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________________ जैनधर्म की ऐतिहासिक विकास-यात्रा दिगम्बर परम्परा में तो गृहस्थ के लिये प्राचीन षडावश्यकों के स्थान पर षट् दैनिक कृत्यों जिन- पूजा, गुरु-सेवा, स्वाध्याय, तप, संयम एवं दान की कल्पना की गयी। हमें 'आचारांग', 'सूत्रकृतांग', 'उत्तराध्ययन', 'भगवती' आदि प्राचीन आगमों में जिन-पूजा की विधि का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है। इनकी अपेक्षा परवर्ती आगमों 'स्थानांग' आदि में जिन-प्रतिमा एवं जिन-मन्दिर (सिद्धायतन) के उल्लेख हैं, किन्तु उनमें पूजा सम्बन्धी किसी अनुष्ठान की चर्चा नहीं है। जबकि 'राजप्रश्नीय' में सूर्याभदेव और 'ज्ञाताधर्मकथा' में द्रौपदी के द्वारा जिन-प्रतिमाओं के पूजन के उल्लेख हैं । यह सब बृहद् हिन्दू परम्परा का जैनधर्म पर प्रभाव है। ‘हरिवंशपुराण' में जिनसेन ने जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप और नैवेद्य का उल्लेख किया है। इस उल्लेख में भी अष्टद्रव्यों का क्रम यथावत् नहीं है और न जल का पृथक् निर्देश ही है । स्मरण रहे कि प्रतिमा-प्रक्षालन की प्रक्रिया का अग्रिम विकास अभिषेक है जो अपेक्षाकृत और भी परवर्ती है। ____ 'पद्मपुराण', “पंचविंशति'(पद्मनन्दिकृत ), 'आदिपुराण', 'हरिवंशपुराण', 'वसुनन्दि श्रावकाचार' आदि ग्रन्थों से अष्टद्रव्यों का फलादेश भी ज्ञात होता है। यह माना गया है कि अष्टद्रव्यों द्वारा पूजन करने से ऐहिक और पारलौकिक अभ्युदयों की प्राप्ति होती है। 'भावसंग्रह' में भी अष्टद्रव्यों का पृथक्-पृथक् फलादेश बताया गया है। डॉ० नेमिचन्द्र शास्त्री द्वारा प्रस्तुत विवरण हिन्दू परम्परा के प्रभाव से दिगम्बर परम्परा में पूजा-द्रव्यों के क्रमिक विकास को स्पष्ट कर देता है। श्वेताम्बर परम्परा में हिन्दुओं की पंचोपचारी पूजा से अष्टप्रकारी पूजा और उसी से सत्रह भेदी पूजा विकसित हुई। यह सर्वोपचारी या सत्रह भेदी पूजा वैष्णवौं की षोडशोपचारी पूजा का ही रूप है और बहत कुछ रूप में इसका उल्लेख 'राजप्रश्नीय' में उपलब्ध है। इस समय चर्चा में हमें ऐसा लगता है कि जैन परम्परा में सर्वप्रथम धार्मिक अनुष्ठान के रूप में षडावश्यकों का विकास हुआ। उन्हीं षडावश्यकों में स्तवन या गुण-स्तुति का स्थान था, उसी से आगे चलकर भावपूजा प्रचलित हुई और फिर द्रव्यपूजा की कल्पना सामने आई, किन्तु द्रव्यपूजा का विधान केवल श्रावकों के लिये हुआ। तत्पश्चात् श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में जिन-पूजा सम्बन्धी जटिल विधि-विधानों का जो विस्तार हुआ, वह सब ब्राह्मण-परम्परा का प्रभाव था। आगे चलकर जिनमन्दिर के निर्माण एवं जिनबिम्बों की प्रतिष्ठा के सम्बन्ध में हिन्दुओं का अनुसरण करके अनेक प्रकार के विधि-विधान बने। पं० फूलचंदजी सिद्धान्तशास्त्री ने 'ज्ञानपीठ पूजांजलि' की भूमिका में और डॉ० नेमिचंदजी शास्त्री ने अपने एक लेख 'पुष्पकर्म-देवपूजा : विकास एवं विधि' जो उनकी पुस्तक 'भारतीय संस्कृति के विकास में जैन वाङ्मय का अवदान' (प्रथम खण्ड), पृ० ३७१ पर प्रकाशित है, में इस बात को स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि जैन परम्परा में पूजा-द्रव्यों का क्रमश: विकास हुआ
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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