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________________ ७० यह शंका उत्पन्न हो सकती है कि आप कहते हैं कि कोई भी द्रव्य या उसकी पर्याय अन्य द्रव्य या उस अन्य द्रव्य की पर्याय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। लेकिन जगत् में हमको प्रत्यक्ष इसके विरुद्ध भासित होता है कि कोई भी कार्य बिना किसी दूसरे द्रव्य की सहायता के हो सकता है, ऐसा दिखता नहीं है। जैसे, किसी ने हमें गाली दी तो क्रोध आता है, प्रशंसा की तो मान कषाय उत्पन्न होती है। लेकिन कोई प्रसंग उत्पन्न हुए बिना कषाय उत्पन्न नहीं होती है और हम शरीर का कार्य प्रत्यक्ष करते देखे जाते हैं। यद्यपि ऊपरी दृष्टिकोण से यह शंका सत्य प्रतीत होती है, परन्तु गम्भीरता से मंथन करने पर यह अनुभव में आता है कि कोई मुझे गाती देवे तो मैं क्रोध करूँ या न करूँ, ऐसी स्वतन्त्रता है या नहीं? इसी प्रकार किसी दूसरे व्यक्ति के द्वारा.प्रशंसा करने पर मानभाव करने या न करने की स्वतन्त्रता मुझे है। इस प्रकार अनुभव होता है कि बाह्य कारण एक सरीखे मिलने पर भी सभी व्यक्तियों के भाव समान नहीं होते। इसी प्रकार यदि हममें शरीर का अपने रूप परिणमन करने की सामर्थ्य होती है तो शरीर में रोग होने पर तुरन्त ठीक कर लेते, परन्तु ऐसा नहीं होता क्योंकि शरीर के परमाणु अपने गुणों में परिणमन करते हैं और आत्मा अन्य द्रव्य होने से वह अपने गुणों में इच्छा रूप विपरीत परिणमन कर सकता है लेकिन शरीर के परमाणुओं में फेरफार नहीं कर सकता। जैनदर्शन दो द्रव्यों के बीच कर्ता-कर्म सम्बन्ध को सर्वथा अस्वीकृत करता है एवं उनके बीच केवल निमित्तनिमेत्तिक सम्बन्ध को स्वीकार करता है। उसके अनुसार पर द्रव्य कार्योत्पत्ति में निमित्त मात्र तो होता है, पर वह कार्य का कर्ता नहीं होता, उसमें किंचित् मात्र भी हस्तक्षेप नहीं कर सकता। जैसे, मिट्टी स्वयं घट रूप परिणमित होती है कुम्हार, चक्र, दण्ड आदि तो केवल निमित्त रूप से विद्यमान रहते हैं। यदि कुम्हार को घट का कर्ता माना जाए तो कंकड़ युक्त मिट्टी से घट बनना चाहिए, जोकि असम्भव है। इस प्रकार जैनदर्शन मात्र ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं है के निषेधात्मक मार्ग तक सीमित नहीं है, अपितु विश्व में व्याप्त समस्त द्रव्यों के परस्पर कर्तृव्य या उनके परिणमन में हस्तक्षेप का निषेधक एवं स्वकर्तृत्व का पोषक है। उपसंहार - वस्तु-स्वातन्त्र्य, जैनदर्शन का पर्यायवाचक होने से जैनदर्शन में वर्णित समस्त सिद्धान्त इसमें समाहित हो जाते हैं, जैसे - अहिंसा, क्रमबद्धपर्याय, निमित्तोपादान, षट्कारक मीमांसा, अभाव मीमांसा आदि। व्यक्ति का जीवन-मरण किसी अन्य द्रव्य के अधीन न होकर स्वतन्त्र, स्वाधीन है। अत: पर को मारने व बचाने की कर्तृत्व रूपी मिथ्या भ्रान्ति वस्तु-स्वातन्त्र्य के पोषक अहिंसा के सिद्धान्त में स्वीकृत नहीं है। क्रमबद्धपर्याय, वस्तु की क्रम-क्रम से होने वाली पर्यायों को पूर्ण व्यवस्थित व नियमित
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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