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पुन: यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि जब प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है तो वह प्रत्येक समय में बदलकर अन्य-अन्य क्यों नहीं हो जाता, क्योंकि प्रथम समय में जो द्रव्य है वह जब दूसरे समय में बदल गया है तो उसे प्रथम समय वाला मानना कैसे संगत हो सकता है? इसलिए या तो यह कहना चाहिए कि कोई पदार्थ परिवर्तनशील नहीं है या यह मानना चाहिए कि जो प्रथम समय जो द्रव्य है वह दूसरे समय में नहीं रहता, नवीन उत्पन्न हो जाता है।
यह शंका निराधार है, क्योंकि परिणमन प्रत्येक वस्तु का स्वभाव है और यह परिणमनशीलता प्रत्यक्ष व अनुमान प्रमाण से सिद्ध है, अबाधित है। परिणमन रहित वस्तु अस्तित्व को धारण नहीं करती, वह गधे के सींग के समान असत् है। जहाँजहाँ वस्तु दिखाई देती है वहाँ-वहाँ परिणाम दिखाई देता है। जैसे, गोरस अपने दूध, दही, छाँछ, घी इत्यादि परिणामों से ही युक्त दिखाई देता है। जहाँ परिणाम नहीं होता, वहाँ वस्तु नहीं होती। परन्तु वस्तु का परिणमन प्रति समय होने पर भी वह अन्य वस्तुरूप नहीं हो जाती, बल्कि उसकी अवस्था परिवर्तित हो जाती है। जैसे, हमारे शरीर की बाल, युवा, प्रौढ़, वृद्ध आदि अवस्थायें होती हैं पर उसमें पुद्गल का सतरूप अस्तित्व ज्यों का त्यों बना रहता है, वह नाश को प्राप्त नहीं होता। यदि सत् को सर्वथा परिवर्तनशील माना जाय तो उपरोक्त वर्णित दोष उत्पन्न होंगे और यह आपत्ति अनिवार्य रूप से लागू होगी। जैनदर्शन सत् को केवल परिणामस्वभावी स्वीकार न कर उसे उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य संयुक्त मानता है। यथा - _ "द्रव्य की अन्य पर्यायें उत्पन्न होती हैं और अन्य पर्याय व्यय को प्राप्त होती हैं तो भी द्रव्य स्वयं न तो नष्ट हुआ और न उत्पन्न हुआ है।"
___ यद्यपि यह कथन थोड़ा विलक्षण प्रतीत होता है कि द्रव्य स्वयं उत्पन्न और विनष्ट न होकर भी अन्य पर्याय रूप कैसे उत्पन्न होता है और व्यय को कैसे प्राप्त होता है, किन्तु इसमें विलक्षणता की कोई बात नहीं है क्योंकि सत् अपने सामान्य स्वभाव की अपेक्षा न तो उत्पन्न होता है और न व्यय को प्राप्त होता है। फिर भी उसमें उत्पाद-व्यय होता है, सो वह पर्याय (विशेष स्वभाव) की अपेक्षा से है। इसलिए यदि द्रव्य का ही विनाश, द्रव्य का ही उत्पाद और द्रव्य का ही ध्रौव्य माना जाये तो सब गड़बड़ हो जाये, क्योंकि इससे सत् का विनाश, असत् का उत्पाद एवं द्रव्य की कूटस्थता का प्रसंग आएगा। अत: उत्पाद-व्यय -ध्रौव्य पर्यायों में होते हैं और पर्यायें द्रव्य में होती हैं, इसलिए ये सब एक ही द्रव्य रूप हैं।
समस्त द्रव्यों की ध्रुवता व परिणमन का स्पष्टीकरण करने के पश्चात् यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि वस्तु स्वयं में कैसी है? जैनदर्शन वस्तु को गुण-पर्याय युक्त मानता है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने इसे इस प्रकार व्यक्त किया है कि “गुणपर्यायवद्