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________________ ६६ द्रव्यम्'९ अर्थात् द्रव्य अपने गुणों व पर्यायों से तन्मय होता है। जिस प्रकार वस्त्र ताने-बाने से मिलकर बनता है, ताने-बाने के बिना वस्त्र का कोई स्वरूप नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक द्रव्य गुण-पर्यायवान होता है। यहाँ उत्पाद-व्यय पर्याय में समाहित हो जाते हैं और ध्रौव्य में नित्य विद्यमान रहने वाले गुणों का समावेश हो जाता है अर्थात् उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य का धारक द्रव्य होता है या गुण-पर्यायवान द्रव्य होता हैइन दोनों कथनों में कोई फर्क नहीं है। ___ इस प्रकार द्रव्य इन तीन लक्षणों से युक्त है - सत्, उत्पादव्ययध्रौव्य और गुण पर्यायें। ये तीनों लक्षण परस्पर अविनभावी हैं। जहाँ एक है वहाँ शेष दोनों नियम से होते हैं। जैसे, यदि द्रव्य सत् है तो वह उत्पाद-व्यय व गुण-पर्याय संयुक्त अवश्य होगा। ऐसा ही अन्य के सम्बन्ध में सत्य है, कहा भी है - "जो अपने अस्तित्व स्वभाव को नहीं छोड़ते हुए उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य से युक्त होने के साथ गुणवान और पर्यायवान होता है, उसे द्रव्य कहते हैं।' १० द्रव्य - यह हम पहले कह चुके हैं कि जैनदर्शन में जाति अपेक्षा छह और संख्या अपेक्षा अनन्तानन्त द्रव्य स्वीकार किये गये हैं, ये छह द्रव्य हैं - १. जीवद्रव्य अनन्त २. पुद्गलद्रव्य अनन्तानन्त ३. धर्मद्रव्य ___ - एक ४. अधर्मद्रव्य एक ५. आकाशद्रव्य एक ६. काल द्रव्य लोक प्रमाण असंख्यात ये सभी द्रव्य एक साथ आकाशद्रव्य में अपने-अपने चतुष्टय में रहते हुए स्वतन्त्र रूप से अपना-अपना कार्य करते हुए अवगाहना पा रहे हैं। यदि इन सभी द्रव्यों की स्वतन्त्रता न होती तो वे अनन्त न कहलाते और यदि इनकी अलग-अलग सत्ता है तो फिर इनका भिन्न-भिन्न स्वतन्त्र परिणमन स्वीकार करने में हमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। गुण - प्रत्येक द्रव्य अनन्त गुणमयी होता है, उसमें सामान्य और विशेष गुण पाये जाते हैं। गुणरहित द्रव्य का अस्तित्व सम्भव नहीं है, क्योंकि गुणों का समुदाय ही द्रव्य है। सामान्य गुण सभी द्रव्यों में समान रूप से पाये जाते हैं और विशेष गुण प्रत्येक द्रव्य का पृथक् - पृथक् होता है, जो द्रव्य को वैशिष्टय या विशेषता प्रदान
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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