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________________ ११४ ठीक यही बात वि०सं० १५७१/ई० सन् १५१५ में लिखी गयी जीवभिगमसूत्र की प्रतिलिपि की प्रशस्ति में भी कही गयी है। वि०सं० १५२६/ई० सन् १४७० में लिखी गयी कालापकव्याकरणवृत्तिसह की प्रशस्ति१५ में प्रतिलिपिकार देवभद्रगणि ने स्वयं को जिनचन्द्रसूरि का शिष्य बतलाते हुए अपनी गुरु-परम्परा की तालिका दी है, जो इस प्रकार है : जिनदत्तसूरिसंतानीय जिनचन्द्रसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि जिनशेखरसूरि जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि देवभद्रगणि (वि०सं० १५२३/ई० सन् १४७० में कालापकव्याकरणवृत्तिसह के प्रतिलिपिकार) देवभद्रगणि ने वि०सं० १५३५/ई० सन् १४७९ में नलदवयन्तीचरित्र की भी प्रतिलिपि की, जिसकी प्रशस्ति'६ में उन्होंने अपनी परम्परा की गुर्वावलि का प्रारम्भ इस प्रकार किया है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय → जिनशेखरसूरि जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि देवभद्रगणि (वि० सं० १५३५/ई० सन् १४७९ में नलदयवन्तीचरित्र के प्रतिलिपिकार) वि० सं० १५३६/ई० सन् १४८० में देवभद्रगणि के पठनार्थ एक श्रावक द्वारा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित की प्रतिलिपि करायी गयी। इसकी दाताप्रशस्ति में भी ठीक उसी प्रकार की गुर्वावली दी गयी है जैसा कि कालापकव्याकरणवृत्तिसह की दाताप्रशस्ति में हम ऊपर देख चुके हैं। देवभद्रगणि के पठनार्थ ही वि० सं० १५३८/ई० सन् १४७२ में कर्पूरमंजरीनाटिका की प्रतिलिपि की गयी। यद्यपि इसकी प्रशस्ति में प्राप्त गुर्वावली उपरोक्त प्रशस्तिगत गुर्वावलियों के समान ही है, किन्तु इस प्रशस्ति में सर्वप्रथम खरतरबेगड़शाखा का नामोल्लेख प्राप्त होता है, अत: यह अत्यन्त महत्त्वपूर्ण मानी जा सकती है। मुनि पुण्यविजय ने इस प्रशस्ति९ का मूलपाठ दिया है, जो इस प्रकार है :
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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