SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 74
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६८ किन्तु द्रव्य गुणमयी है। द्रव्य में गुणों की व्यवस्था इस प्रकार नहीं है जैसे बोरे में गेहूँ के दाने भरे हैं, किन्तु जैसे नमक में खारापना, सफेदी, ठोसपना है। वैसे ही द्रव्य में गुण तादात्म्य-तद्रूप हैं। इस प्रकार गुणों का द्रव्य से नित्यतादात्म्य सम्बन्ध है जो उससे पृथक् नहीं किया जा सकता। पर्याय - द्रव्य अथवा गुणों के परिणाम को पर्याय कहते हैं अर्थात् प्रत्येक द्रव्य या गुण कोई-न-कोई अवस्था में जरूर होता है। अवस्था के बिना द्रव्य के अस्तित्व का कोई औचित्य ही नहीं होता है। जैसे स्वर्ण, बिस्कुट, कुण्डल, कंगन आदि कोई-न-कोई अवस्था में तो पाया ही जाएगा। हम कोई भी अवस्था के बिना स्वर्ण को पाना चाहें, तो यह सम्भव नहीं है। इस प्रकार पर्याय ही द्रव्य की प्रसिद्धि का हेतु है। प्रत्येक वस्तु के परिणमन का यह वैशिष्ट्य होता है कि वह त्रिकाल में भी परिणमन करते हुए अपने वस्तुत्वपने को नहीं खोता। अर्थात् उसका द्रव्यपना सदा कायम रहता है। इसी कारण वह अपने स्वभाव रूप से अन्य वस्तुओं से भिन्न स्वतन्त्र रहती है। जैनदर्शन में पर्यायों को अनन्त प्रकार का माना गया है और मुख्य रूप से पर्याय के दो भेद किये हैं - १. अर्थपर्याय २. व्यंजनपर्याय द्रव्य-गुण-पर्याय की भिन्नता व अनन्यता गण व पर्याय से द्रव्य कथंचित भिन्न व कथंचित अभिन्न है। संज्ञा, संख्या, प्रयोजन आदि से कथंचित भिन्न है, परन्तु सर्वथा पृथक्-पृथक् अस्तित्व नहीं है क्योंकि तीनों के प्रदेश अभेद हैं, अनन्य हैं। गुणपर्याय रहित द्रव्य व द्रव्यरहित गुणपर्याय का अस्तित्व नहीं देखा जा सकता, क्योंकि गुणपर्याय रहित द्रव्य सम्भव नहीं है, गुण-पर्यायों से उसकी पहचान होती है और गुणपर्याय बिना द्रव्य के सम्भक नहीं, क्योंकि बिना आधार के गुणपर्याय अपना अस्तित्व खो देंगे। इस प्रकार द्रव्य के सत् अस्तित्व, उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यता व गुणपर्याय युक्त स्वभाव के सम्पूर्ण विवेचन के उपरान्त यह तथ्य सहजरूप से उद्घटित होता है कि विश्व की प्रत्येक वस्तु अपने गुण सम्पदारूपी स्वभाव से परिपूर्ण है एवं बिना अन्य किसी के सहयोग से अपने गुणपर्यायों में उत्पाद-व्यय करते हुए स्वतन्त्र रूप से वे अपना त्रिकाल अस्तित्व बनाये रखते हैं। कोई द्रव्य या उसका कोई अंश यहां तक कि सर्वशक्तिमान ईश्वर भी किसी अन्य द्रव्य की सत्ता में किंचित् मात्र भी दखल नहीं दे सकता, हस्तक्षेप नहीं कर सकता, ऐसी स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्दोष एवं सुन्दर विश्व की व्यवस्था है। आचार्य अमृतचन्द इस तथ्य को बड़े सुन्दर शब्दों में प्रकट करते हैं -
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy