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जिनधर्मसूरि के द्वितीय शिष्य जयानन्द हुए जिन्होंने वि०सं० १५१०/ई० सन् १४५४ में धन्यचरितमहाकाव्य की रचना की। इनके शिष्य क्षमामूर्ति ने वि०सं० १५२६/ई० सन् १४७० में कालकाचार्यकथा की प्रतिलिपि की।
जिनधर्मसूरि के पट्टधर जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' हुए, जिनके द्वारा प्रतिष्ठापित ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत की एक सलेख प्रतिमा प्राप्त हुई है जो वि०सं० १५३६ की है और वर्तमान में आदिनाथ जिनालय, जैसलमेर में संरक्षित है। श्री पूरनचन्द नाहर ने इस लेख की वाचना दी है जो इस प्रकार है :
१. ॥ संव० १५३६ वर्षे फागुण सुदि ५ भौमवासरे श्रीउपके २. शवंशे छाजहड़गोत्रे मंत्रि फलधरान्वये मं० जूठिल पुत्र मं० का३. लू भा० कर्मादे पु० नयणा भा० नामलदे तयोः पुत्र मं ४. सीहा भार्यया चोपड़ा सा० सवा पुत्र सं० जिनदत्त भा० लषाई ५. पुत्र्या श्राविका अपुरव नाम्न्या पुत्र समधर समरा संडू सहि ६. तया स्वपुण्यार्थं श्रीआदिदेव प्रथम पुत्ररत्न प्रथम चक्रवर्ति ७. श्री भरतेश्वरस्य कायोत्सर्गस्थितस्य प्रतिमा कारिता प्रतिष्ठि ८. ता श्रीखरतरगच्छमंडन श्रीजिनदत्तसूरि श्रीजिनकुशलसू ९. रिसंतानीय श्रीजिनचन्द्रसूरि पं० श्रीजिनेश्वरसूरिशाखायां । श्री ।। १०. जिनशेखरसूरिपट्टे श्रीजिनधर्मसूरिपट्टालंकार श्रीपूज्य ११. (श्री जिनचन्द्रसूरिभिः ॥ श्रीः । श्राविका सूरमदे कारापिता)
वि०सं० १५५५/ई० सन् १४९९ में आचार्य जिनचन्द्रसूरि 'प्रथम' के नायकत्त्वकाल में उपाध्याय देवचन्द्र के प्रशिष्य एवं क्षमासंदर के शिष्य पं० नरसमुद्र ने आवश्यकनियुक्ति की प्रतिलिपि की। वि०सं० १५२८/ई० सन् १४६२ में इनके शिष्य देवभद्रगणि ने स्याधंतप्रक्रिया की प्रतिलिपि की१२।
खरतरगच्छ की लघुशाखा के प्रवर्तक आचार्य जिनसिंहसूरि के शिष्य शासनप्रभावक आचार्य जिनप्रभसूरि द्वारा रचित विधिमार्गप्रप्रा की वि०सं० १५५९/ ई० सन् १५०३ में लिपिबद्ध की गयी प्रति की दाताप्रशस्ति में भी बेगड़शाखा के मुनिजनों की एक छोटी गुर्वावलि१३ प्राप्त होती है, जो इस प्रकार है : जिनेश्वरसूरिसंतानीय जिनशेखरसूरि
जिनधर्मसूरि जिनचन्द्रसूरि जिनमेरुसरि (इनके वाचनार्थ वि० सं० १५५९/ई० सन्
१५०३ में विधिमार्गप्रपा की प्रतिलिपि की गर्दी)