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________________ ६३ का प्रसंग आएगा। अत: वस्तु के स्वतःसिद्ध स्वभाव को मानना उचित है। अनादिनिधन स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु परतःसिद्ध माननी होगी, हर पदार्थ पर के सहयोग से उत्पन्न होगा, जिससे अनवस्था नामक महत् दूषण उत्पन्न होगा। स्वसहाय न मानने पर सत् का नाश मानना होगा, क्योंकि वस्तु के स्वतन्त्र, स्थिति, टिकाव व परिणमन के अभाव में समस्त द्रव्य परस्पर एक-दूसरे के कार्यों में हस्तक्षेप करने लगेंगे जिससे किसी भी वस्तु का मूल स्वरूप न ठहर सकेगा। निर्विकल्प स्वभाव की स्वीकृति के अभाव में वस्तु को युतसिद्ध माना होगा। इस प्रकार या तो वस्तु के स्वत:सिद्ध स्वभाव को स्वीकृत करना होगा या फिर दूषणयुक्त वस्तु को स्वीकृत करना होगा जिससे वस्तु-व्यवस्था सम्भव न हो सकेगी। अत: विश्व की दोषमुक्त व्यवस्था पूर्वोक्त लक्षणों को स्वीकार करने पर ही सम्भव है, अन्यथा नहीं। इसी कारण जैनदर्शन पूर्वोक्त लक्षणों से युक्त वस्तु को स्वीकृत कर वस्तु-व्यवस्था का प्रतिपादन करता है। जैनदर्शन विश्व लोक में छः द्रव्यों की सत्ता को स्वीकार करता है, जो जाति की अपेक्षा छ: व संख्या की अपेक्षा अनन्त हैं अर्थात् षद्रव्यों का समुदाय ही विश्व है। “यथा लोकयन्ते यस्मिन् षटद्रव्याणि इति लोकः” जिसमें छ: द्रव्य अवलोकित किये जाते हैं, उसका नाम लोक है, ऐसी उसकी व्युत्पत्ति है। अब प्रश्न उत्पन्न होता है कि सत्तावान वस्तु कैसी है? क्या वह सर्वथा कूटस्थ व नित्य है या फिर सर्वथा परिवर्तनशील व अनित्य है? जैनदर्शन वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का प्रतिपादक होने से वह वस्तु को न तो सर्वथा कूटस्थ और न ही पूर्णत: परिवर्तनशील मानता है, बल्कि वह वस्तु को दोनों धर्मों से युक्त मानता है और एकान्त पक्ष का निषेध करता है। क्योंकि यदि वस्तुमात्र को सर्वथा नित्य स्वीकार कर लिया जाए तो उसमें क्रम से होने वाले पर्यायों का अभाव होने से जो परिवर्तन दृष्टिगोचर होता है वह नहीं बन सकता और यदि उसे सर्वथा क्षणिक स्वीकार कर लिया जाए तो उसमें यह वही वस्तु है, ऐसे प्रत्याभिज्ञान के अभाव में एक सन्तानपने का अभाव प्राप्त होता है। प्रत्येक वस्तु को अनेकान्त स्वरूप सिद्ध करते हुए वस्तु को सर्वथा नित्य स्वरूप या सर्वथा अनित्य स्वरूप स्वीकार करने पर जो दोष आता है उसका स्पष्टीकरण करते हुए कार्तिकेयानुप्रेक्षा में कार्तिकेय स्वामी कहते हैं कि - “परिणाम से रहित नित्य द्रव्य न तो कभी नष्ट हो सकता है और न कभी उत्पन्न हो सकता है। ऐसी अवस्था में वह कैसे कार्य कर सकता है।" "क्षण-क्षण में अन्य-अन्य होने वाला विनश्वर तत्त्व अन्वयी द्रव्य के बिना कुछ भी कार्य नहीं कर सकता।"५ ___लोक में नित्य-अनित्य, एक-अनेक इत्यादि अनेक धर्मयुक्त वस्तुएं ही कार्यशील दिखाई देती हैं। जैसे, स्वर्ण से कुण्डल, अंगूठी इत्यादि अनेक वस्तु बनती
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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