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________________ कवि ने कुछ इस प्रकार किया है कि “कृपण अपना धन जमीन में इसलिए गाड़ देता है कि हमें एक दिन रसातल में जाना ही है तो पहले से ही प्रस्थान क्यों न रख दें"।३२ इसी क्रम में कवि ने शान्त रस का भी बड़ा ही सुन्दर चित्र उपस्थित किया है यथा मनुष्य की आयु सौ वर्ष है। उसमें आधी रातें निकल जाती हैं। उस शेष आधे भाग का भी आधा जरा और शैशव छीन लेते हैं। जीवन जल बिन्दु के समान है, यौन जरा के साथ उत्पन्न होता है, सब दिन समान नहीं होते तब भी लोग क्यों निष्क्रिय बने रहते हैं।३३ रौद्र और भयानक रसों का भी उदाहरण मिल जाता है। इस प्रकार वज्जालग्गं में रसों का अभाव नहीं है, परन्तु उसका प्रधान रस श्रृंगार ही है। सम्पूर्ण ग्रंथ प्रणय के मनोरम चित्रों से परिपूर्ण है। वज्लालग्गं में श्रृंगार रस के दोनों पक्षों का चारुचित्रण है। यद्यपि संभोग और विप्रलम्भ दोनों के उदात्त वर्णनों से वन्जायें भरी पड़ी हैं परन्तु प्राधान्य विप्रलम्भ का ही है। वाह और सुरय वज्जाओं को छोड़कर अन्य वज्जाओं में उसी का साम्राज्य है। जीवन में वियोग की व्याप्ति अधिक है संयोग के अवसर नितान्त सीमित हैं। विरह को वास्तविक अग्नि कहा गया है। वह काम रूपी वायु से प्रेरित और स्नेह रूपी ईंधन से उद्दीपित होने पर असह्य बन जाता है। सन्निपात के समान उसमें ज्वर, शीत और रोमांच के लक्षण प्रकट होते हैं। विरहताप के वर्णन अतिशयोक्तिपूर्ण हैं। शीतोपचार की रूढ़ियों को स्वीकार किया गया है। चन्द्र और चन्दन भी विरहिणियों को दग्ध करते हैं। वे प्राय: अनंग और चन्द्र को उपालंभ देती हैं। कहीं-कहीं नि:स्वार्थ प्रणय के ऐसे उदात्त वर्णन भी मिलते हैं, जहाँ प्रेमिका प्रेमी के सुधासिक्त अंगों के स्पर्श की भी इच्छा नहीं करती, उसे देख लेना ही पर्याप्त समझती है - अच्छउ ता फंससुहं अमयरसाओ वि दूररमणिज्ज। दंसणमेत्तेण वि पिययमस्य भण किं ण पज्जत्तं।।४०७ (प्रियानुराग वज्जा) वज्जालग्गं का भणिति वैदग्ध्य अद्वितीय है। विविध भावों का परिपोष और रसों का अतिरेक, इसकी विशेषतायें हैं। काव्यशास्त्र में रसादि को असंलक्ष्य-क्रम ध्वनि कहा गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ में विभिन्न रसों का अभाव न रहने पर भी श्रृंगार की ही प्रमुखता है। अनेका वज्जाओं में करुण, वीभत्स, वीर, अद्भुत और शान्त रसों के उदाहरण बिखरे पड़े हैं। इसी प्रकार से ग्रंथ में ध्वनि, वक्रोक्ति और अलंकृति से परिपूर्ण है। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि वज्जालग्गं के काव्यात्मक मूल्य सभी वज्जाओं में प्राप्त होते हैं। सन्दर्भ: १. विविहकइविरइयाणं गाहाणं वरकुलाणि घेत्तुण। रइयं वज्जालग्गं विहिणा जयवल्लहं नाम।। वज्जालग्गं, गाथा ३.
SR No.525050
Book TitleSramana 2003 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivprasad
PublisherParshvanath Vidhyashram Varanasi
Publication Year2003
Total Pages176
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Sramana, & India
File Size7 MB
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