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________________ ५७ के प्रतीक हैं। जैन-साधना में जिस प्रकार मोक्ष के त्रिविध मार्ग-सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र एक-दूसरे से अपृथक् हैं ठीक उसी प्रकार तत्त्वदर्शन, धर्मदर्शन और आचारदर्शन भी एक-दूसरे से अपृथक् हैं। त्रिविध साधना मार्ग मात्र जैनागमों में ही स्वीकृत नहीं है, अपितु अन्यान्य परम्पराओं में भी स्वीकृत हैं, यथाबौद्ध दर्शन में प्रज्ञा, शील एवं समाधि तो हिन्दू साधना - पद्धतियों (गीता) में ज्ञान, कर्म एवं भक्ति। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से मानवीय चेतना के तीन पक्ष स्वीकृत हैं - ज्ञान, भाव और संकल्प। नैतिक जीवन का साध्य चेतना के तीनों पक्षों का विकास है और एतदर्थ नैतिक जीवन के तीनों पक्षों के समुचित विकास हेतु त्रिविध साधना-पक्ष का विधान अभिहित हुआ है। जहाँ चेतना के भावात्मक पक्ष को सम्यक् बनाने के लिए एवं यथार्थ विकास हेतु सम्यग्दर्शन का विधान हुआ है वहीं ज्ञानात्मक पक्ष व संकल्पात्मक पक्ष के सम्यक् विकास हेतु ज्ञान और चारित्र का विधान अभिहित हुआ है। इस प्रकार स्पष्ट है कि त्रिविध साधनापक्ष के विधान के पृष्ठभूमि में एक मनोवैज्ञानिक दृष्टि रही है। जैनागमों के अनुसार सम्यग्दर्शन से ज्ञान एवं चरित्र सम्यक् रूप को प्राप्त होता है। यह सामान्यत: सात तत्त्वों का या विशेषत: आत्म-अनात्म का यथार्थ बोध है। यह आत्मस्वरूप/उन्मुखता है। सम्यग्दर्शन देव-गुरु-शास्त्र के प्रति श्रद्धा है। यह व्यावहारिक जीवन में शम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और आस्तिकता इन पाँच रूपों में अभिव्यक्त होता है। शम क्रोधादि कषायों को शान्त करता है जबकि संवेग मोक्षप्राप्ति की कामना करता है। निर्वेद विषय - भोगों के प्रति अनासक्ति समुत्पन्न करता है तो अनुकम्पा समस्त प्राणिमात्र के प्रति मैत्री भाव। इसका साम्य पातन्जल योग दर्शन के ईश्वर प्राणिधान से है - 'क्लेशकर्मविपाकफल परामृष्टः पुरुषविशेष: ईश्वरः।' योग दर्शन में ईश्वर साधक के विघ्नों को दूर करता है जबकि जैनविचारणा में स्वीकृत सिद्ध आत्माएँ मात्र प्रेरणादायक हैं। ईश्वर के अनस्तित्त्व को स्वीकार करने वाले जैनयोग में सम्यग्दर्शन जनित निष्काम कर्म की अवधारणा उपलब्ध है, क्योंकि यह पुरुषार्थ बंधन का कारण नहीं है। बौद्धयोग में भी अष्टांगमार्ग के अन्तर्गत सम्यग्दृष्टि की अवधारणा चार आर्यसत्य के प्रति श्रद्धा है। जैन परम्परानुसार सर्वप्रथम ज्ञान तत्पश्चात् अहिंसा का आचरण संयमी साधना का यही क्रम है। उत्तराध्ययन में कहा गया है - ज्ञान, अज्ञान एवं मोहजन्य अन्धकार को नष्टकर सभी तथ्यों को देदीप्यमान करता है। बौद्ध परम्परा में निरूपित त्रिविध साधनामार्ग के अन्तर्गत प्रज्ञा का वही स्थान है जो सम्यग्ज्ञान का जैन परम्परा में है। सुत्तनिपात में बुद्ध कहते हैं - अविद्या के कारण मनुष्य मृत्यु रूपी संसार में प्रवेश करते हैं एवं एक गति से दूसरी गति को प्राप्त होते हैं। यह अविद्या महामोह है, जिसके आश्रित लोग संसार में पुनरागमन करते हैं। जो लोग विद्या से मुक्त नहीं है, वे पुर्नजन्म को
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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