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________________ ५६ गुप्ति मन की एकाग्रता एवं निरोध का संकेत है। जहाँ योग साधना के आरम्भ में सत्प्रवृत्तिरूप समिति होती है वहीं सम्प्रज्ञात में एकाग्रतारूप मनोगुप्ति और असम्प्रज्ञात में निरोधरूप मनोगुप्ति होती है। जैनागमों में द्वादशांग योग का निरूपण हुआ, जो इस प्रकार है- अनशन (सब प्रकार के आहार का अल्पकालीन या दीर्घकालीन परित्याग), उणोदरी (भूख से कम भोजन करना), भिक्षाचर्या (भिक्षा के नियमों का पालन करते हुए भिक्षान्न पर जीवन निर्वाह करना), रस-परित्याग (रसेन्द्रिय से प्राप्त होने वाले सुख का परित्याग). कायक्लेश (यह शरीर दमन नहीं, अपितु यह शरीर परीक्षण है), प्रतिसंलीनता (एकान्तवास एवं इन्द्रियों के भोगों का त्याग ), प्रायश्चित्त (अपने दोषों की स्वीकृति), विनय (अहंकार त्याग), वैयावृत्य (दशविध भिक्षु एवं संघ की सेवा शुश्रुषा करना), स्वाध्याय (आध्यात्मिक साहित्य का पठन-पाठन), व्युत्सर्ग (शरीर के ममत्व का, परित्याग) और ध्यान (मन / चित्त को किसी विषय पर केन्द्रित करना) । ' इसमें से प्रथम छः को बाह्य साधना एवं अन्तिम छः को आभ्यन्तरिक साधना की संज्ञा दी गयी है। जिस प्रकार जैनागमों में बाह्य साधन और आभ्यन्तर साधन का विधान अभिहित है उसी प्रकार पातन्जल योग में भी यम, नियम, आसन, प्राणयाम एवं प्रत्याहार को बहिरंग साधन तथा धारणा, ध्यान और समाधि को अन्तरंग साधन की संज्ञा दी गयी है। पातन्जल योग में निरूपित धारणा, ध्यान और समाधि जैनयोग के अन्तर्गत ध्यान में ही समाविष्ट है। ध्यान की चार अवस्थाओं आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान में से प्रथम दो का साधन एवं योग की दृष्टि से कोई महत्त्व नहीं है। आध्यात्मिक साधना की दृष्टि से धर्मध्यान और शुक्लध्यान ही महत्त्वपूर्ण हैं। इसमें शुक्ल ध्यान की अवस्था समाधि के समतुल्य है। समाधि के दो रूप प्राप्त होते हैंसम्प्रज्ञात समाधि और असम्प्रज्ञात समाधि । सम्प्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव, जैनयोग के अन्तर्गत शुक्लध्यान के प्रथम दो प्रकार पृथकत्त्व विचार - सविचार ( कभी अर्थ का चिन्तन करते-करते शब्द का, तो शब्द का चिन्तन करते-करते अर्थ का ध्यान करना) और एकत्त्व वितर्क - अविचार (अर्थ, व्यंजन और योग संक्रमण से रहित एक पर्याय - विषयक ध्यान) में तथा असम्प्रज्ञात समाधि का अन्तर्भाव शुक्लध्यान के अन्तिम दो प्रकार - सूक्ष्मक्रिया अप्रतिपाती ( मन, वचन और शरीर के व्यापार का निरोध हो जाने एवं केवल श्वासोच्छ्वास की सूक्ष्म क्रिया के शेष रहने पर ध्यानावस्था) और समुच्छिन्नक्रियानिवृत्ति (मन, वचन और काय के साथ-साथ सूक्ष्म क्रिया के निरोध की अवस्था) में हो जाता है। इस प्रकार पातन्जल योग में निरूपित अष्टांग योग का विवेचन समुचित रूप से जैनागमों में हुआ है। - - जैनागमों में मोक्षमार्ग के रूप में निरूपित सम्यक्दर्शनज्ञानचारित्र को त्रिविधयोग कहा गया है।" यहाँ पर दर्शन, ज्ञान और चारित्र क्रमशः धर्म, तत्त्वज्ञान और आचरण
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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