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हैं। यदि स्वर्ण सर्वथा एकरूप तथा अनित्यरूप होवे तो उससे कुण्डलादि कार्य नहीं बन सकते। अतः वस्तु स्वभाव से ही अनेकान्त स्वरूप है।
उपरोक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि वस्तु न तो सर्वथा नित्य है और न ही सर्वथा क्षणिक, बल्कि एक ही समय में नित्य व अनित्य धर्मों को एक साथ अपने में समाहित किये हुए है। यही कारण है कि जैनदर्शन सत्ता को उत्पादव्ययध्रौव्य स्वभावात्मक स्वीकार करता है। तत्त्वार्थसूत्र ( ५:२९ ) में सत्ता / वस्तु को “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तंसत्" के रूप में परिभाषित किया गया है अर्थात् सत् हमेशा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य इन त्रिलक्षणों से युक्त होता है, वस्तु का स्वरूप स्थायी रहते हुए भी बदलता रहता है। विज्ञान में भी ऐसा सिद्धान्त है किन्तु यह सिद्धान्त केवल पुद्गल द्रव्य से सम्बद्ध है, जबकि यह सभी द्रव्यों के सम्बन्ध में सच है।
प्रत्येक वस्तु स्वयं अपना अस्तित्व ध्रुव रूप बनाये रखते हुए भी अपनी पूर्व अवस्था को छोड़ती और नवीन अवस्था का उत्पाद करती हुई, अनादि अनन्त काल तक अपने अस्तित्व को कायम रखती है। ऐसा वस्तु का निजवैभव या स्वभाव है, जैसे - मिट्टी अपने पिण्ड रूप पर्याय का व्यय करती हुई घट रूप नवीन पर्याय का उत्पाद करती हुई, घट व पिण्ड दोनों अवस्थाओं में मिट्टी रूप ध्रुव अस्तित्व से एकमेक/ तद्रूप रहती हुई त्रिलक्षणयुक्त स्वभाव को सूचित करती है । इससे सिद्ध होता है कि सत्रूप वस्तु हमेशा एकरूप नहीं रहती है, वरन् यह अपनी एकरूपता कायम रखती हुई, अनेक प्रकार की नवीनता प्रतिसमय करती हुई अपने अस्तित्व को बनाये रखती है। आशय यह है कि पदार्थ परिवर्तनशील है, जैसे दूध कुछ समय बाद दही रूप में परिणित हो जाता है और फिर दही से छाँछ बना लिया जाता है। यद्यपि दूध से दही व दही से छाँछ ये तीन भिन्न अवस्थायें हैं, पर ये तीनों एक ही गोरस से उत्पन्न हैं। इस प्रकार प्रत्येक द्रव्य में अवस्था भेद होने पर भी उसका अन्वय पाया जाता है जो वस्तु के त्रिलक्षण अस्तित्व को सिद्ध करता है।
अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि द्रव्य एक ही समय में तीन रूप कैसे हो सकता है? कदाचित कालभेद से उसे उत्पाद व व्यय रूप मान लिया जाय, क्योंकि जिसका उत्पाद होता है उसका कालान्तर में व्यय अवश्य होता है तथापि ऐसी अवस्था में द्रव्य ध्रौव्य नहीं हो सकता क्योंकि जिसका उत्पाद-व्यय होता है उसे धौव्य स्वभाव मानने में विरोध आता है।
इसका समाधान यह है कि “अवस्था भेद से तीनों धर्म माने गये हैं। जिस समय द्रव्य की पूर्व अवस्था नाश को प्राप्त होती है उसी समय उसकी नयी अवस्था उत्पन्न होती है, फिर भी उसका त्रैकालिक अन्वय बना रहता है। "६ उक्तंच
" द्रव्य एक ही समय में उत्पत्ति, स्थिति और व्यय संज्ञा वाले पर्यायों से समवेत है अर्थात् तादात्म्य लिए हुए है, इसलिए द्रव्य नियम से तीनोमय है । "
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