal with a view to sending it to heaven.
ii) Suppose the animal slaughtered on the altar goes to heaven, why not the sacrificers kill their own near and dear ones as religious offering to Gods and Goddesses so that they will go to heaven? But they do not do so. It means that the idea of sending an animal to heaven by killing it on some altar is wrong.
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The Mîmānsā system of the Vedic tradition argues that ‘Na himsyāt sarvabhūtāni' is a general theory while "Vaidiki hissã himsā na bhavati" is an exception. Since, exception is considered as more powerful than the general rule or theory, Vaidikī himsā himsă na bhavati" should be accepted as a religious theory and it must be followed. But the Sāṁkhya system of Vedic tradition has refuted this theory. According to Sāmkhys Vedic yajña does not make the sacrificer (yajñakartā) worthy to be liberated, because it is not fully pure and religious.
Moreover, if “Na himisyāt sarvabhūtāni' is a general rule, its exception may be known as some particular being is to be killed. 'Vaidiki himsä hissä na bhavati' cannot occupy the place of its exception.
In this way the Jaina thinkers as well as the Sāṁkhya thinkers conclude that if killing of an animal is known as religious activity, what will be put in the class of irreligious actions? If by killing animal and sprinkling blood on earth one can go to heaven, what can be the way for going to hell.is Kurabāni
Kurabānī is a famous religious activity in Islam. Kurbānī means offering of one's own dearest thing to Khudā or Alláha . The story of Kurbāni runs like this -
para Imbrāhima established Makka the central place of Islām. When that establishment was completed, Khudā ordered Imbrāhima to offer his own dearest thing to him. Imbrāhima brought his camel, which was dear to him. to offer that to Allāha. But Khudā asked-whether the camel was the most dear thing to him? Next time Imbrāhima brought his sheep in order to offer that to Khudā. Again Khudā asked, whether the sheep was the most beloved thing to him? Then Imbrāhima made up his mind to offer his son to Khudā because he was his dearest issue. With this intention he brought his son to a hill where he disclosed the secret to his son that he had brought him there to sacrifice him to Khudā. After hearing the proposal and purpose of his father the son became very much happy. He advised his father to bind his hands and legs by a rope so that he could not run away in the love of his life and he also requested his father to fasten his own eyes by some cloth so that he (father) could not
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be deviated from his determination by seeing the killing of his son. Imbrahima very courageously and religiously did all according to his son's advice. But as soon as he raised his hands to kill his son, an angel of Khuda (Farista) arrived there and by catching his hands said not to do so, because Khuda was very much pleased, having known his intention. He advised him to offer a sheep only. Since that time offering an animal to Khuda has been in practice as Kurbānī in Islam. According to the rule prescribed for Kurbānī, the animal to be offered should be tamed with love and affection in the family of the person who wants to perform Kurbānī, so that all family members may feal attached with that animal. But generally people buy some goat or sheep from the market and offer that to Khuda at the time of Kubānī. In Christianity also Kurbānī was in practice but after the sacrifice Isamasïha made, the performance of sacrifice was considered to be completed and since then the Christians left the Kurbānī performance.
In the vedic tradition, according to the rules assigned for sacrifice, the animal which is slaughtered on the altar goes to heaven but there is nothing like this in Christianity and Islam. In these religions all beings, except human being, have been created with a view to being used by the human beings so they are used by them without thinking about their decay and development. The followers of Islam, for proving the religious and social value of Kurbānī, argue that the money earned by selling the skins of animals butchered on the eve of Kurbani, is given as charity to poor people.
Though, both Hinduism and Islam claim their Sacrifice and Kurbānī respectively as religious performances, a very simple question remains unsolved -
If killing some being is religious, what can be known as irreligious? So from the view point of Non-Violence, neither Sacrifice nor Kurbānī may be considered as religious activity.
Crusade
Crusade or Zehäda or Dharmayuddha is a very famous concept in the field of religion. It is a fight for spreading and developing own religion, and disturbing and destroying others' religion. History has
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witnessed a long-time crusade between Jews, Christians and Mohammedans. When crusade occurs many people of both sides are killed. Though crusade is known as a fight for the cause of religion, it is not in the favour of true religion. In the true sense, religion never accepts killing or destroying. A real religion is for the betterment of human society, not for its ruin. Crusade finishes the freedom of following a religion according to one's own will. It destroys the universality of religion. A religion may be considered good as long as it has universality. But crusade puts a religion in a small limitation. It is not only against religion but against humanity also. Crusade can never provide a harmonious and happy life to human beings. Conversion
Conversion consists of two parts -
(i) Leaving one's own religion and (ii) Accepting another religion. Due to different social, economic and political reasons a man leaves his own religion and accepts another religion. This conversion has two types.
i) Conversion by own will
ii) Conversion by force Many Hindus have converted themselves to Christians, because they are being helped by Christianity. They have accepted Christianity willingly. Contrary to it, Mugal emperor Aurangjeba forcibly converted Hindus to Islam. He demolished many temples, statues of Gods and Goddesses of Hindu religion. He also killed thousands of Hindus who stood against him. So the conversion by force is a very fearful form of violence in the field of religion, which must be prohibited.
So the negative forms of Non-Violence in religion may be constituted by the prohibitions of all above said violences in it.
The Positive form of Non-Violence in Religion In the positive form of Non-Violence there is nothing to be prohibited or negated but there are some ideas and activities to be affirmed and accepted. Kindness (Dayā) and Charity (Dāna) have been considered as the main positive forms of non-violence in religion.
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Kindness (Dayā)
The Hindi word ‘Dayā' has different synonyms as 'Anukampā' (Compassion), Karuņā (Mercy) etc. Ācāarya Hemacandra has defined Karuņā in the following words -
Dinesvārthesu bhītesu yacamānesu jivitam!
Pratikāraparā būddhiti kārunyabhedhiyate 11201116 . The feeling for saving a person from his trouble, who is either poor or suffering from pains or fearful or begging for the safety of his life, is Karunā. Karunā or Dayā has been divided into four kindsDravya Dayā, Bhāva Dayā, Sva Dayā and Para Dayā
1. Dravya Dayā - As it has been discussed in Acārangasūtra, Sūtrakstāngasūtra, Uttarādhyanasūtra etc., no being desires to suffer any sort of pain either mental or verbal or bodily. A wiseman, having treated all souls like his own soul, never troubles anybody, rather he always tries to save others from different sufferings of the world. This is Dravya Dayā. If somebody tortures some being for the sake of his ownself, his family or society, his nation, he pushes himself down from the path of Dravyadayā.
2. Bhāva Dayā - There are two types of happiness - (i) Material happiness (Paudgalika sukha) and (ii) Spiritual happiness or Happiness concerning soul (Ātmika sukha). The material happiness is momentary while the spiritual happiness is eternal. The developed being endures to have spiritual happiness, which is obtained through the enhancement of internal qualities of soul. Therefore to pave path for the betterment of spiritual qualities is Bhāvadayā. It has been said -
"Atmaguna aviradhanā bhāvadaya bhandāra” The Bhāvadayā is restored in the development of spiritual characteristics.
3. Sva Dayā (Kindness towards ownself) - To be kind to one's own self is Svadayā. Often a man indulges himself in different material and worldly activities which cause bondage and sufferings. But when he tries, by practising penance, to get himself free from worldly sufferings, he obtains liberation. In this way he becomes kind to his own self, because kindness is to help somebeing when he is in some trouble.
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4. Para Dayā (Kindness towards other beings) - To increase the percentage of pleasure and to decrease the percentage of pain of other beings are known as Paradayā. So a kind man always tries to save other beings from their sufferings and to provide them pleasures as much as he can. Dāna (Charity)
Dāna has been defined by Umāsvāti as “Anugrahārtha svasyāti sargo dānam Il”?!?
Charity (Anugraha) is to offer one's own thing to some person to help or to favour him. Pt. Sukhalālají has analysed the theory of charity established by Umāsvāti. In his opinion, dāna is the offer of that thing which has been earned justly. The offer must be proved beneficial to both the person who is offering and the person to whom the offer is made. The person who gives charity to some needy fellow is benefitted by being free from the attachment to the thing given and the man who gets charity is benefitted by the fulfillment of his needs. Parts and Characteristics of Charity -
There are four parts of charity, that present its four characteristics."
(i) Method of charity (Vidhi) - The method of charity introduces its methodical characteristic. When, with a view to justifying the space (Deśa), time (Kāla) and faith (Sraddhā), a thing is offered and it does not affect in any way the theory of the person who is receiving the charity, it is categorised as methodical characteristic.
(ii) Matter or object of charity (Vastu) - The matter or thing which is being given as charity must have the qualities which may give support and cause improvement of that person who is getting charity.
(iii) Generous Person (Dātā) - The generous person should have respect in his heart for the person to whom he is offering something. After giving charity neither he should have any gloom in his heart nor any desire for getting some gain or return.
(iv) Man who gets charity (Pātra) - The man who is considered suitable for taking charity must have right faith (Samyaka Darśana), right
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knowledge (Samyak Jñāna) and right conduct (Samyak caritra). He should be always vigilant for doing right works. Kinds of Charity -
There are ten types of charity''
1) Anukampādāna (Kindness - based charity) - The charity which is given with a view to favouring some poor and distressed is known as Anukampādāna.
2) Sangrahadāna (Emergency help-based charity) - The charity offered to somebody in order to get some help (as return) at the time of emergency is named as Sangrahadāna. The selfishness of the person giving charity lies in it. So it does not cause his liberation.
3) Bhayadāna (Fearfulness - based charity) - The charity given due to fear from king, minister, priest, giant (Rākṣasa) demon (Piśāca) etc. is known as Bhayadāna.
4) Kāruṇyadāna (Mercy - based charity)- The charity given after being merciful at the time of the death of some near and dear one is addressed as Kārunyadāna).
5) Lajjādāna (Shamefulness - based charity) - A man sitting in a meeting being participated by several persons of various status, gives charity to some needy person, in case of being requested by him, so that people do not consider him a miser. Because this sort of charity is given due to shamefulness, it is known as Lajjādāna.
6) Gauravadāna (Glory-based Charity) - The charity which is offered in order to attain name and fame, is known as Gauravadāha.
7) Adharmadāna (Irreligiousness - based charity) - The charity given to those persons who are busy in violence, false-speaking, stealing etc. is known as Adharmadāna. This type of charity favours irreligiousness, not religiousness, and indirectly promotes violence.
8) Dharmadāna (Religiousness - based charity) · The charity offered for the cause of religion is known as Dharmdāna. This type of charity is given particularly to those saints and seers for whom gold and ashes have the same value.
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9) Karisytidāna (Return-based charity) - When a person gives charity to somebody, with a hope that he will return something as help or favour in future, that is called karisyatidāna.
10) Kệtadāna (Past favour - based charity) - The charity given as a return of the favour done in the past is treated as Kộtadana.
Some thinkers have put charity into four other classes -
1) Jñānadāna, 2) Abhayadāna, 3) Dharmopakaraṇadāna and 4) Anukampādāna
1) Jñānadāna (Knowledge-based charity) - To offer knowledge to other persons is known as Jñānadāna. This type of charity consists of teaching and helping those who are curious to achieve knowledge.
2) Abhayadāna (Fearlfulness - based charity) - To save those persons who are fearful is considered as Abhyadāna. Abhayadāna is treated as the greatest one among all charities. 20
3) Dharmopakaraṇadāna (Austerities - based charity) - Dharmopakaraṇadāna is that in which charity is given to those persons who follow the five great austerities (Panca Mahāvratas) very sincerely,
4) Anukampādāna - It has been elaborately discussed ahead in this article.
Charity is one of the four kinds of religion - a) Dāna (Charity),.b) Śila (Amiableness), Tapa (Penance) and Bhāvanā (Meditation).
Charity is also one of the following virtues (Punyas)
1. Annapunya - The virtue or punya which is caused by giving corn to somebody.
2. Pānapunya - Pānapunya is that which is attained by offering milk like drinks to somebody.
3. Vastrapunya - The virtue obtained by giving clothings to some needy person is known as Vastrapunya.
4. Layanapunya - The religiousness achieved by giving residential place to some poor person is Layanapunya.
5. Sayanapunya - Offering of bed to some person for sleeping is Sayanapunya.
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ONY
6. Manahpunya - The cheerfulness enjoyed by seeing gentlemen and religious persons.
7. Vacanapunya - The admiration of meritorious fellows is known as Vacanapunya.
8. Kāyapunya - The virtue attained by being at the service of other persons is considered as Kāyapunya.
9. Namaskārapunya - Salutation based virtue is known as Namaskārapunya.
Among the above mentioned nine kinds of virtue, the first five are also known as the kinds of charity.21 Result of Charity -
Ordinarily it is known that charity results into virtue. But in the Jaina religion, different alternatives concerning results of charity have been presented. There is an interesting discussion between Lord Mahāvīra and Gautama Swami in the Bhagawatisūtra. As Lord Mahāvira has instructed Gautama Swāmī, there are three types of result of charity.
1. When a householder offers prescribed seat (āsana) to take place, pure and unadulterated drinks and food to some ascetic (Śramana), the results of his different deeds (karmas) come to their complete end (karmakşaya) and he suffers no sins.
2. The house holder who gives unpreseribed seat, impure and adulterated drinks and foods to some saint, the result of his deeds (Karmas) are removed in large quality and he suffers too less sins.
3. In the case of offering pure or impure drinks and food to some unrestrained person, liberal man (Dāni) suffers his sins fully, and the result of his various deeds never perish.
Anukampādāna Lord Mahāvira has not negated Anukampādāna, though he has not discussed it very clearly.
In the Terāpantha, Anukampādāna has been declared as unprescribed and irreligious charity (Asanyati Dāna) because it causes sin. Jayācārya has advocated this theory in the Dānādhikarana of Bhramavidhvansanam, which has been refuted by Jawahirlalji in Sarvadharmamandanam in the following way -
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1. Adoption of Religious Vows by Gāthāpati Ananda - There is a statement by Gāthāpati Ananda, while he adopts 5 Anuvratas and 7 Śiksāvratas, in the 1s Adhyayana of Upāsakadaśāngasūtra. In his acceptance of different virtues he asserts that he will offer prescribed and pure seats, drinks, food etc. to śramana - Nirgranthas i.e. Jaina ascetics. As Jayācārya has interpreted this statement, Ananda has refused to give any charity to poor and needy, because he has mentioned only Nirgranthas in his statement. But Jawāhiralalji in Saddharmamandanam, while refuting Jayācārya's view, says that Ananda has refused only to give charity to those who follow the religion which is not established by the omniscient and also who is not wise. He has not negated to give charity to poor persons on the basis of kindness. So charity must be given to the poor and the sufferers.
2. Lord Mahāvira - Gautama Swami - Discussion - According to Jayācārya, charity should not be given to those who are religiously not worthy to take that (Asanyati). If done, it results into sin. He, in order to strengthen his opinion, presents the Mahāvīra - Gautama discussion found in the Bhagawatisūtra. Mahāvīra, while answering Gautama's question concerning charity, assigns that charity should not be given to Asanyati, because it causes sin not Nirjarā (End of karma). But Jawahirlalji with a view to refuting Jayacāryaś theory says that though theoretically (on the basis of Gurubuddhi)giving charity to Asanyati has been prohibited, offering charity to the poor people as a result of kindness has not been negated.
3. Adoption of religious vows by Rājāpradeśi - In Rājāpraśniya there is a statement of Rājāpradeśīs adoption of religious vows. Rājāpradeśī like Gāthāpati Ananda adopts 12 religious vows and he also makes up his mind to give charity to poor and needy people. He conveys his proposal to Keśīkumara who keeps silence. Here Jayācārya, with a view to supporting his own theory, has interpreted the silence maintained by Keśikumara as the negation of giving charity to poor persons. But Jawāhirlālji says that in the case of giving charity to poor being the cause of sin, Keśikumara shuld have prohibited Rājāpradeśī from offering charity to sufferers. But he has not done so, that's why giving charity to needy persons should not be considered as the cause of sin.
4. Muni Ārdrakumāra and Karmakāndi Brāhmaṇa - In the Sūtrakịtănga there is a talk between Muni Ardrakumāra and a Brāhmaṇa.
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The Brāhmaṇa requests Muni Ārdrakumara to follow the Vedic - religion. He says that as a result of feeding two thousand Brāhmaṇas who practise their six duties studying, teaching etc. one achieves virtue (punya) and goes to heaven. But Ardrakumāra refutes his idea and says that what to talk of two thousand Brāhamaņas, feeding even one Brāhamana who takes meat causes suffering in too torturous hell. Here Jayācārya says that Ardrakumāra has not accepted the Brāhmaṇa's idea because it is against religious conduct to feed Asanyati. But Jawahiralälaji while refuting Jayācāryā's interpretation of Ārdrakumärás saying asserts that Ardrakumara has prohibited the giving of charity to the Brāhmaṇas who praise the violence based religion and condemn the non-violence based religion, not the charity given due to kindness (Anukampādāna)
In this way, it may be concluded that the act of giving charity to poor and needy fellows, on the basis of kindness (Anukampādāna) is virtuous and worthy to be practised. Dāna according to Gaņādhipati Tulasi
Ganādhipati Tulasi a Jaina saint and philosopher of world fame and the 9th ācarya of Terāpantha sect has expressed his valuable views concerning charity in the following way -
a) To provide bread and water to somebody is not a charity but a social co-operation. A true charity is to make that man wise who is not wise.22
b) To feel pride as a result of offering unnecessary and rotten things to somebody is to lower the justification of charity.23
c) To offer money as charity to somebody, in order to be free from the sin resulted the earning of wealth through unjustified and improper means, is nothing but the mockery of charity.24
d) The purity of all three - liberal person, things to be given as charity and the person who takes charity - causes the achievement of benefit of true charity.25
e) The person who has abandoned willingly all things is worthy to take charity.26
Preaching and Teaching of Religious Ideas Religion and Non-violence are in very close contact with each other as we have seen in the beginning. Actually, without non-violence there
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cannot be any true religion which may provide harmony and happiness to human life. So the religious ideas supporting non-violence must be preached by the saints and prophets of all religions. In the schools and colleges the curriculum of non-violence should be run with other courses going on in different universities. There is only one university named Jaina Viśva Bhārati Institute, Lādanu (Rajasthan), in which MA course in Non-Violence is being taught. But it is not sufficient. According to Ācārya Mahāprajña, these days non-violence has become irrelevant, because practically no society or nation is active for developing non-violence. Except Jaina Viśva Bhārati Ladanu neither there is any training centre nor any teaching institute for non-violence in the whole world. On the other hand, in almost all countries of the world there are several training centres and schools for teaching violence. Terrorism is spread all over the world. No country may be exception which is free from terrorism. Terrorists are trying to prove the relevance of violence. As they are showing, creating terror and torturing people is their motives, their way of life. As such, we are going back to the primitive age when the theory of “might is right" was prevailing in human life. But this way of thinking will finish the present culture and civilization which have been developed since long back. Therefore, all religious institutions should promote the teaching of not only non-violence but also other religious and ethical theories supporting non-violence. Non-Violence is supported by truth (Satya), nonstealing (Asteya), celibacy (Brahmacarya) and non-hoarding (Aparigraha).
Truth presents a thing as it is, which helps a man to know the reality. After knowing the real situation of a thing the man concerned becomes ready to face that. But due to false statement a person is befooled and cheated which may place him in some painful position. So truth helps a man in bringing pleasure and peace in life, i.e. non-violence.
Non-stealing makes a man earn his livelihood honestly, otherwise stealing creates sorrow in the life of the person and brings weakness in the life of the person who steals. So non-steeling is proper and pleasant for both the man suffering due to theft and the man who steals.
Celibacy provides a proper and pious lite to human being. In the absence of celibacy, life becomes uncontrolled which results into irreligious and immoral life. The irreligious and immoral elements of life may cause any type of violence. So celibacy should be practised.
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Non-hoarding saves a man from exploitation which is a kind of violence. A man should have only those things which fulfill his necessities. But generally people try to store various commodities of comfort and luxury not for his ownself but for his sons and grand sons for which they exploit other persons. So non-hoarding is a way to follow the path of non-violence.
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All these ideas should be taught to the public so that the concept of non-violence may be advanced and it may flourish in the world.
*References:
1. Ahimisä sakalodharmo himisādharmastathāhitah 1201 Mahābhārata, Santiparva, ch. 272.
Nabhūtānāmahimisaya jyāyān dharmosti kathancana ch 262, Santiparva.
4.
5.
6. Dhṛtih kṣamā damosteyaṁ sauca mindriyanigraha | Dhi vidya satyamkrodho dasakam dharma lakṣaṇam || 7. Dharmenaivaṛṣayastirnā dharmā lokāha pratisthiṭāh Dharmeņa deva vavṛdhurdharme cärthah samāhitah ||7|| Mahābhārata, Śantiparva, chapter- 167.
113011
2. Dhammamahinisäsam nathi - Bhaktaparijñā - 91.
3. Ahimisa saba dharmon ka sattva hai, sāra hai, makkhana hai | 3134 EkaBunda Eka Sagara, Vol. I, p. 265.
Value and Destiny of the Individual, Boasanquet, p. 25. Dhammo have hato hanti - 8/422/45 Jātaka.
8. The Philosphy of Religion, G. Galloway, p. 184.
9. Jñana, darśana, ānanda aura śkti ke sāthā jo ekarasta hai, vaha dharma hail Eka bunda eka sāgara vol. 2, p. 722.
10. Dharma kā kāma kisīkā mata badalana nahin, kintu mana jīvana aura hṛdaya badalana hai Eka Bunda Eka Sāgara, Vol. 2, p. 722.
11. "Pramatt yogāt prāṇa vyaparopaṇam himsā”.
12. Savve pāṇā, savve bhūyā, savve jīvā, savve sattā, na hantavvā, na ajjjaveyavvā, na paridhitavvā, na pariyaveyavva, na uddaveyavvā, esa dhamume suddha |
Acarangasūtra - Atmārāmajee, Prathama śrutaskandha, caturtha adhyayan, Uddeśaka - 1, page - 370
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13. Śrimadbhagavadgītā, chapter - 3, śloka - 35 14. Na dharmahetur vihitāpi himsā notsrsta manyārthamapodyate call
Svaputraghätād nộpatitvalipsā sabrahmcāri sfuritam paresāml|11||| 15. Yupam cchitvā pasūn hatvā krtvā rudhirakardmam
Ydyevam gamyate svarge naraka kena gamyate ||
Syadvādamāngari, Mallisena p. 92 16. Yogasūtra, Caturtha Prakāśa 17. Tattvarthasūtra, 7, 33 18. Vidhidrayadātspātra visesanãttadvisesah 113411
Tattvārthasūtra, chapter - 7 19. Dasavihe dāna - Anukampā - 1. Sangahe, 2. Cevabhye, 3. Kālunitetiya,
4. Lijjate, 5. Gärvenamca, 6. Ahamme una sattame, 7. Dhammeta atthame vutte, 8. Kāhītita 9. Kātantita 1011
Sthānārgasūtra, ch. 10, Udde - 3, Sūtra 745 20. Sutrakstanga, Ist Srutaskandha, ch. - 6, Gāthā - 23 21. Sthānangasütra, part - 5, Sthāna - 9, Sūtra - 17 22. Kisiko roti khilānā, pānīpilānā dāna nahin, sāmājīka sahayoga hai
Saccā dāna hai kisi ajñani ko jñanī banā denā. Eka Bunda Eka Sāgara,
Vol. - 2, p. 684 23. Sarīgali aura anāvaśyaka vastuon kā dāna dekara svayam ko kṛtārtha
samajhanā dāna ke aucitya ko kama karnă hai ! 24. Anyāya aura burāion se paise kamākara usa pāpä se mukti pāne ke
liye dāna cāhata hai | Eha dāna ki vidambanā hai / Ibid 25. Dātă, deya, aura pātra tinon viếudha hone se hi pavitra dāna kā lābha
milatā hai l Ibid. 26. Dāna kā adhikāri vaha hotā hai jisane svecchā se saba kucha tyāga
diyā hai | Ibid 685.
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विद्यापीठ के प्रांगण में
श्वे० तेरापंथ सम्प्रदाय की साध्वी जतनकुमारी जी (कनिष्ठा) ठाणा ५ का ६ जुलाई को विद्यापीठ में शुभागमन हुआ। अपने २४ घंटे के अल्प प्रवास में उन्होंने संस्थान परिसर स्थित भवनों, यहां के समृद्ध पुस्तकालय, संग्रहालय आदि का अवलोकन किया। इस अवसर पर उन्हें संस्थान में चल रहे शैक्षणिक एवं शोध सम्बन्धी परियोजनाओं की विस्तृत जानकारी दी गयी।
विद्यापीठ में अध्ययनार्थ विराजित खरतरगच्छीय मुनि महेन्द्रसागर जी एवं मुनि मनीषसागर जी म० सा० का अध्ययन सुचारु रूप से चल रहा है।
. ७ सितम्बर को श्वे० तेरापंथी सम्प्रदाय की समणी मुदितप्रज्ञा जी ठाणा - ४ का संस्थान में आगमन हआ। अपने संक्षिप्त प्रवास में उन्होंने यहां हो रहे शोध कार्यों की जानकारी प्राप्त की।
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मान्यवर,
क्षमा, भ्रातृत्व और करुणा के महान् पर्व संवत्सरी के पावन अवसर पर हम विगत वर्षों में हुई अपनी समस्त भूलों एवं मन, वचन एवं काय से जाने-अनजाने हुए अपराधों के लिये आप सभी से हृदय से क्षमायाचना करते हैं।
क्षमाभिलाषी प्रो० सागरमल जैन इन्द्रभूति घरड़ प्रो० महेश्वरी प्रसाद मंत्री सह मंत्री
निदेशक एवं समस्त पार्श्वनाथ विद्यापीठ परिवार
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जैन जगत्
डॉ० लालचन्द जी की जैन चेयर पर नियुक्ति भुवनेश्वर ५ अगस्त : उत्कल युनिवर्सिटी द्वारा प्रवर्तित जैन चेयर पर प्रोफेसर के रूप में सुप्रसिद्ध विद्वान् डॉ० लालचन्द जैन को नियुक्त किया गया है। डॉ० जैन पार्श्वनाथ विद्यापीठ के पूर्व छात्र रहे हैं और यहीं से उन्होंने पीएच०डी० की उपाधि भी प्राप्त की है। ज्ञातव्य है कि डॉ० जैन अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली के निदेशक पद से पिछले मई माह में ही सेवानिवृत्त हुए हैं। उनकी इस गौरवपूर्ण उपलब्धि के लिये विद्यापीठ की ओर से हार्दिक बधाई।
नर्सिंग स्कूल के भवन निर्माण हेतु भूमिपूजन सम्पन्न
कोलकाता २३ अगस्त : भीखमचंद भंसाली नर्सिंग स्कूल के भवन निर्माण हेतु २३ अगस्त को दोपहर ३ बजे श्री जैन हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेन्टर, हावड़ा परिसर में भूमिपूजन का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। अमेरिका के प्रवासी श्री राज भंसाली ने अपने पूज्य पिता की स्मृति में उक्त नर्सिंग स्कूल की स्थापना हेतु ११ लाख रुपये का अनुदान दिया है। पूर्व में भी श्री भंसाली ने पूर्वोक्त चिकित्सालय में अपनी माता की स्मृति में एक वार्ड का निर्माण कराया है।
पर्युषण पर्व सम्पन्न जम्मू ३१ अगस्त : स्थानीय श्रीमहावीर जैन हायर सेकेन्डरी स्कूल के प्रांगण में-आठ दिवसीय पर्युषण का महान् पर्व संवत्सरी दान, शील, तप एवं धार्मिक श्रद्धा के साथ सम्पन्न हुआ। श्री एस०एस० जैन सभा, जम्मू द्वारा इस भव्य समारोह का आयोजन किया गया जिसमें बड़ी संख्या में स्थानीय श्रावकों ने भाग लिया। इस अवसर . पर भजन तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम भी प्रस्तुत किये गये।
मणिधारी जिनचन्द्रसूरि की जयन्ती सम्पन्न नई दिल्ली २ सितम्बर : प्रकट प्रभावी मणिधारी जिनचन्द्रसूरि जी (द्वितीय दादा गुरु) की ८६३वी जयन्ती के पावन अवसर पर बड़ी दादावाड़ी, मेहरौली में दो दिवसीय (२-३ सितम्बर) मेले का आयोजन किया गया। इस समारोह में केन्द्रीय मानवसंसाधन मंत्री डॉ० मुरली मनोहर जोशी, मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री श्री सुन्दर लाल पटवा तथा बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं ने भाग लिया।
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रथयात्रा महोत्सव सम्पन्न ___ अंबाला ५ सितम्बर : श्रीश्वेताम्बर मूर्तिपूजक संघ, अंबाला के तत्त्वावधान और तपागच्छाधिपति आचार्य श्रीमद् विजयरत्नाकरसूरि जी म० सा० की पावन निश्रा में दिनांक ५ सितम्बर को आयोजित भव्य रथयात्रा महोत्सव का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। इसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालजनों ने भाग लिया। इस शोभायात्रा में स्थानीय विभिन्न विद्यालयों द्वारा निकाली गयी चित्ताकर्षक झांकियां आकर्षण का केन्द्र रहीं।
डॉ० निर्मल कुमार जिनदास फड़कुले सम्मानित दिल्ली ७ सितम्बर : मराठी जैन साहित्य के मर्मज्ञ, यशस्वी लेखक डॉ० निर्मल कुमार जिनदास फड़कुले को ओमकोठारी फाउण्डेशन द्वारा स्थापित तथा त्रिलोक उच्चस्तरीय अध्ययन एवं अनुसंधान संस्थान, कोटा (राज.) द्वारा प्रवर्तित चारित्रचक्रवर्ती पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कार समर्पण समारोह ७ सितम्बर को कुन्दकुन्द सभा मंडप, ऋषभदेव पार्क, लाल किला के सामने आचार्य विद्यानन्द जी महाराज के पावन सानिध्य में आयोजित किया गया था। पुरस्कार के रूप में श्रीफड़कुले को एक लाख रुपये की राशि, प्रशस्तिपत्र एवं स्वर्णपदक प्रदान किया गया।
अर्हत्वचन पुरस्कार समर्पण समारोह सम्पन्न इन्दौर २१ सितम्बर : कुन्दकुन्द ज्ञानपीठ, इन्दौर द्वारा प्रवर्तित अर्हत् वचन पुरस्कार समर्पण समारोह २१ सितम्बर को सम्पन्न हुआ जिसमें श्री राजमल जैन, डॉ० एस०ए० भुवनेन्द्रकुमार तथा श्रीमती प्रगति जैन को सम्मानित किया गया। इस अवसर पर विद्वत्गोष्ठी में शीर्षस्थ विद्वानों के व्याख्यान भी हुए। सभी कार्यक्रमों का संचालन डॉ० अनुपम जैन ने किया।
सम्बोधि ध्यान शिविर सम्पन्न जयपुर २२ सितम्बर : सुप्रसिद्ध चिंतक, युवामुनि श्री चन्द्रप्रभसागर के सान्निध्य में मोती डूंगरी, जयपुर स्थित दादावाड़ी में सात दिवसीय सम्बोधि ध्यान शिविर का आयोजन किया गया जो १५ सितम्बर से प्रारम्भ होकर २१ सितम्बर तक चला। इस शिविर में पर्याप्त संख्या में श्रावक-श्राविकाओं ने भाग लिया।
शोक समाचार आचार्यकलाप्रभसूरि जी म०सा० की शिष्या साध्वी जयकीर्ति जी का १० सितम्बर को अहमदाबाद में निधन हो गया। श्री अ०भा० साधुमार्गी जैन संघ के मुखपत्र श्रमणोपासक के संपादक श्री चम्पालाल डागा की पत्नी श्रीमती सुन्दर देवी डागा का ११ सितम्बर को ६० वर्ष की आयु में चेन्नई में निधन हो गया। २२ सितम्बर
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को राजस्थान के नवनियुक्त राज्यपाल माननीय निर्मलचन्दजी जैन का निधन हो गया। २६ सितम्बर को भोगीलाल लहेरचन्द इन्स्टीट्यूट ऑफ इण्डोलॉजी, दिल्ली के संस्थापक, प्रसिद्ध उद्योगपति श्री प्रताप भाई भोगीलाल की धर्मपत्नी श्रीमती भगवती देवी का निधन हो गया। विद्यापीठ की ओर से उक्त स्वर्गस्थ आत्माओं को भावभीनी श्रद्धांजलि।
भेंट में मंगवायें परमपूज्य आचार्य श्री विजय जयन्तसेनसूरि जी म०सा० की दीक्षा पर्याय के ५०वें वर्ष में प्रवेश के उपलक्ष्य में उनके द्वारा लिखित “मिला प्रकाश : खिला बसन्त" नामक ग्रन्थ स्वाध्यायियों, पुस्तकालयों, साधु-साध्वीवृन्द आदि को खिमावत चैरिटेबल ट्रस्ट, राणी/मुम्बई द्वारा भेंट में दी जा रही है। यह ग्रन्थ हिन्दी भाषा में है। जो ज्ञान मंदिर/पुस्तकालय यह ग्रन्थ मंगाना चाहते हों वे अपनी संस्था का संक्षिप्त विवरण भी भेजें। पुस्तक प्राप्ति का पता -
मुनि चारित्ररत्नविजय, यतीन्द्र भवन धर्मशाला, तलहटी रोड, पालीताणा (गुजरात) ३६४२७०
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साहित्य सत्कार
जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन : साध्वी नगीना ; प्रकाशक जैन विश्वभारती प्रकाशन, लाडनूं, प्रथम संस्करण - २००२ ई०, पृष्ठ २१०, आकारडिमाई, मूल्य ८५/- रुपये।
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आत्मा,
साध्वी नगीना कृत 'जैन दर्शन का समीक्षात्मक अनुशीलन' अब तक जैन दर्शन पर लिखी गयी पुस्तकों से सर्वथा अलग एक नवीनता लिए हुए है। साध्वी जी ने इस पुस्तक में जैन दर्शन के चिरपरिचित सामान्य विषयों का समावेश न करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण और समकालीन दार्शनिक महत्त्व के विषयों यथा कर्मवाद, पुनर्जन्म, मोक्ष की बोधगम्य व्याख्या के साथ-साथ विकासवाद एवं पाश्चात्य दर्शन के साथ उनके समन्वय को भी रेखांकित किया है। लेखिका की यह विशेषता है कि उन्होंने जिन दार्शनिक विषयों की व्याख्या की है, उन्हें षड्दर्शन के आलोक में समालोचित भी किया है जिसमें दुराग्रह अथवा 'सयं सयं पसं सता गरहंता परम वयम्' का लेशमात्र भी समावेश नहीं है। जैन दर्शन के साथ पाश्चात्य दर्शन के प्रमुख विषयों की समन्वयात्मक व्याख्या साध्वी श्री का एक अभिनव प्रयोग है जो सर्वथा प्रशंसनीय है। कर्मवाद को वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हुए लेखिका ने उसे क्लोनिंग तथा क्वांटम यांत्रिकी जैसे सद्य: नवीन विषयों के परिप्रेक्ष्य में भी व्याख्यायित करने का सफल प्रयास किया है। यथास्थान वर्ण्य विषयों के समर्थन में चित्रों का विनियोग पुस्तक को पूर्णता प्रदान करता है। भाषा प्राञ्जल और सुबोधगम्य है। यह पुस्तक निश्चय ही जैन दर्शन के अध्येताओं के लिए सर्वथा उपयोगी और साधना मार्ग के पथिकों के लिए उपादेय सिद्ध होगी ।
डॉ० श्रीप्रकाश पाण्डेय
तीर्थंकर पार्श्वनाथ ( ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में) : संपा० डॉ० अशोक कुमार जैन, डॉ० जयकुमार जैन एवं डॉ० सुरेशचन्द्र जैन, प्रका० प्राच्य श्रमण भारती, १२ / ४, प्रेमपुरी, निकट जैन मंदिर, मुजफ्फरनगर उत्तर प्रदेश; प्रथम संस्करण - वर्ष १९९९ ई०, आकार - डिमाई, पक्की जिल्द बाइंडिंग, पृष्ठ २६+६+३५३; मूल्य १२५/- मात्र ।
प्रस्तुत ग्रन्थ तीर्थंकर पार्श्वनाथ ( ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में) नामक विषय पर वर्ष १९९७ में आयोजित अखिल भारतीय संगोष्ठी में पढ़े गये शोधनिबन्धों के संकलन का मुद्रित रूप है। उपाध्याय श्री ज्ञानसागर जी म०सा० के
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पावन सान्निध्य में श्री जम्बूस्वामी दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र, मथुरा में यह संगोष्ठी १९१०-९७ से २१-१०-९७ तक आयोजित की गयी थी। इसका आयोजन श्री गणेशवर्णी शोध संस्थान, वाराणसी द्वारा किया गया था। इस संगोष्ठी के ७ सत्रों में कुल ३७ निबन्धों का वाचन हुआ। संगोष्ठी में पठित प्राय: सभी आलेख अपनेअपने विषय/क्षेत्र में लम्बे समय से कार्य कर रहे वरिष्ठ विद्वानों के हैं। अपने लेखों में उन्होंने अनेक नई बातों का उल्लेख किया है। ये निबन्ध भगवान् पार्श्वनाथ से सम्बद्ध इतिहास, साहित्य, स्थापत्य-शिल्प एवं कथानकों पर आधारित हैं और इन क्षेत्रों में कार्य करने वाले अन्वेषकों के लिये निश्चित् ही एक सफल मार्गदर्शक की भूमिका निभाने में समर्थ हैं। आशा है इस महत्त्वपूर्ण संगोष्ठी में पढ़े गये निबन्धों से प्रेरणा लेकर नये शोधार्थी इस कार्य को आगे बढ़ायेंगे।
__ संगोष्ठी में पढ़े गये शोध आलेखों को शुद्धरूप में सुन्दर ढंग से प्रकाशित कर प्राच्य श्रमण भारती ने अत्यन्त सराहनीय कार्य किया है। इसका मूल्य १२५/- रुपये रखना प्रकाशक की उदारता का परिचायक है। यह पुस्तक प्रत्येक पुस्तकालयों के लिये संग्रहणीय और जैन धर्म-दर्शन - साहित्य-कला-इतिहास - किसी भी क्षेत्र में कार्य करने वाले शोधार्थियों के लिये अनिवार्य रूप से पठनीय और मननीय है।
दशवकालिक सूत्र - तिलकाचार्य द्वारा रचित वृत्ति सहितः संशोधक - आचार्य विजय सोमचन्द्रसूरि : प्रकाशक - श्री रांदेर रोड जैन संघ, श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथ जैन देरासर पेढ़ी, अडाजणा पाटीया, रांदेर रोड, सुरत ३९५००९; प्रथम संस्करण वि०सं० २०५८; आकार - डिमाई, पृष्ठ ४८+५०२; पक्की जिल्द; मूल्य १५०/- रुपये मात्र।
जैन आगमों में तीसरा मूलसूत्र है दशवैकालिक, जिसकी रचना आचार्य शय्यंभवसूरि द्वारा की गयी है। आगमों पर प्रारम्भ में प्राकृत भाषा में टीकायें रची गयीं जो नियुक्ति, भाष्य एवं चूर्णियों के नाम से प्रसिद्ध हुईं। बाद के काल में संस्कृत भाषा के बढ़ते हुए प्रभाव के कारण संस्कृत भाषाओं में भी विभिन्न जैन मुनिजनों ने टीकाओं की रचना की। इनमें प्राचीन निर्यक्तियों, भाष्यों एवं चूर्णियों की सामग्री का उपयोग करने के साथ-साथ टीकाकारों ने विभिन्न हेतुओं एवं तर्कों द्वारा भी इस सामग्री को परिपुष्ट किया।
दशवकालिक सूत्र पर भी प्राकृत भाषा में नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि एवं संस्कृत भाषा में टीकाओं की रचना की गयी। प्रस्तुत पुस्तक दशवैकालिक सूत्र मूल और उस पर तिलकाचार्य द्वारा संस्कृत भाषा में रची गयी वृत्ति का मुद्रित रूप है।
तिलकाचार्य जैन धर्म के श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अन्तर्गत पूर्णिमागच्छ से सम्बद्ध थे। इनके गुरु का नाम शिवप्रभसूरि था जो पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के प्रपौत्र शिष्य थे। कृति की प्रशस्ति में रचनाकार ने अपनी गुरु-परम्परा दी है, जो इस प्रकार है -
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चन्द्रप्रभसूरि (पूर्णिमागच्छ के प्रवर्तक) धर्मघोषसूरि चक्रेश्वरसूरि शिवप्रभसूरि तिलकाचार्य (वि०सं० १२६१/ई० सन् १२०५ में दशवैकालिकसूत्रवृत्ति
के रचनाकार) यह वृत्ति अभी तक अप्रकाशित थी। तपागच्छीय विजयसंविग्न परम्परा के विद्वान् मुनि आचार्य विजयसोमचन्द्रसूरि ने मुनि निर्मलचन्द्रगणि एवं मुनि जिनेशविजयजी के सहयोग से जैसलमेर, पाटण, खंभात, अहमदाबाद, सुरत आदि नगरों के ग्रन्थ भंडारों से प्राप्त १२ हस्तप्रतियों के आधार पर प्रामाणिक रूप से इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का संशोधन एवं संपादन तथा श्री रांदेर रोड जैन संघ ने इसका प्रकाशन कर विद्वत् जगत् का महान उपकार किया है। उत्तम कागज पर मुद्रित इस पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक एवं मुद्रण सुस्पष्ट है। यह उपयोगी ग्रन्थ प्राच्य विद्या के प्रत्येक पुस्तकालयों एवं विद्वानों के लिये अनिवार्य रूप से संग्रणीय है। ऐसे उपयोगी ग्रन्थ के सम्पादक एवं इसे अल्प मूल्य में उपलब्ध कराने में अर्थ सहयोगी सेठ डोसाभाई अभेचँद पेढी, भावनगर के ट्रस्टीगण सभी बधाई के पात्र हैं।
जालोर एवं स्वर्णगिरिदुर्ग कासांस्कृतिक इतिहास : लेखक - डॉ० सोहनलाल पटनी; प्रकाशक - श्री चैतन्यकुमार जी काश्यप, अध्यक्ष - श्री स्वर्णगिरि जैन श्वेताम्बर तीर्थ पेढी, कंचनगिरि विहार, जालोर; प्रथम संस्करण - २००२ ई०; आकार - रायल अठपेजी; पृष्ठ १२+१२४; पक्की बाइंडिग; मूल्य - २५०/- रुपये मात्र।
मुस्लिम आक्रमण से पूर्व स्वर्णगिरि जालोर पश्चिम भारत का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण राजनैतिक एवं व्यापारिक केन्द्र रहा है। यहां का दुर्ग अजेय समझा जाता था और इसी कारण यह बार-बार मुस्लिम आक्रमणकारियों के कोप का शिकार भी होता रहा। धीरेधीरे इसका महत्त्व घटने लगा। जिस स्वर्णगिरि पर पहले कोट्याधीशों के ही भवन निर्मित हो सकते थे वही स्थान उजाड़ होने लगा और स्थिति यहां तक आ गयी कि यहां स्थित जिनालय हथियारों के गोदाम के रूप में प्रयुक्त होने लगे। त्रिस्तुतिक आचार्य विजय राजेन्द्रसूरिजी के सद्प्रयासों से बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में यहां जिनालयों में पुन: पूजा-अर्चना प्रारम्भ हुई। उनकी परम्परा के सुयोग्य आचार्यों ने समय-समय पर यहां के प्राचीन जिनालयों का न केवल जीर्णोद्धार कराया बल्कि विभिन्न नूतन जिनालयों का निर्माण करा कर इस प्राचीन तीर्थ के गौरव को पुनर्जीवित करने का जो सफल प्रयास किया, वह स्तुत्य है।
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जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट है प्रस्तुत पुस्तक में विद्वान् लेखक ने जालोर एवं स्वर्णगिरि दुर्ग के सांस्कृतिक इतिहास को सारगर्भित रूप में प्रस्तुत किया है। इसमें कुल १६ अध्याय हैं । प्रथम अध्याय के ११ पृष्ठों में जालौर के राजनैतिक इतिहास का संक्षिप्त परिचय है। द्वितीय अध्याय में इस क्षेत्र की भौगोलिक संरचना और तृतीय अध्याय में स्वर्णगिरि दुर्ग एवं वहां के जिनालयों का विवरण है। चौथे और पांचवें अध्याय में इस क्षेत्र में जैन धर्म के प्रसार तथा यहां से सम्बद्ध विभिन्न जैन मुनिजनों एवं उनके द्वारा रचित साहित्य का विवेचन है। छठे अध्याय के अन्तर्गत कान्हणदेप्रबन्ध में वर्णित जालौर नगर की चर्चा है। सातवें अध्याय में तपागच्छीय आचार्य विजयदेवसूरि द्वारा यहां प्रतिष्ठापित जिनप्रतिमाओं का विवरण है। आठवें एवं नवें अध्यायों में भगवान् महावीर से लेकर बृहद्सौधर्म तपागच्छ के वर्तमान गच्छनायक तक का संक्षिप्त परिचय है। दसवें अध्याय में मुगलकाल में हुए जयमल जी मुणोत द्वारा स्वर्णगिरि स्थित जिनालयों पर कराये गये जीर्णोद्धार कार्य की चर्चा है। ग्यारहवें एवं बारहवें अध्याय में जालौर स्थित जिनालयों एवं मध्यकाल में रचित विभिन्न तीर्थमालाओं एवं प्रशस्तियों में वर्णित इस नगरी के विवरणों की चर्चा है। तेरहवें अध्याय में यहां के जिनालयों में संरक्षित विभिन्न जिनप्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का विवरण है। चौदहवें अध्याय में यहां स्थित शैव एवं शाक्त पीठों एवं पन्द्रहवें अध्याय में इस क्षेत्र में समय-समय पर प्रचलित विभिन्न मुद्राओं का परिचय है। अंतिम अध्याय में मार्च २००२ में इस दुर्ग पर नव निर्मित जिनालयों के प्रतिष्ठा महोत्सव की चर्चा है। ग्रन्थ के अन्त में महत्त्वपूर्ण संदर्भ सूची भी दी गयी है। सम्पूर्ण ग्रन्थ में चित्ताकर्षक विभिन्न रंगीन चित्र भी दिये गये हैं, जो पाठकों का मन मोह लेते हैं। इसकी साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक और मुद्रण सुस्पष्ट है। ग्रन्थ शोधार्थियों के साथ-साथ पर्यटन में रुचि रखने वाले जिज्ञासुओं के लिये भी उपयोगी है। इस बहुउद्देशीय ग्रन्थ के प्रणयन और सुन्दर ढंग से इसे प्रकाशित करने हेतु लेखक और प्रकाशक दोनों ही अभिनन्दनीय हैं।
अर्बद परिमण्डल की जैन धातु प्रतिमायें एवं मन्दिरावलि (प्रतिमा शिल्प, प्रतिमालेखीय एवं ऐतिहासिक अध्ययन) : लेखक - डॉ० सोहनलाल पटनी; प्रकाशक- सेठ कल्याण जी परमानन्द जी पेढ़ी, सुनारवाड़ा, सिरोही (राज.); प्रथम संस्करण- २००२ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ १४+१६६; हार्ड बाइंडिंग; मूल्य१००/- रुपये मात्र।
अभिलेखीय साक्ष्यों की प्रामाणिकता के कारण इतिहास लेखन में उनका महत्त्व निर्विवाद है। जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों - उपसम्प्रदायों, तत्कालीन सांस्कृतिक इतिहास आदि के क्रमबद्ध अध्ययन में भी ठीक यही बात लागू होती है। उक्त क्षेत्रों में शोधकार्य करने वालों का सौभाग्य है कि उन्हें जैन शिलालेखों - प्रतिमालेखों - चरणपादुकाओं आदि के एक दर्जन से अधिक संग्रह ग्रन्थ सुसम्पादित और प्रकाशित
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रूप में उपलब्ध हैं। इसका श्रेय स्व० पूरनचन्दजी नाहर, मुनि जिनविजय, आचार्य विजयधर्मसूरि, आचार्य बुद्धिसागरसूरि, अगरचन्दजी-भंवरलालजी नाहटा, महोपाध्याय विनयसागर, मुनि जयन्तविजय जी, मुनि विशालविजय जी, दौलतसिंह लोढा, डॉ० हीरालाल जैन, पं० विजयमूर्ति शास्त्री, डॉ० विद्याधर जोहरापुरकर, पं० कामताप्रसाद जैन, मुनि कंचनसागर, भाई श्रीपार्श्व, श्री लक्ष्मणभाई भोजक, डॉ० प्रवीणचन्द्र परीख, डॉ० कस्तूरचन्द्र जैन, पं० कमलकुमार जैन आदि को है। इसी महत्त्वपूर्ण श्रृंखला की अगली कड़ी हैं डॉ० सोहनलालजी पटनी। प्रस्तुत पुस्तक में उन्होंने सिरोही स्थित पुरातत्त्व संग्रहालय एवं अर्बुद मण्डल स्थित विभिन्न जैन तीर्थों में संरक्षित जैन धातु प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेखों का संकलन किया है साथ ही प्रतिमालेखों में आये गच्छों के नाम, उनके आदि आचार्य, धात् प्रतिमालेखों से सम्बद्ध पारिभाषिक शब्द, प्रतिमालेखों पर उत्कीर्ण संक्षिप्त संकेत एवं विभिन्न ज्ञातियों, उनके गोत्रों, प्रतिमालेखों में उल्लिखित विभिन्न ग्रामों आदि का भी विवरण प्रस्तुत किया है। इन अमूल्य मौलिक साक्ष्यों के संकलन में डा० पटनी द्वारा किया गया कठोर परिश्रम तभी सार्थक हो सकता है जब कि अभिलेखीय साक्ष्यों को आधार बनाकर जैन धर्म की विभिन्न उपशाखाओं
और विभिन्न जैन ज्ञातियों के इतिहास को संकलित किया जाये। हमें विश्वास है कि इतिहास के इस महत्त्वपूर्ण किन्तु प्राय: उपेक्षित कड़ी की ओर भी जैन विद्वानों का ध्यान अवश्य ही जायेगा। पुस्तक की साज-सज्जा आकर्षक और मुद्रण सुस्पष्ट है। अर्बुद परिमंडल के जैन प्रतिमालेखों को संकलित और उसे सुन्दर ढंग से प्रकाशित करने हेतु संकलक और प्रकाशक दोनों ही बधाई के पात्र हैं। यह महत्त्वपूर्ण पुस्तक प्रत्येक पुस्तकालयों एवं इतिहास के शोधार्थियों के लिये संग्रहणीय है।
अर्बुदपरिमण्डल का सांस्कृतिक इतिहास : लेखक - डॉ० सोहनलाल पटनी, प्रकाशक - सन्दीप फाउण्डेशन C/० के०सी० जैन एण्ड कम्पनी, २, माउन्ट रोड, हेन्डन, लन्दन, NW4 3PU; प्राप्ति स्थान/प्रबन्धन - अजित प्राच्य एवं समाज विद्या संस्थान, सिरोही (राज.); द्वितीय आवृत्ति २००२ ई०; आकार - डिमाई; पृष्ठ ८+२५६; पक्की बाइंडिंग; मूल्य २००/- रुपये।
विवेच्य पुस्तक में लेखक ने अर्बुद परिमण्डल के ऐतिहासिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक आयामों के उद्घाटन हेतु विभिन्न स्रोतों से उपयोगी सामग्री का उपयोग किया है। पुस्तक में कुल ३४ अध्याय हैं। प्रथम दो अध्यायों में ऐतिहासिक सिरोही जिला एवं अर्बुद परिमंडल का संक्षिप्त इतिहास दिया गया है। तीसरे और चौथे अध्याय में यहां के जैन एवं हिन्दू मंदिरों का संक्षिप्त विवरण है। पांचवें अध्याय में महावीर की विहारस्थली के रूप में प्राय: मान्य ब्राह्मणवाड़ का तथा छठे में वरमाण के सूर्य मंदिर का विवरण है। सातवें अध्याय में मीरपुर (प्राचीन हमीरपुर) स्थित प्राचीन मंदिर का संक्षिप्त वर्णन है। आठवें और नवें अध्यायों में जीरावला व सारणेश्वर के मंदिरों
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का परिचय दिया गया है। १०वें से १३वें अध्याय के अर्न्तगत अर्बद मण्डल की जैन धातु प्रतिमायें, क्षेत्र का सांस्कृतिक वैभव तथा स्थानीय बोलियों का परिचय है। अगले अध्यायों में प्राचीन चन्द्रावती एवं क्षेत्र के ऐतिहासिक दुर्गों का संक्षिप्त परिचय है। इसके पश्चात् सिरोही के शासक राव सुरताण, प्रसिद्ध राजस्थानी कवि ओपाजी आढा, महान इतिहासकार एवं भारतीय पुरालिपिविज्ञान के अध्ययन आदिपुरुष डॉ० गौरीशंकर हीराचंद ओझा तथा सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी भीमाशंकर शर्मा का विस्तृत परिचय दिया गया है। आगे के अध्यायों में यहां के ऐतिहासिक शिलालेखों, प्रमुख रचनाकारों, ऐतिहासिक व्यक्तियों, स्थापत्य एवं मूर्तिकला, मुद्रा माप, चित्रकला, वेशआभूषण, लोक मान्यतायें एवं नृत्य-गीत, यहां अवस्थित ग्रन्थभंडार एवं ब्रिटिशकाल में हुए जन आन्दोलन आदि का सुन्दर परिचय दिया गया है। वस्तुत: विद्वान् लेखक ने अपनी इस पुस्तक में गागर में सागर भरने का जो प्रयास किया है, वह स्तुत्य है। आशा है लेखक के इस प्रयास से प्रेरणा लेकर भविष्य में अन्य विद्वान् भी अलगअलग क्षेत्रों का इसी प्रकार सांस्कृतिक इतिहास संकलित करने का कार्य करेंगे। उत्तम कागज पर मुद्रित इस पुस्तक की साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक और मुद्रण अत्यन्त स्पष्ट है। पुस्तक में कई रंगीन चित्र भी दिये गये हैं जो पाठकों को क्षेत्र दर्शन के लिये प्रेरित करते हैं। यह पुस्तक न केवल शोधार्थियों बल्कि जनसामान्य के लिये भी पठनीय
और सभी पुस्तकालयों के लिये अनिवार्य रूप से संग्रहणीय है। ऐसे सुन्दर ग्रन्थ के प्रणयन के लिये लेखक और उसे सुन्दर रूप में मुद्रित करा कर अल्प मूल्य में उपलब्ध कराने हेतु प्रकाशक, दोनों ही बधाई के पात्र हैं।
शिवप्रसाद हरिवंश कथा : लेखक - पंडित रतनचन्द जी भारिल्ल; प्रकाशक - पंडित टोडरमल स्मारक ट्रस्ट, ए-४, बापूनगर, जयपुर ३०२०१५; प्रथम संस्करण - २००३ ई०; आकार - रायल अठपेजी; पृष्ठ ६+२९९; पक्की जिल्द बाइंडिंग; मूल्य - ३०/- रुपये मात्र।
हरिवंश कथा, आचार्य जिनसेनकृत हरिवंशपुराण पर आधारित है। हरिवंश कथा को लेखक ने कथनाक शैली में लिखा है। मूलग्रन्थ में जहाँ आचार्य जिनसेन ने ६६ सर्गों में भगवान आदिनाथ से लेकर चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर तक के जीवन चरित्र पर विशेष उल्लेख किया है। वहीं पर पंडित श्री रतनचन्द भारिल्ल ने मात्र २९ सर्गों के माध्यम से ही 'हरिवंश' का उद्भव और विकास दर्शाया है अर्थात् भगवान् शीतलनाथ से भगवान् नेमिनाथ का समय और उस काल के प्रमुख पात्रों को सजीव बनाने का प्रयास किया है। इस पुस्तक में लेखक द्वारा कथा के माध्यम से जैन-धर्म के प्रचार-प्रसार करने का सफल प्रयास है। हरिवंश कथा वास्तव में श्रवणीय है। इसमें पर्याप्त रोचकता है। एक प्रकार से हम इसको अध्यात्म कथा भी कह सकते हैं।
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पंडित रतनचन्द्र भारिल्ल द्वारा प्रणीत प्रस्तुत कृति आज के समाज के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि समाज में आपसी कलह, वैमनस्यता, कटुता, द्वेष, हिंसा (धर्म, वृत्ति आदि को लेकर) अपनी चरम सीमा पर हैं, ऐसे में इस आध्यात्मिक कथा को पढ़ने सुनने से मानवीय विकास के साथ-साथ मनुष्य की आध्यात्मिक शक्ति को बल मिलेगा, जिससे मनुष्य के मोक्षमार्ग के लिए अच्छा साधन एवं शुद्ध वातावरण पैदा होगा। संसार में सभी मनुष्यों का अन्तिम ध्येय एक ही होता है वह है - मोक्ष | मनुष्य चाहे वह किसी भी धर्म, सम्प्रदाय, जाति का हो, मोक्षप्राप्त करने की लालसा बनी रहती है। समीक्षार्थ रूप से कहा जाय तो 'हरिवंश कथा' को पढ़ने-सुनने से • सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र तीनों की वृद्धि होती है। इस कथा में कहींकहीं आध्यात्मिक और कर्मोदयजन्म सांसारिक दुःखों की मार्मिक हृदयों को हिला देने वाली चर्चा भी है।
वास्तव में यह ग्रन्थ मानव को उपभोक्तावादी प्रवृत्ति से रोकने एवं उसके आत्मविकास और आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त करने में उपयोगी है। निश्चय ही पंडित रतनचन्दजी भारिल्ल का यह कार्य जैनशास्त्र के सरलीकरण में एक अभिनव एवं प्रशंसनीय प्रयास है।
डॉ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम
जैनकाव्यों का दार्शनिक मूल्यांकन : लेखक - डॉ० जिनेन्द्र जैन, सहायक आचार्य - प्राकृत एवं जैनागम विभाग, जैन विश्व भारती, लाडनूं (राज० ); प्रकाशकराधा पब्लिकेशन्स ४३७८/४बी, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम संस्करण २००१; आकार - डिमाई; पक्की बाइंडिंग; पृष्ठ २२०; मूल्य ३५०/- रुपये।
जिस प्रकार किसी भी देश की स्वाधीनता, संपन्नता एवं तदनुरूप राष्ट्रनीति की सुव्यवस्था क्षणिक-विज्ञानवाद, परमाणु पुञ्जवाद, सर्वशून्यवाद या नित्यविज्ञानाद्वैतवाद आदि के प्रचार-प्रसार से सुरक्षित या सुदृढ़ नहीं हो सकती, क्योंकि अपेक्षित शास्यशासकभाव, दण्ड्य- दाण्डिकभाव, पोष्य- पोषकभाव, भक्ष्य भक्षकभाव आदि को सुव्यवस्थित रखने के लिए सांसारिक पदार्थों में स्थिर वस्तुदृष्टि तथा सत्यता दृष्टि का सिद्धान्त अपेक्षित है। उसी प्रकार किसी भी देश की संस्कृति, सभ्यता, कलाइतिहास, धर्म एवं दर्शन की सुदृढ़ता के लिए सबल साहित्यिक आधार भी अपेक्षित है। देश-काल आदि की दृष्टि से साहित्य विविध भाषाओं में प्रस्फुटित होता है । प्रस्तुत पुस्तक में डॉ० जिनेन्द्र जैन ने जैन सिद्धान्तों एवं आचार धर्म की समीक्षात्मक व्याख्या प्रस्तुत करने का पूरा प्रयास किया है। उस देश काल में अन्य दार्शनिक सिद्धान्तों की भी उन्होंने चर्चा की है। इस पुस्तक को छः अध्यायों में विभाजित किया गया है। प्रथम अध्याय में संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में लिखे गये दसवीं शताब्दी के जैन साहित्य का परिचय दिया गया है एवं अन्त में उस समय
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धर्म एवं दर्शन की स्थिति के साथ राजनैतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों की भी चर्चा की गयी है। द्वितीय अध्याय में उक्त शताब्दी के प्रमुख दार्शनिक विचारधाराओं पर प्रकाश डाला गया है साथ-साथ शैव, सांख्य एवं वैशेषिक दर्शन की विचारधारा को भी समाहित किया है।
तृतीय अध्याय जैन काव्यों में उपलब्ध वैदिक दर्शन एवं चतुर्थ अध्याय में बौद्धदर्शन के सिद्धान्तों एवं धार्मिक जीवन पर प्रकाश डाला गया है। पांचवें अध्याय में जैन दर्शन के जीव, अजीव, धर्म, अधर्म, आकाश और काल की व्याख्या के साथसाथ जैन दर्शन की नीतिशास्त्रीय मीमांसा की गयी है।
__ वस्तुत: यह पुस्तक सचमुच में शोधार्थियों के लिए अधिक उपयोगी है। इस पुस्तक में लेखक ने नये तथ्यों की जानकारी प्रस्तुत की है। जैन दर्शन एवं धर्म में शोध कार्य के लिए लेखक ने कुछ जगह ऐसे प्रश्नों की चर्चा की है जिससे प्रतीत होता है कि अभी भी दसवीं शताब्दी से सम्बन्धित कुछ और कार्य किये जा सकते हैं।
डॉ० धर्मेन्द्र कुमार सिंह गौतम
Book-Review Jaina Perspective on the Philosophy of Religion : by Arvind Sharma, Publisher MLBD, Delhi; 2001, Price Rs. 195/- pp. 166.
Dr. Arvind Sharma's 'Jaina Perspective on the Philosophy of Religion' is a critical Monograph on Philosophy of Religion. In this book, Dr. Sharma has very methodically explained the main features of philosophy of religions i.e, the concept of God and its relation with sufferings of human beings, faith and knowledge, epistemology and ontology, problem of religious pluralism as well as Human Destiny in Western and Indic perspective.
Dr. Sharma has discussed all the points not mere theologically particularly in the case of God but apologetically which philosophically defences the religious beliefs.
Dr. Sharma's approach to the problems is lucid and with a new angle of vision. This book will definitely open a new horizon of thought against the superstitional beliefs. Dr. Sharma deserves to be thanked for his contribution made.
Dr. S.P. Pandey
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