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घोषित कर पर्यायगत स्वतन्त्रता का उद्घोषणा करता है। निमित्तोपादान व्यवस्था में निमित्त कार्योत्पत्ति में विद्यमान होते हुए कर्त्ता नहीं होता, बल्कि उपादानगत योग्यता का धारक द्रव्य स्वयं कार्य रूप परिणमता है, निमित्त परद्रव्य रूप से विद्यमान रहता है। इस प्रकार यह सिद्धान्त द्रव्य की स्वयं शक्ति सामर्थ्य से परिणमन को स्वीकृत कर वस्तु-स्वातन्त्र्य को पोषित करता है।
इसी प्रकार का कर्तृकर्म व षटकारक मीमांसा भी परकर्तृत्व की निषेधक व वस्तु के स्वतन्त्र स्वभाव की पोषक है। उपर्युक्त भाव रूप सिद्धान्त ही वस्तु की स्वतन्त्रता का दिग्दर्शन नहीं कराते, बल्कि नास्ति पक्ष से युक्त अभाव सिद्धान्त भी द्रव्य की उसके गुणों व उत्पन्न पर्यायों से सम्पूर्ण स्वतन्त्रता को प्रगट करता है। इस प्रकार जिनागमप्रणीत समस्त सिद्धान्त वस्तु की स्वतन्त्र व्यवस्था का प्रकटीकरण करते हैं। यह समस्त सिद्धान्तों का सार है। यह जैनदर्शन के आध्यात्मिक स्वरूप का दिग्दर्शक है, इसे समझे बिना जिनागम का मर्म नहीं समझा जा सकता है। सन्दर्भ: १. आचार्य उमास्वाति, तत्त्वार्थसूत्र, ५/२९, जयपुर १९९६, पृ० ३५१. २. आचार्य कुन्दकुन्द, प्रवचनसार, गाथा ९६ की टीका, कुन्दकुन्द कहान सर्वोदय
ट्रस्ट, जयपुर १९९६, पृ० १८२. ३. आचार्य अमृतचन्द, पंचाध्यायी, दिगम्बर जैन साहित्य प्रकाशन समिति, अलवर
१९९६ ईस्वी, गाथा ८, पृ० ३-४. ४. आचार्य कार्तिकेय स्वामी, कार्तिकेयानुप्रेक्षा, जयपुर १९९६, गाथा २२७, पृ०
१०२. ५. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २२८, पृ० १०३. ६. आचार्य पूज्यपाद, सर्वार्थसिद्धि, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, दिल्ली १९९८,
पृ० २३०. ७. प्रवचनसार, गाथा १०२, पृ० २०५. ८. प्रवचनसार, गाथा १०३, पृ० २०७. ९. तत्त्वार्थसूत्र, ५/३७. १०. प्रवचनसार, गाथा १०३, पृ० २०७. ११. आचार्य कुन्दकुन्द, समयसार, जयपुर १९८३, गाथा ३ की टीका, पृ० ११. १२. मोक्ष मार्ग, प्रकाशक - पंडित टोडरमल....., जयपुर १९९५, पृ० ५२. १३. समयसार, गाथा १०३, पृ० १८६. १४. आचार्य कुन्दकुन्द, पंचास्तिकाय, गाथा ७ की टीका, पृ० १९.