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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा ५३ रही है। साथ ही जैन धर्मानुयायी के विदेश गमन से इसे एक अन्तर्राष्ट्रीय धर्म होने का गौरव प्राप्त हुआ है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनधर्म की सांस्कृतिक चेतना भारतीय संस्कृति के आदिकाल से लेकर आज तक नवोन्मेष को प्राप्त होती रही है। वह एक गतिशील जीवन्त परम्परा के रूप में देश कालगत परिस्थितियों के साथ समन्वय करते हुये उसने अपनी गतिशीलता का परिचय दिया है। सन्दर्भ १. 'उत्तराध्ययन', २५/२७,२१ । २. 'धम्मपद', ४०१-४०३ । ३. 'उत्तराध्ययन', १२/४४ | ४. 'अंगुत्तरनिकाय', 'सुत्तनिपात', उद्धृत भगवान् बुद्ध (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ० - २६ । ५. 'भगवान् बुद्ध' (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृ० - २३६-२३९ । ६. 'गीता', ४ / ३३, २६-२८ । ७. 'उत्तराध्ययन', १२/४६ । ८. 'उत्तराध्ययन', ९/४०, देखिये- 'गीता' (शा० ) ४ / २६-२७ । ९. 'धम्मपद', १०६ । १०. 'सम्बोधप्रकरण', गुर्वाधिकार ।
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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