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"धर्म, अधर्म, आकाश, काल जीवद्रव्य स्वरूप लोक में सर्वत्र जो कुछ जितने पदार्थ हैं वे सब निश्चय से एकत्व-निश्चय को प्राप्त होने से ही सुन्दरता को पाते हैं, क्योंकि अन्य प्रकार से उसमें सर्वसंकर आदि दोष आ जावेंगे। ये सब पदार्थ अपने द्रव्य में अन्तर्मग्न रहने वाले अपने अनन्तधर्मों के वक्र (समूह) का चुम्बन करते हैं, स्पर्श करते हैं तथापि वे परस्पर एक-दूसरे को स्पर्श नहीं करते, अत्यन्त निकट एकक्षेत्रावगाह रूप रह रहे हैं तथापि सदाकाल अपने स्वरूप से च्युत नहीं होते। पररूप परिणमन न करने से अनन्त व्यक्तिता नष्ट होती है, इसलिए वे टंकोत्कीर्ण की भाँति (शाश्वत) स्थिर रहते हैं और समस्त विरुद्ध तथा अविरुद्ध कार्य दोनों की हेतुता से वे सदा विश्व का उपकार करते हैं - टिकाये रखते हैं।'' ११ ।
यह व्यवस्था किसी के रोकने से रुक नहीं सकती, बदल नहीं सकती, घटबढ़ नहीं सकती लेकिन अनवरत् रूप से चलती रहती है, यथा - "अनादि निधन वस्तुयें भिन्न-भिन्न अपनी-अपनी मर्यादा सहित परिणमित होती हैं, कोई किसी के आधीन नहीं है, कोई किसी के परिणमित कराने से परिणमित नहीं होते, पर को परिणमित कराने का भाव मिथ्यादर्शन है।' १२ उपरोक्त स्वतन्त्र वस्तु व्यवस्था ही वस्तुस्वातन्त्र्य की नींव है, मूल आधार है। यह कहें कि स्वतन्त्र, स्वाधीन, स्वसहाय, वस्तु ही वस्तुस्वातन्त्र्य है।
___ यदि कोई पदार्थ अन्य पदार्थों के कार्यों में हस्तक्षेप करे, तो उसे अपना कार्य बन्द करना होगा अथवा एक ही समय में दो कार्य करने होंगे। पर ऐसा असम्भव है। समयसार में इस तथ्य को भलीभाँति स्पष्ट किया गया है -
"जो जिस द्रव्य में या गुण में अनादिकाल से वर्त रहा है, उसे छोड़कर अन्य द्रव्य या अन्य गण में कभी भी संक्रमित नहीं होता तो वह उसे कैसे परिणमा सकता है, अर्थात् नहीं परिणमा सकता।''१३
__इस प्रकार जगत् की प्रत्येक वस्तु अचलित वस्तुस्थिति की मर्यादा को तोड़ने में अशक्य होने से अपने द्रव्य व गुण में निजरस से वर्तती है, परन्तु द्रव्यान्तर या गुणान्तर रूप से संक्रमण को प्राप्त नहीं होती, तब वह अन्य वस्तु को परिणमित नहीं करा सकती। इसलिए परभाव किसी के द्वारा नहीं किया जा सकता। अत: यह बात हाथ में रखे आँवले की भाँति सम्पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि वस्तु की ऐसी स्वतन्त्र व्यवस्था है, मर्यादा है जिसके बाहर वस्तु परिणमन नहीं करती। साथ ही, कई द्रव्य परस्पर एकक्षेत्रावगाह रूप से रहते हुए भी अपने स्वभाव रूप परिणमन करते हैं, विभाव रूप नहीं। यथा -
"वे छहों द्रव्य एक-दूसरे में प्रवेश करते हैं, एक-दूसरे को अवकाश देते हैं, परस्पर (क्षीरनीरवत्) मिल जाते हैं, तथापि अपने-अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते।"१४