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प्राप्त नहीं होते। संसार चक्र के मूल में अज्ञान है। प्रज्ञा की अनुपस्थिति में निर्वाण संभव नहीं हैं। जैनयोग में गणधरप्रणीत जैनागम ही यथार्थ ज्ञान है, शेष मिथ्या ज्ञान है। जैन परम्परा में राग-द्वेष से रहित वीतरागी ही आप्त पुरुष हैं और इन्ही के वचन ज्ञान की सम्यकता की कसौटी हैं। जैनागमों में ज्ञान के तीन स्तर निरूपित हुए हैं - इन्द्रियजन्य ज्ञान, बौद्धिक ज्ञान और आध्यात्मिक ज्ञान। प्रथम स्तर का ज्ञान अवरणीय है जबकि दूसरे स्तर का ज्ञान इस रूप में वरणीय है कि इसमें ज्ञान के विषय आन्तरिक होते हैं। तृतीय स्तर का ज्ञान आत्मबोध अथवा स्व-बोध है। इस स्तर पर ज्ञान, ज्ञाता तथा ज्ञेय की त्रिपुटी समाप्त हो जाती है। जैनदृष्टि में यही केवल-दृष्टि है। १२ इसी प्रकार वैदिक ऋषियों के मूलमंत्र ‘आत्मान विद्धि' की चरमनिष्पत्ति शांकर वेदान्त में 'अयं आत्मा ब्रह्म' में होती है, जहाँ अर्हता एवं इदन्ता, विषयिता एवं विषयता और व्यष्टि एवं समष्टि एकाकार हो जाते हैं। अध्यात्मिक विकास अथवा योग के प्रयोजन सिद्धि हेतु केवल श्रद्धा एवं ज्ञान ही पर्याप्त नहीं हैं, अपितु उसमें चरित्र की भी महती भूमिका है। एतदर्थ सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान के पश्चात् सम्यक्चारित्र का निरूपण हुआ है। दर्शन तत्त्व के साक्षात्कार में ज्ञान होता है। तत्पश्चात् वही ज्ञान चारित्र रूप में परिणत हो जाता है। जैन विचारणानुसार श्रद्धा से तत्त्व को, ज्ञान के माध्यम से उसके स्वरूप को पहचानना चाहिए एवं आचरण के माध्यम से उसका साक्षात्कार करना चहिए।
चारित्र के दो रूप प्राप्त होते हैं - व्यवहार चारित्र तथा निश्चय चारित्र। विधिविधान व्यवहार चारित्र हैं और इसी की सामाजिक जीवन में महत्ता है जबकि इसके विपरीत आध्यात्मिक विकास में निश्चय चारित्र की प्रधानता होती है। साधक वासनाओं, कषायों (राग-द्वेष) से रहित जो विवेकपूर्ण आचरण करता है, वही निश्चय चारित्र कहलाता है। यह अप्रमत्त चेतना/आत्मरमण की अवस्था है। वस्तुत: यह मोक्ष का निकटतम सोपान है। व्यवहार चारित्र सामाजिक जीवन में फलित होता है। इसका सम्बन्ध व्यक्ति के मन, वचन एवं कर्म की शुद्धि से है। अणुव्रत, महाव्रत, समिति, गुप्ति, धर्म और तप में प्रवृत्ति व्यवहार चारित्र है। जैन परम्परा में गृहस्थ साधकों के लिए देशव्रती चारित्र का तथा श्रमणों के लिए सर्वव्रती चारित्र का विधान है। गृहस्थाचार में अष्टमूलगुण, षट्कर्म, पंचाणुव्रत, तीन गुणव्रत, चार शिक्षावत, चार भावनाएँ, ग्यारह प्रतिमाएँ और सल्लेखना समाविष्ट हैं जबकि श्रमणाचार में पाँच महाव्रत, तीन गुप्ति, दशविध धर्म, द्वादश अनुप्रेक्षाएँ, बाइस परीषह, छः बाह्यतप, छ: आभ्यान्तरतप, ध्यान, गुणस्थान व मोक्ष का विधान समाविष्ट है।
सामान्यत: जैनागमों में उक्त त्रिविध मार्ग का प्रतिपादन हुआ है, तथापि प्राचीन आगामों (उत्तराध्ययन और दर्शन पाहुड) में एक चतुर्विध मार्ग का भी वर्णन प्राप्त होता है।१३ साधना के चौथे अंग को सम्यक् तप कहा गया है। जिस प्रकार अन्यान्य परम्पराओं में ज्ञानयोग, कर्मयोग, भक्तियोग के साथ-साथ ध्यानयोग का भी निरूपण